पावरलूम के नाम से मशहूर था ये मोहल्ला, बनाए जाते थे चादर और गमछा, अब कोरोनाकाल में बना रहे कफन
एक ऐसा मोहल्ला है, जो कभी चादर और गमछा बनाने में प्रसिद्ध था। अब कुछ परिवारों ने चादर की बजाय कफन बनाने का काम शुरू कर दिया है।
कोरोना महामारी ने छोटे-छोटे उद्योग की कमर तोड़कर रख दी है। बड़ी संख्या में ऐसे उद्योगों में ताला लग गया। कुछ एक लोग हैं, जो अब समय की नजाकत को देखकर उत्पादित होने वाली वस्तु को ही बदल रहे हैं। अब देखिए एक ऐसा मोहल्ला है, जो कभी चादर और गमछा बनाने में प्रसिद्ध था। यहां घर घर में मशीन चलती रहती थी। दूसरे राज्यों से निरंतर डिमांड आती थी। अब लोग कपड़ों में भी ध्यान नहीं दे रहे हैं। ऐसे में पेट की आग बुझाने के लिए कुछ परिवारों ने चादर की बजाय कफन बनाने का काम शुरू कर दिया है।
बिहार का मैनचेस्टर नाम से विख्यात
यहां बात हो रही है बिहार के गया जिले की। इस जिले के मानपुर प्रखंड के पटवा टोली मोहल्ले में बड़े पैमाने पर कफन और पितांबरी का निर्माण हो रहा है। कफन बनाने के काम में 15 से 20 परिवार लगातार लगे हुए हैं। लोगों का कहना है पूर्व में मांग बहुत कम थी, लेकिन अब कोरोना के कारण मौतों के आंकड़ों में हुई वृद्धि के बाद यह मांग दोगुनी हो गई है। पूरे परिवार के साथ दिन-रात कफन बनाने में लगे हुए हैं।
गया के मानपुर का पटवाटोली ‘बिहार का मैनचेस्टर’ के रूप में विख्यात रहा है।
अधिकतर मशीने बंद, मोहल्ला सुनसान
मानपुर के पटवाटोली में 10 हजार से भी ज्यादा पावरलूम मशीने लगी हुई हैं। जो मुख्य रूप से चादर और गमछा बनाने का कार्य करती हैं। इनके बनाए गमछा और चादर बिहार, झारखंड, उत्तर प्रदेश, पश्चिम बंगाल, उड़ीसा सहित देश के कई राज्यों में निर्यात होते हैं। अब पावरलूम बंद पड़ गया है। कोरोना के कारण ना तो व्यापारी यहां चादर गमछा खरीदने आ रहे हैं और ना ही यहां निर्माण हो पा रहा है। यहां की अधिकतर मशीनें बंद है और पूरा मोहल्ला सुनसान पड़ा हुआ है। इसी पटवाटोली के 15 से 20 घर ऐसे हैं जहां पावरलूम की मशीनें चालू हैं। इन मशीनों पर चादर, गमछा के बजाय अब कफन बनाया जा रहा है। इस व्यवसाय से जुड़े लोगों का कहना है कि कफन बनाने से मिले पैसों से हमारे घर की जीविका चल रही है।
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भानु बंगवाल, देहरादून, उत्तराखंड।