उत्तराखंड के सहायता प्राप्त 18 अशासकीय महाविद्यालयों में मार्च माह से नहीं मिला वेतन, सरकार की उदासीनता का भुगत रहे खामियाजा
उत्तराखंड में सहायता प्राप्त 18 महाविद्यालयों के कार्मिकों को मार्च महीने से वेतन से भुगतान नहीं हो रहा है। इससे इनके परिवारों में आर्थिक संकट खड़ा हो गया है।

कोरोनाकाल में कर्फ्यू के दौरान जहां बड़ी संख्या में लोग बेरोजगार हो रहे हैं, ऐसे में इन लोगों के मन में टीस रहती है कि काश हम भी सरकारी नौकरी पर होते, तो वेतन मिल जाता और बेरोजगार तो नहीं होते। अब आपको सच्चाई बताते हैं, उत्तराखंड में सरकारी सहायता प्राप्त महाविद्यालयों में भी वेतन के लाले पड़े हुए हैं।
उत्तराखंड में सहायता प्राप्त 18 महाविद्यालयों के कार्मिकों को मार्च महीने से वेतन से भुगतान नहीं हो रहा है। इससे इनके परिवारों में आर्थिक संकट खड़ा हो गया है। जब सारे राज्य में कोरोना महामारी अपने चरम पर है और लगभग प्रत्येक घर मे कोई न कोई इस बीमारी से पीड़ित है, ऐसे समय में इन महाविद्यालयों के कार्मिकों को वेतन का भुगतान न होना समझ से परे है।
अधिनियम में व्यवस्था
उत्तर प्रदेश राज्य विश्वविद्यालय अधिनियम 1973, जो इसी रूप में उत्तराखंड में 2005 में पारित किया गया था, की धारा 60 E में यह व्यवस्था की गई थी कि अशासकीय महाविद्यालयों के शिक्षकों तथा शिक्षणेत्तर कर्मचारियों के वेतन के भुगतान राज्य सरकार की ओर से किया जाएगा। इसी के अनुरूप राज्य सरकार से निर्धारित शिक्षण शुल्क 12 रुपये प्रति माह पर ग्रेजुएट 15 रुपये प्रति माह पर पोस्ट ग्रेजुएट की शिक्षा छात्र छात्राओं को सहायता प्राप्त अशासकीय महाविद्यालयों में दी जा रही है।
शुल्क की राशि जमा होती है राजकोष में
राज्य सरकार की ओर सेअनुदान इन अशासकीय महाविद्यालयों को समतुल्य अनुदान के रूप में दिया जाता है। राज्य शासन के निर्देशानुसार इन महाविद्यालयों में शिक्षा ग्रहण करने वाले छात्र-छात्राओं से प्राप्त शिक्षण शुल्क का 80 फीसद कला तथा वाणिज्य संकाय के विद्यार्थियों का तथा 75 फीसद विज्ञान संकाय के विद्यार्थियों का राजकोष में जमा किया जाता है।
अंब्रेला एक्ट में नहीं है अनुदान का उल्लेख
इन महाविधायलयों में आर्थिक रूप से विपन्न तथा प्रतिभाशाली छात्र-छात्राओं के उच्च शिक्षा प्राप्त करके प्रदेश तथा देश के विकास में योगदान किया जा रहा है। ज्ञात हुआ है कि राज्य सरकार की ओर से बनाए गए अंब्रेला एक्ट में अशासकीय महाविद्यालयों के लिए राज्य सरकार की ओर से दिए जाने वाले अनुदान का स्पष्ट वर्णन नहीं किया गया है। जो न केवल पूर्व में लागू उत्तराखंड राज्य विश्वविद्यालय अधिनियम 2005 के विपरीत है, बल्कि राज्य पुनर्गठन अधिनियम 2000 में दी गई व्यवस्थाओं का भी उल्लंघन है। जिसमें यह व्यवस्था की गई थी कि प्रत्येक राज्य से आने वाली समस्त संस्थानों तथा उनके कर्मचारियों को प्राप्त वेतन एवं पेंशन आदि को इसी रूप में संरक्षित किया जाएगा। जैसा कि उन्हें राज्य बनने से पूर्व प्राप्त हो रहा था।
