Loksaakshya Social

Social menu is not set. You need to create menu and assign it to Social Menu on Menu Settings.

Social menu is not set. You need to create menu and assign it to Social Menu on Menu Settings.

November 22, 2024

पति और बेटे ने किया पलायन, मिट्टी से मोह नहीं छोड़ा मांजी ने, गांव को जिंदा रखने को अकेले किया संघर्ष

सच ही तो है, जिस मिट्टी में जन्म लिया गया, उसे छोड़ने की क्यों कोई कल्पना करेगा। 97 वर्षीय इस मांजी के साथ भी ऐसा ही हुआ। पति और बेटे ने मजबूरी कहें या शिक्षा कहें या फिर नौकरी के लिए पलायन किया, लेकिन मांजी ने खुद गांव में डटकर पलायन के खिलाफ संघर्ष किया। बेटा देहरादून में है और मांजी गढ़वाल में रहती हैं। इस उम्र में भी संघर्ष की गाथा को वह स्वंय लिखती हैं। खुद ही अपने काम करती हैं और अपनी जिंदगी से संतुष्ट भी हैं। जैसे मुझे पता चला कि मांजी अपने बेटे के यहां कुछ दिन रहने के लिए देहरादून के बंजारावाला आई हैं, तो मैं खुद को रोक नहीं सका। चल दिया मांजी से मिलने। ऐसा हर बार होता है, जब भी मांजी अपने देहरादून स्थित घर में आती हैं। आइए आज इन मांजी के संबंध में विस्तार से बताते हैं।
आंखों मे चमक, बातों मे व्यवहारिकता और आत्मियता, कुछ पहचानती सी दृष्टि और चेतनाशील एकाग्रता के साथ मैने करीब 97 वर्षीय मांजी के दर्शन किये तो लगा कि एक गहरे पर्वतीय संस्कार से मिल रहा हूं। जब मैं उनसे मिला तो वे तभी पौड़ी से आई थी। सात घंटों के सफर के बाद क्या उनसे मिलना उचित होगा। यही विचार मन में आए। सोचा कि वे कुछ थक गई होंगी और आराम करना चाहेंगी। मेरा ये सोचना गलत था।


उनके घर पहुंचा और मांजी को पुकारा तो वह सामने आ गईं और कुर्सी पर बैठ गई। मुस्कुराते हुए बातें करने को तैयार हो गईं। हमारा उनसे मिलना हुआ। उनके पुत्र शिव चरण भट्ट जी के घर पर। भट्ट जी सहज स्वभाव के अध्ययनशील व्यक्ति हैं। अध्यापन के क्षेत्र से सेवा निवृतहुए हैं । उनका बचपन पौड़ी और फिर मसूरी मे बीता। वह वहीं रमादेवी स्कूल मे पढ़े। उनके पिता सिटीबोर्ड में कार्यरत थे। उन्होने बताया कि उनकी मांजी गांव के पर्वतीय वातावरण मे रहीं। वह गांव को छोड़ने को राजी नहीं होती थी। कुछ दिन के लिए हमारे पास आती और फिर वापस गांव लौटने की जिद करने लगतीं। वह खुद छोटी उम्र में गांव मे ही उनके साथ रहे थे ।
मांजी का नाम है। स्यूडी देवी है और गांव है सैंज (बनगढ़स्यूं) पौड़ी गढवाल। उनके तीन पुत्र और दो पुत्रियां हैं। एक पुत्र का निधन हो चुका है। तो जैसा एक पर्वतीय महिला की दिनचर्या होती है, बस वैसी रही मांजी की दिनचर्या । सुबह से ही श्रम आरंभ हो जाता। गायों की सेवा और फिर घास लकड़ी का प्रबंध। रसोई के चूल्हे से धुंआ भी उनकी वजह से ही दिखाई पड़ता। चूल्हे के लिए लकड़ी बहुत दूर से लानी होती। पहाड़ों पर पहाड सा जीवन। कहीं खड़ी चढाई तो कहीं ढलान। पर दिनचर्या बदस्तूर जारी रहती।
उस समय आवागमन के साधन भी नही होते थे। बस प्रकृति से मजबूत पर्वत पुत्रियां पीठ पर बोझा उठा कर लाती ही रही हैं । ऐसा ही मेहनती जीवन मांजी ने भी बिताया। कई बार पहाड़ों मे जाना हुआ और वहां रहना भी हुआ। विभिन्न जनांदोलनों के दौरान। तो महसूस करने का मौका मिला । तो जाना कि महिलाएं ही पहाड़ की रीढ़ रही हैं । चाहे चिपको आन्दोलन मे गौरा देवी और उनकी साथी हों और या फिर शराबबन्दी आन्दोलन मे टिंचरी माई हों। उत्तराखंड आन्दोलन मे महिलाओं का योगदान कौन भुला सकता है। यह सब इस लिये भागीदार रहीं, क्योकि सबसे ज्यादा तो वही पर्वतों मे रहती हैं । अधिकांश पुरुषों को तो मजबूरन नोकरी करने बाहर ही जाना पड़ता है। कुछ लोगो ने कभी यहां के लिये मनीआर्डर इकोनोमी का भी नाम दिया है।
तो मुझे संदर्भवश मांजी को देख कर लगा कि वे पहाड़ों को जीने और बनाये रखने वाली महिला ही तो हैं। बिलकुल वैसी ही आत्मविश्वासी और दुलार से भरी हुईं । मुस्कुराते हुए उन्होंने छत पर पसरी धूप मे बैठकर लम्बी बातें करनी चाही। मुझे बताया गया था कि उन्हे बाते करना बहुत पसंद है। वे घंटो अपने आसपास की बाते करती हैं और वैसा ही अनुभव हुआ।


