गंगा का तेज बहाव, पैरों तले सरक रही थी मिट्टी, सामने साक्षात मौत, डूबते के लिए लाश बनी सहारा
कई बार जीवन से ऐसी घटनाएं होती हैं, जब व्यक्ति का मौत से साक्षात्कार हो जाता है। ऐसी घटनाएं कई बार होती हैं। फिर व्यक्ति यह अवलोकन करने लगता है कि कौन सी घटना बड़ी थी या ज्यादा खतरनाक थी।

तब में सहारनपुर में था। देहरादन से वहां के लिए तबादला होने पर मैं परिचितों की सूची भी साथ ले गया। नए शहर में कब कौन काम आ जाए, इसका पता नहीं होता। मेरी एक मौसी के बेटे नीलकंठ भाई साहब भी सहारनपुर रहते थे। मौसी को तो मैने जीवन में कभी नहीं देखा। भाई साहब को बचपन में देखा था। उनकी शक्ल भी मुझे याद नहीं थी। भाई साहब के चार बच्चे थे। बड़ा बेटा अपने परिवार के साथ अलग रहता था। दो बेटी और फिर एक छोटा बेटा उनके साथ थे।
सहारनपुर में रहने के दौरान मैं भाई साहब के घर अक्सर जाया करता था। भाई साहब की सबसे बड़ी बेटी संगीता तब करीब सत्रह साल की थी। वह मुझे चाचा कहती और मैरे खाने का विशेष ख्याल रखती। छुट्टी के दिन मैं उनके घर जाता। वह पहाड़ी व्यंजन कभी काफली (पालक का साग), कभी चौसाणी (कूटने के बाद पकाई गई उड़द की दाल) आदि बनाती थी। होटल में खाना खाकर मैं ऊब जाया करता था। इसलिए अवकाश के दिन उनके घर जाकर खाने का मोह मुझे हमेशा रहता था।
खूब बातूनी, हंसी मजाक के स्वभाव वाली थी संगीता। एक दिन दोपहर के समय मुझे किसी परिचित का फोन आया कि संगीता की मौत हो गई। इस सूचना ने मुझे बुरी तरह झकझोर दिया। खैर ईश्वर की यही मर्जी थी। मैं भाई साहब के घर गया। अगले दिन अंतिम संस्कार के लिए शव को हरिद्वार ले गए। पहले ही तय हो चुका था कि शव को गंगा में जल समाधी दी जाएगी। हरिद्वार चंडीघाट पर शव को ले गए। कल तक उछलती कूदती संगीता जो चिर निंद्रा में सोई थी, उसके शव को लेकर हम कुछ लोग गंगा के प्रवाह में उतरे।
कमर से ज्यादा गहराई तक उतरने के बाद शव को रस्सी व पत्थरों से बांध दिया गया। ताकि प्रवाह में बह न जाए। जल समाधी देने के बाद सभी किनारे जाने लगे। पीछे मैं रह गया। तभी मुझे अहसास हुआ कि मेरे पैर से जमीन खिसक रही है। पानी का बहाव अचानक बढ़ा और मैं बहने लगा। तभी मैंने अपने को बचाने के लिए संगीता का हाथ पकड़ लिया। उसका हाथ हल्का सा पानी से बाहर को निकल रहा था। शव का सहारा लेकर मैं कम पानी की तरफ बढ़ने लगा। तब जाकर मैं खुद को संभाल पाया और कूदकर पानी से बाहर की तरफ को भागा। इस दौरान मुझसे आगे सभी लोग किनारे पहुंच चुके थे। मेरे साथ क्या हो रहा ये उन्हें पता तक नहीं था। क्योंकि सबकी पीठ मेरी तरफ थी।
किनारे पहुंचने पर मैंने नदी की तरफ देखा। वहां पानी की लहर के साथ हिलता हुआ मुझे संगीता का हाथ नजर आ रहा था। मानो जो मुझे कह रही थी अलविदा चाचा जी। वो संगीता जो मेरी भतीजी थी। जो हमे छोड़कर चली गई थी और पानी में डूबते हुए उसकी लाश ही मेरा सहारा बनी। धीरे धीरे पानी का बहाव बढ़ता गया और उसका हाथ भी नदी के बढ़ते जल स्तर में डूबकर मेरी नजरों से ओझल हो गया।
भानु बंगवाल
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भानु बंगवाल, देहरादून, उत्तराखंड।