90 फीसद सीट राज्य के निवासियों के लिए
उत्तराखंड सरकार के आदेश अनुसार इन अशासकीय महाविद्यालयों में 90 फीसद सीटें उत्तराखंड के निवासियों हेतु आरक्षित की गई हैं। शासन के आरक्षण नियमों का अनुपालन करते हुए उच्च शिक्षा निदेशालय तथा उच्च शिक्षा विभाग की ओर से किए जा रहे शैक्षणिक मूल्यांकन के अंदर इन महाविद्यालयों की ओर से गुणवत्ता युक्त शिक्षा NAAC से उच्च ग्रेड प्राप्त करने के साथ किया जा रहा है। अशासकीय महाविद्यालय हेमवती नंदन बहुगुणा केंद्रीय विश्वविद्यालय श्रीनगर (गढ़वाल) से मात्र शैक्षणिक आवश्यकताओं यथा पाठ्यक्रम, परीक्षा आयोजन तथा डिग्री आदि के लिए ही संबद्ध हैं। तथा उससे क्षेत्र के छात्र छात्राओं को उच्च कोटि की शिक्षा तथा शोध का अवसर प्राप्त हो रहा है। अगर राज्य सरकार का विचार है कि प्रदेश के सहायता प्राप्त अशासकीय महाविद्यालयों को राज्य विश्वविद्यालय से संबद्ध होना चाहिए, तो वह श्रीदेव सुमन राज्य विश्वविद्यालय अधिनियम 2012 के परनियम 4 के अंतर्गत प्राप्त अधिकारों के आधार पर इन समस्त महाविद्यालयों को उस विश्वविद्यालय से संबद्ध होने का आदेश दे सकती है।
राज्य के कुल छात्रों का एक तिहाई अशासकीय महाविद्यालयों में
अट्ठारह अशासकीय महाविद्यालयों में उत्तराखंड राज्य के कुल पंजीकृत छात्र छात्राओं की संख्या का एक तिहाई शिक्षण ग्रहण कर रहे हैं। प्रति छात्र मात्र 9500 का खर्चा आता है, जबकि सरकारी कॉलेजों में प्रति छात्र खर्चा 15000 आता है। एक तरह से यह है निजीकरण करने की तरफ सरकार अग्रसर हो रही है और इसका सबसे बुरा असर छात्रों पर और उनके अभिभावकों पर पड़ेगा। 70 से भी ज्यादा वर्षों से यह सारे महाविद्यालय प्रदेश के सेवा में तत्पर है और केवल सरकार से नियमित सहायता मिलती है। जिससे योग्य शिक्षक शिक्षिकाओं को नियुक्त किया जाता है और वे सभी लोगों को अच्छी शिक्षा प्रदान करते हैं।
नियुक्ति का अधिकार प्रबंधन को
छात्रों का एक बहुत बड़ी संख्या इन कॉलेज में पढ़ती है और सभी लाभान्वित होते हैं। यह लड़ाई केवल शिक्षकों की नहीं है, बल्कि उत्तराखंड के छात्र और उनके अभिभावकों की भी है। सरकार को समझ मे नहीं आ रहा है कि वह क्या गलती करने के बारे में सोच रही है। क्योंकि इस अनुदान के ना देने का सबसे ज्यादा असर विद्यार्थियों पर पड़ेगा। जिनकी संख्या बहुत ज्यादा है। प्रदेश से विभाजन के समय पर नियुक्तियाँ आयोग के माध्यम से ही होती थीं, बाद में शासन की ओर से नियुक्तियाँ न कर पाने के कारण प्रबंध को यह अधिकार दिया गया।
सारी व्यवस्थाएं शासनादेश के अनुरूप
