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August 4, 2025

चेहरा तो झूठ हो सकता है, लेकिन दिल तो सच्चा है

वेश बदलना भी एक कला है। वेश बदलकर जो पहचाना नहीं जाए, वही वेश बदलने की कला में माहिर होता है। कई बार वेश बदलने वाले का कोई न कोई मकसद भी होता है।

वेश बदलना भी एक कला है। वेश बदलकर जो पहचाना नहीं जाए, वही वेश बदलने की कला में माहिर होता है। कई बार वेश बदलने वाले का कोई न कोई मकसद भी होता है। कोई किसी काम को निकालने के लिए वेश बदलता है, तो कोई पेट की खातिर, तो कोई मनोरंजन के लिए। वेश वदलने का मुझे भी शोक रहा, लेकिन एक बार मैं इस शरारत पर मुसीबत में पड़ गया। तब से मैने वेश बदलने से तौबा ही कर ली।
देहरादून के डीएवी कॉलेज करनपुर के गेट के बाहर बच्चों के खाने की सामग्री (चूरन, लड्डू, टॉफी आदि) एक ठेली में बिकती थी। सातवीं जमात से ही मैं ठेली में अक्सर बुड्ढा खेलता था। बुड्ढा यानी एक गुड्डा ठेली पर रखा था। उसके हाथ में दस पैसे रखे जाते। ठेली वाला इन पैसे को गुड्डे के मुंह में डालता। फिर उसके सिर पर हम हाथ रखते। एक छोटे से बोर्ड के चारों तरफ सामान सजा होता। गुड्डे या बुड्डे के सिर पर हाथ रखने पर बोर्ड के बीच में एक सुंई तेजी से घूमती। जब रुकती तो जिस सामान के सामने सुंई की नोक होती, वही बच्चों को दे दिया जाता। ऐसे सामान में चूरन की पुड़िया, बिस्कुट आदि होता, जिसकी कीमत भी दस पैसे से कम होती। महंगी आयटम के आगे सुंई नहीं रुकती थी।
जब मैं नवीं क्लास में पढ़ता था, तब एक बार मेरी सुंई एक पैकिट के आगे रुकी। इस पर ठेली वाले को कुछ नुकसान जरूर हुआ और मुझे पैकिट देना पड़ा। इस पैकिट में दाढ़ी-मूंछ का सेट था। इस दाढ़ी-मूंछ का मैने शुरू में प्रयोग नहीं किया और घर पर ही पड़ी रही। वर्ष 1985 की बात है। जब मैं युवावस्था में पहुंचा तो कई बार मैं दाढ़ी व मूंछ लगाकर सिर पर बहन की चुन्नी से पटका बांधकर सिख जैसा दिखने का अभ्यास करने लगा। इसमें मैं काफी अभ्यस्त भी हो गया।
रंग खेलने वाली होली की पूर्व संध्या पर हर मोहल्ले में जगह-जगह होलिका के आसपास सांस्कृतिक कार्यक्रमों का आयोजन होता था। इस स्थान पर जाकर बदले वेश का परीक्षण करना मुझे सबसे उपयुक्त नजर आया। चेहरे पर दाढ़ी-मूंछ, सिर पर पटका, आंखों पर काला चश्मा लगा कर मैं निकटवर्ती होली का हुड़दंग देखने पहुंच गया। मुझे मेरे मित्र पहचान नहीं सके। कुछएक से मैंने अनजान बनकर बात भी की। काफी देर बाद ही मैने राज खोला, तब ही वे मुझे पहचान पाए। मैं खुश था कि मेरा वेश बदलना कामयाब रहा।
तय हुआ कि पूरी रात को एक होली से दूसरी होली तक घूमने के दौरान मैं इसी वेश में रहूंगा। रात के करीब नौ बज रहे थे। मुझे भूख लगने लगी। इस पर मैं मित्रों से यह कहकर घर की तरफ निकला कि खाना खाने के बाद जल्द आ जाऊंगा। घर पहुंचा और सीधे अपने कमरे में गया। वहां मेज पर मेरा खाना रखा हुआ था। मां व बहने दूसरे कमरे में थी। मैं कुर्सी पर बैठकर खाना खाने लगा। इस बीच मेरे पिताजी ने देखा कि एक अनजान सिख युवक सीधे घर में घुसा और खाना खा रहा है। इस पर वह आग-बबूला हो गए और हाथ में डंडा थामे मेरे आगे खड़े हो गए। तभी मौके की नजाकत भांपते हुए मैं पिताजी के सामने चिल्लाया यह मैं हूं। वह पहचाने नहीं, फिर चिल्लाए कौन मैं। ऐसे में मुझे दाढ़ी-मूंछ व पटका उतारकर फेंकना पड़ा। तब वह शांत हुए। तब तक उनकी एक लाठी मुझ पर पड़ चुकी थी।
ये थी मेरी युवावस्था की शरारत। तब वेश बदलने का मकसद सिर्फ अपना और दूसरों का मनोरंजन करना था। आज देखता हूं कि लोग असल जिंदगी में भी वेश बदल रहे हैं। शिवरात्री का पर्व हो, क्रिसमस डे हो या फिर ईद। मंदिर, ईदगाह और गिरजाघरो के बाहर इन दिन विशेष में भीख मांगने वाले भी तो बहुरुपिये ही होते हैं। मंदिर के आगे जो व्यक्ति माथे पर तिलक, सिर पर लाल चुन्नी बांधकर भीख मांगता है। वही ईदगाह के आगे भी नजर आता है। भीखारियों की ऐसी टोली में शामिल महिलाएं बुर्खा ओढ़े दान-दक्षिणा देने वालों की दुआ करती हैं। ये न ही हिंदू होते हैं न ही मुस्लिम। पेट की खातिर वे हर धर्म का चोगा ओढ़ लेते हैं।
सच ही तो है कि किसी का खून देखकर यह नहीं कहा जा सकता कि यह किस धर्म व जाति के व्यक्ति का है। फिर क्षेत्र व धर्म के नाम पर क्यों खून बहाया जाता है। धर्म के मायने तो ये भिखारी सिखा रहे हैं। जो रोटी के लिए हर धर्म का सम्मान करते हैं। आपराधिक प्रवत्ति के लोग भी वेश बदलते हैं। एक बार देहरादून में एक हत्या का खुलासा पुलिस ने किया। पुलिस ने दावा किया कि जब युवक को हत्यारोपी ने अपने पास किसी बहाने से बुलाया तब हत्या करने वाला युवक वेश बदले हुए था। ऐसे ही एक व्यक्ति जब कार चोरी करता था तो सिर पर विग लगाता था। हकीकत में वह गंजे सिर वाला बुजुर्ग था। जब कार चोरी कर लेता तो उत्तराखंड के बार्डर को पार करने के लिए वह विग हटा देता। बुजुर्ग को देखकर चेकपोस्ट में पुलिस भी उसकी चेकिंग नहीं करती थी।
वेश बदलना। यानी बाहर से कुछ और भीतर से कुछ दूसरा। अब तो ऐसे बहुरुपियों की समाज में कोई कमी नहीं है। इनमें सबसे आगे नेता हैं। जो समाज का हमदर्द बनकर उनका ही खून चूस रहे हैं। इन बहुरुपियों के चुंगुल में फंसकर ठगी का शिकार व्यक्ति को काफी देर बाद ही ठगे जाने का पता चलता है। ताजुब्ब है कि मैं तो एक बार वेश बदलकर मुसीबत में फंस गया, लेकिन इन नेताओं को तो सब कुछ हजम हो जाता है। फिर भी मेरा मानना है कि जो लोग वेश बदलकर किसी दूसरे को नुकसान नहीं पहुंचाते उनका चेहरा भले ही झूठा होता है, लेकिन दिल सच्चा होता है। वहीं, इसके विपरीत व्यक्तित्व वालों का न तो दिल ही सच्चा होता है और न ही चेहरा।
भानु बंगवाल

Bhanu Bangwal

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भानु बंगवाल, देहरादून, उत्तराखंड।

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