शिक्षिका डॉ. पुष्पा खण्डूरी की दो कविता-श्रीराम प्राकट्य और जै जगदम्बे माता
श्रीराम प्राकट्य
चैत्र मास नवमी तिथि रघुवंश में,
हरि देने को शुभाशीष।
दशरथ गृह प्रकटे स्वयं प्रभु श्री राम जगदीश॥
आज अति ये शुभ घड़ी आई ।
रानी कौशल्या बनी आज श्री हरि की माई॥
दशरथ के गृह कृपा करि प्रकट भये रघुराई॥
नव पंकज सम मंजु लोचन हैं।
कंज सम ही मंजु हरि मुख है॥
मात कौशल्या अति चकित भई।
निरखहिं सुंदर शिशुरूप चतुर्भुज॥
इकटक पल रोकि निज सुत देखी॥
बालक की सुन्दर अति शोभा वरन न जाई,
कोटि – शशि अरु कोटि – मदन सम।
तेज रूप अतुलित,कोटि रवि सम॥
देव – दुर्लभ सुघर छवि मनोहर।
अतुलित रूप धर प्रभु करुणाकर॥
अखिल ब्रह्माण्ड जिस बिच समाया,
रोम – रोम महिमा जिस की वेद – पुराण।
आगम – निगम सब विधि गुण गाया॥
अपरंपार प्रभु तुअ हरि,
तेरी ये अद्भुत माया॥
बार- बार निज दुइ कर जोरि,
करत तात की स्तुति माँ भोरी॥
वात्सल्य बस अति मति अनुरागी।
बोली मात वचन विनत प्रेम रस पागी॥
सुन सुत सुन ले विनती तू मोरी।
तज दे ये माया रूप चतुर्भुज,
तात भ्रमित भई सारी मति मोरी।
चाहूँ देखन मैं बाल छवि तोरी॥
धरहूँ प्रिय सुत बालरूप अनुरागी।
कीजे शिशुलीला अति
जिय सुख माहीं।
वात्सल्य सम कछु सुख ‘जग नाहीं’॥
तव ममत्व मात – हिय अति हर्षाई।
धन्य – धन्य कर हूँ प्रिय तात निज माई॥
इहि सुख से बड़ जग में कछु नाहिं।
सुनि मातु – वचन प्रिय ममता -रस सानी॥
कर्ण – प्रिय लगी हरि को मां की ये बानी।
मंद – मंद हरि तब निज मन मुस्काना ॥
बाल – रूप धरुँ ये निज मन ठाना।
हरि तजि तुरत चतुर्भुज दिव्य – स्वरूपा,
धरि सुन्दर रुप शिशु बाल – स्वरूपा।
शिशु रुदन मचलाना , बालहठ ठाना,
हर्षित भई तब प्रभु की माई,
खुशियाँ सारे अयोध्या में छाई।
सरयू नीर उमड़त डोलत
हरषाई॥
माँ बालरूप छवि लखत रिझाई,
माँ लेत बलिइयाँ अर अति सुख पाई,
माता सोचति बार बार इहि सुख सम सुन्दर।
जग में अन्य कछु अन्य सुख नाहिं॥
निज मन ही मन श्री हरि मुस्काना।
बाल – रूप धरि प्रभु तब जाना॥
माँ की ममता, अर आँचल सम दूजा।
परम सुख तो ‘तीन लोक अर बैकुंठ’ में नाहीं। (अगले पैरे में देखें दूसरी कविता)
जै जगदम्बे माता
जै हो जै जगदम्बे माता
रुप तेरा भक्तों को भाता
लाल लाल चुनर है तेरी
लाल तेरा श्रृंगार है माता
मांग लाल सिंदूर विराजे
माथे सोहे मृगमद टीका
जै हो जै जगदम्बे माता
रुप तेरा भक्तों को भाता
भक्तों को दर्शन दे माता।
तेरी तो कृपा निराली,
तेरी भक्ति से निहाल भक्त
तू है झोलियाँ भरने वाली
जै हो जै जगदम्बे माता
रुप तेरा भक्तों को भाता
दुर्गे तुम हो दुर्गति शमनी
आरती तेरी है दुःखहरनी
दैत्य विनाशिनी शक्ति स्वरूपा।
भक्त उद्धारिणी शांत स्वरूपा॥
ऋद्धि सिद्धि धन वैभव दात्री।
सबकी कुमति निवारती है तू
देती है सबको सुबुद्धि माता
देती तू भक्तों को सुख माँ,
सबके दुःख तू टारती माता॥
ध्यान, ज्ञान, भक्ति से जन
जो भी तुमको ध्याता माता
तुमको पाकर सभी भक्तजन,
भव सागर से तर जाता।
जै हो जै जगदम्बे माता।
रुप तेरा भक्तों को भाता॥

प्रोफेसर, डॉ. पुष्पा खण्डूरी
डी.ए.वी ( पीजी ) कालेज
देहरादून, उत्तराखंड।

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भानु बंगवाल
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भानु बंगवाल, देहरादून, उत्तराखंड।