बंजारावाला मे भट्ट जी के आवास पर मांजी से मिलना हुआ और पता जला कि एक ब्लडप्रेशर की दवा के अतिरिक्त वे और कोई दवा नहीं खातीं। ईश्वर की दया से वह निरोगी हैं । उनकी दिनचर्या भी चौंकाने वाली है। वह सुबह 5बजे उठ जातीं हैं । अपना सभी कार्य स्वयं ही करतीं हैं । नहाना, धोना और स्वयं के कपड़े धोना आदि ।
97 साल की उम्र में वह बिना सहारे के चलती फिरती हैं । सीढ़ी चढकर धूप मे बैठती हैं । ऊपर से वे कई बार हमे देखकर आशीर्वाद देती और उपर आने का इशारा भी करतीं। जब मैं उनसे मिला तो वह बालबहा रही थीं। बहुत आत्यीय भाव से अपनी मन की बात साफसुथरे मन से कहती रहीं ।
वे अधिकांशतः गढवाली बोलती और समझती हैं । कुछ हिंदी भी ।
उन्हे हमारा इंतजार रहता है ।इसका सीधा अर्थ यह है कि एक अनुभवों से भरी नदी हमारी प्रतीक्षा कर रही है। मेरी इस बात को शीतल पानी के झरने के समीप होने की तरह भी समझा जा सकता है। पहाड़ों पर कठिन जीवन बिताने वाली हर महिला अनुभवों का विस्मृत जंगल है । जैसे मांजी से मैं बहुत कुछ जानना चाहता हूं ।नौले, धारे, काफल, किंगोड़, बुरांस और घुघुती के बासने को महसूस करना चाहता हूं । पहाड़ खिसकने और पण्गोले या बाघ लगने की बहुत सी कहानियां वे देहरादून आई तो अब वक्त मिल सकती है उनकी बाते सुनने का। एक दो साल पहले तक वह स्वयं भोजन बनातीं थीं अब नही। वे सब चीजों को चाव से खाती हैं। पाचन तंत्र बिलकुल ठीक ठाक है। उन्हे मैगी खाना बहुत पसंद है ।
जीवन की इस अवस्था मे वे चुस्त-दुरुस्त है। कामना हैं कि वे ऐसी ही रहें । वैसै मैं समझता हूं कि ऐसे ही जीवट के लोग मेरी कविताओं और कहानियों की ऊर्जा हो सकती हैं । वैसे आपतौर पर लोगो को आसपास को महसूस करने का वक्त मिल जाये तो मांजी जैसे प्रेरणास्रोत मिल जाये। बस जहां भी रहता हूं, वहां के वातावरण मे घुलमिल जाता हूं । मैं भट्ट जी के घर से लौट रहा था और माजी की आंखे याद आ रही थीं । मानो कह रही थी कि अब आना तो खूब देर बैठने के लिये आना। सच मे अब वहां पनी बहनो रेखा और रंजना दी के साथ अक्सर जाउंगा । ऐसा अपनापन कौन छोड़ सकता है। जैसा माजी के पास।


लेखक का परिचय
डॉ. अतुल शर्मा (जनकवि)
बंजारावाला देहरादून, उत्तराखंड
डॉ. अतुल शर्मा उत्तराखंड के जाने माने जनकवि एवं लेखक हैं। उनकी कई कविता संग्रह, उपन्यास प्रकाशित हो चुके हैं। उनके जनगीत उत्तराखंड आंदोलन के दौरान आंदोलनकारियों की जुबां पर रहते थे।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *