तीस छोटे मकानों से बसाया गया था टिहरी शहर, लागत आई थी सात सौ रुपये, जानिए टिहरी की स्थापना से जुड़ी रोचक बातें
टिहरी की स्थापना सन् 1815 में 28 दिसम्बर को चन्द्रवंशीय पंवार नरेश सुदर्शन शाह (कवि सूरत सिंह) ने सिंगौली की प्रथम ऐतिहासिक संधि के बाद भगीरथी के बायें किनारे (समुद्र तट से 2320 फीट की ऊँचाई) गणेश प्रयाग नामक स्थल पर अपनी नयी राजधानी के रूप में की थी। इसका नाम ‘टिहरी’ रखा था। आज से 205 वर्ष पूर्व सुदर्शन शाह ने यहाँ सात सौ रूपयों लागत से तीस छोटे मकान निर्मित करवाये थे तथा प्रत्येक मकान का वार्षिक किराया तीन रूपये निश्चित किया गया था। प्रारम्भ में यहाँ तीन सौ के लगभग जनसंख्या थी। बाद में धीरे-धीरे बढ़ती गयी। सुदर्शन शाह छोटे राज्य के अधीश्वर बने थे। इसलिए उन्होंने इसे टिहरी नाम दिया था। टिहरी जिले का भौगोलिक क्षेत्रफल 3642 वर्ग किलोमीटर और यहां की जनसंघख्या 2011 के अनुसार 6,18,931 है। पुराना टिहरी शहर अब सिर्फ लोगों की यादों में है। 1815 में निर्मित यह शहर अब टिहरी बांध की झील में समा चुका है। टिहरी बांध के संबंध में पढ़ने के लिए लोकसाक्ष्य से जुड़े रहिए। आगे उसके संबंध में भी जानकार दी जाएगी।
टिहरी का ये है अर्थ
राष्ट्रभाषा कोष में टिहरी शब्द का अर्थ छोटी बस्ती है। कुछ विद्वानों का मत है कि टिहरी शब्द ‘त्रिहरि’ है क्योंकि भागीरथी और भिलंगना के संगम पर पाताल गंगा गुप्त रूप से मिलती है। इस कारण यह क्षेत्र त्रिहरि हुआ। अपनी स्थापना के पचास वर्ष बाद सन् 1865 में टिहरी एक समृद्धनगरी के रूप में ख्याति पा चुकी थी।
टिहरी में शास्तार्थ के लिए होती थी सभाएं
महाराजा सुदर्शन शाह परिश्रमी और स्वावलम्बी थे। साहित्य से जुड़े विद्वानों का वे बहुत आदर करते थे उनके समय में इस नगरी में शास्त्रार्थ हेतु सभायें आयोजित होती रहती थीं। उन्होंने अनेक कलाकारों व साहित्यकारों को समानित किया था। उन्होंने ‘सभासार’ ग्रन्थ की रचना की थी। उनके पश्चात् उनके पुत्र भवानी शाह का राज्य शांतिमय रहा। वे दानी के रूप में प्रसिद्ध थे। तत्पश्चात् युवराज प्रताप शाह गद्दी पर बैठे। वे फारसी, संस्कृत और अंग्रेजी भाषाओं के ज्ञाता थे। उनकी मृत्यु के बाद एक वर्ष तक उनके चाचा कुंवर विक्रम शाह टिहरी गढ़वाल के राज प्रतिनिधि नियुक्त हुए। यह व्यवस्था की गयी क्योंकि प्रताप शाह के तीनों पुत्र नाबालिग थे। इसके बाद दिवंगत महाराज की धर्मपत्नी महारानी गुलेरिया ने राजप्रतिनिधि का पद सम्भाला।

नरेंद्र शाह के नाम से हुई नरेंद्रनगर की स्थापना
युवराज कीर्तिशाह के बालिग होते ही राज्य भार उन्हें सौंप दिया गया। इनके राज्यकाल में विश्वविख्यात संत स्वामी रामतीर्थ ने टिहरी में निवास किया था। महाराज कीर्तिशाह के प्रयासों से स्वामीजी ने हांगकांग, जापान, अमेरिका एवं मिस्त्र आदि देशों में वेदान्त और धर्म पर व्याख्यान दिये थे। महाराज कीर्तिशाह के बाद उनके पुत्र नरेन्द्र शाह ने राज्य व्यवस्था सम्भाली और नरेन्द्र नगर की स्थापना की।
नरेन्द्र शाह के पश्चात् युवराज मानवेन्द्र शाह ने एक सुयोग्य शासक के रूप में लगभग तीन वर्ष तक राज्य किया। इस बीच प्रजामंडल और कांग्रेस की गतिविधियों के समक्ष राजतंत्र का अन्त हो गया तथा 1 अगस्त 1949 को अन्य देशी रियासतों के प्रान्तों में विलय की भांति टिहरी गढ़वाल राज्य का भी उत्तर प्रदेश में विधिवत विलय हो गया। सन् 1960 में उत्तरकाशी को टिहरी गढ़वाल से विभक्त कर अलग जिला बना दिया गया। 1990 तक टिहरी गढ़वाल का मुख्यालय नरेन्द्र नगर था। बाद में इसे नयी टिहरी 5000 फीट की ऊंचाई पर स्थानांतरित कर दिया गया।
बदरीनाथ के उपासक
टिहरी नरेश बदरीनाथ के उपासक थे। महाराजा प्रतापशाह ने टिहरी शहर में अनेक भव्य इमारतों का निर्माण करवाया। इनमें प्रताप इंटर कालेज की बड़ी इमारत, मोतीबाग में जिला एवं सत्र न्यायालय का भवन आदि प्रमुख थे। प्रतापशाह ने सिमलासू (लगभग दो किलोमीटर दूर) में एक महल का निर्माण भी करवाया था। जो शीशमहल के नाम से जाना जाता था। इस महल की एक विशेषता यह है कि यह दुमंजिला था। इसकी निचली मंजिल रंगमहल के नाम से तथा ऊपरी मंजिल शीशमहल के नाम के जानी जाती थी। कहा जाता है कि इस महल में महाराजा प्रतापशाह स्वयं निवास करते थे।
लाटसाहब के नाम से लाठ कोठी
शीशमहल के समीप ही दो कोठियाँ थीं। जिन्हें लाटकोटी तथा गोलकोठी के नाम से जाना जाता था। ये दोनों कोठियाँ महाराजा कीर्तिशाह ने बनवाई थीं। लाट कोठी के विषय में कहा जाता है कि इस कोठी का निर्माण अंग्रेज गवर्नर के टिहरी आगमन से पूर्व मात्र ढाई महीने में किया गया था। इसलिए लाट साहब के नाम पर इस कोठी का नाम लाट कोठी पड़ा। लाट कोठी के समीप ही गोल कोठी है। इस कोठी में ही स्वामी रामतीर्थ अपने जीवन के अन्तिम क्षणों में रहे थे।
चीफ जज के फैसले के विरूद्ध हुजूर कोर्ट में सुनवाई
टिहरी नगर में घंटाघर के समीप ही पोलो ग्राउण्ड था। जिसे प्राचीन समय में पोलोखेत के नाम से जाना जाता था। पोलो ग्राउण्ड के ऊपर ही मोतीबाग था। मोती शेर के नाम से इस बाग का नाम मोती बाग पड़ा था। महाराजा प्रतापशाह ने मोती नाम के शेर के लिए लोहे की सलाखोंयुक्त एक कमरा बनाया था। बाद में इस कमरे को रजिस्ट्रार कार्यालय में परिवर्तित कर दिया गया था। महाराजा नरेन्द्र शाह के समय गंगा प्रसाद चीफ जज थे। रियासत में उस
समय 6 डिप्टी कलेक्टर, 2 जागीरदार तथा कुछ आननेरी मजिस्ट्रेट नियुक्त थे। दीवानी फौजदारी तथा मालगुजारी तीनों प्रकार का काम इसी कोर्ट में होता था। फैसले के विरूद्ध अपीलों को चीफ जज सुनते थे तथा चीफ जज के फैसले के विरूद्ध अपील हुजूर कोर्ट में जाती थी, जिसको महाराजा स्वयं सुनते थे।
महाराजा कीर्तिशाह ने ही सर्वप्रथम 1903 में टिहरी नगरी को जहाँ विद्युत प्रकाश से आलोकित किया था। वहाँ सन् 1905 में उन्होंने भिलंगना नदी से पानी मोटरों द्वारा खींचकर नगर में पेयजल की व्यवस्था की। नगर में स्थित ऐतिहासिक घंटाघर अपनी अद्भुत छवि कारण नगर का आकर्षण था। महारानी विक्टोरिया की हीरक जयंती की स्मृति में महाराजा कीर्तिशाह ने 20 जून सन् 1897 को इसका निर्माण करवाया था। कहा जाता है कि यहा घंटाघर अपनी वर्तमान ऊँचाई से कई फीट ऊंचा था। वज्रपात से इसका ऊपरी भाग क्षतिग्रस्त हो गया था।
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लेखक का परिचय
लेखक देवकी नंदन पांडे जाने माने इतिहासकार हैं। वह देहरादून में टैगोर कालोनी में रहते हैं। उनकी इतिहास से संबंधित जानकारी की करीब 17 किताबें प्रकाशित हो चुकी हैं। मूल रूप से कुमाऊं के निवासी पांडे लंबे समय से देहरादून में रह रहे हैं।
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भानु बंगवाल, देहरादून, उत्तराखंड।