आगरा विश्व विद्यालय से मेरठ विश्व विद्यालय से गढ़वाल विश्व विद्यालय से केंद्रीय विश्वविद्यालय तक की सम्बद्धत ये शासकीय निर्णय /आदेश रहे हैं। शिक्षक, शिक्षणेत्तर कर्मचारियों और छात्रों की ओर से हमेशा इन आदेशों का पालन किया गया है। शिक्षकों एवं छात्रों के द्वारा हमेशा ही शासन के आदेशों का अक्षरशः पालन किया जाता है। उदाहरण के लिए छात्र संघ चुनाव शासन की ओर से आदेशित तिथियों पर ही होता है। शिक्षकों को केंद्रीय विश्वविद्यालय के शिक्षकों को प्राप्त भत्ते देय नहीं होते, क्योंकि शिक्षक राज्य सरकार के आदेशों के अधीन कार्य करते हैं। उपस्थिति, ड्रेस कोड आदि नियमों का पालन भी शासन के निर्देशों के अनुसार किया जाता है। जब सब कुछ शासन के आदेश के अनुसार ही होता है तब ऐसे इन महाविधायलयों का अनुदान रोकना बेहद ही अतार्किक है। इस प्रक्रिया को तुरंत रोकना चाहिये। अगर इसे न रोका गया तो आने वाले समय में यहाँ के छात्रों को अत्यंत कठिन समस्याओं का सामना करना पड़ेगा विशेषकर निर्धन व मेधावी छात्रों को।
केंद्रीय विश्वविद्यालय से असंबद्ध करने में आमादा सरकार
सरकार जाने या अनजाने में बहुत बड़ा जनविरोधी कदम उठाने की सोच रही है। आने वाले समय में लगभग 1 लाख छात्र प्रत्येक वर्ष इस निर्णय से सीधे सीधे प्रभावित होंगे। दूसरा सरकार एचएनबी गढ़वाल केंद्रीय विश्वविद्यालय से सभी को असम्बद्ध करने में आमादा है, पर उसने कभी सोचा है कि उत्तराखंड के पहाड़ के बच्चे पहाड़ में ही रहकर एक केंद्रीय विश्वविद्यालय की डिग्री हासिल कर रहे है। जो उनको पूरे भारतवर्ष में सम्मान दिला रही है। क्या हमने उत्तराखंड में केंद्रीय विश्वविद्यालय की परिकल्पना इसलिये की थी कि यहाँ का बच्चा इस विश्वविद्यालय से डिग्री प्राप्त न कर सकें।
पहली सरकार ने की गलती, दूसरी ने भी दोहराया
एक गलती पुरवर्ती सरकार ने राज्य के प्रतिष्ठित गढ़वाल विश्वविद्यालय को केंद्रीय विश्वविद्यालय बनाकर की, जबकि वो केंद्रीय विश्वविद्यालय को जमीन देकर कहीं ओर बना सकती थी। अब वर्तमान सरकार इस केंद्रीय विश्वविद्यालय से अपने बच्चों को दूर रखने की कोशिश कर रहीं है। इसको बाद में इतिहास में याद किया जाएगा।
उत्तराखंड के छात्रों को केंद्रीय विश्वविद्यालय की डिग्री मिलती रहे। इसके लिये वरिष्ठ राज्य आंदोलनकारी एवं आप पार्टी के वरिष्ठ नेता रविन्द्र जुगरान ने उत्तराखंड हाई कोर्ट में एक जनहित याचिका डाली है, जिस पर अंतिम फैसला मई के अंत में आने की संभावना है।
Bhanu Bangwal
लोकसाक्ष्य पोर्टल पाठकों के सहयोग से चलाया जा रहा है। इसमें लेख, रचनाएं आमंत्रित हैं। शर्त है कि आपकी भेजी सामग्री पहले किसी सोशल मीडिया में न लगी हो। आप विज्ञापन व अन्य आर्थिक सहयोग भी कर सकते हैं।
वाट्सएप नंबर-9412055165
मेल आईडी-bhanubangwal@gmail.com
भानु बंगवाल, देहरादून, उत्तराखंड।
Very factual article on teachers of grant in aid colleges. Why govt is insisting on swich affiliation is not convincing. Unsynchronised Double engine at work.