प्रकृति के साथ छेड़छाड़ के बावजूद नैसर्गिक सुंदरता का द्योतक है सहस्त्रधारा
प्रकृति के साथ दिन-प्रतिदिन की छेड़छाड़ सामाजिक मूल्यों का अवसान। इतना सब कुछ होने के उपरान्त भी देहरादून नैसर्गिक सुन्दरता का द्योतक बन आज भी पर्यटकों को आमन्त्रित कर रहा है। वास्तव में देहरादून की शोभा अवर्णनीय है। गगन स्पर्शी मूसरी पहाड़ी के चरण प्रदेश की आरती उतारती हुई बहुत सुहावनी मालूम पड़ती है।
देहरादून भले ही स्वयं पर्वत श्रृंखला के चरण प्रदेश में व्यवस्थित है। साथ ही इसकी तलहटी में स्थित है एक ऐसी धाराओं का समूह-सहस्त्रधारा। जो सदियों से अनवरत बहता चला आ रहा है।
सुबह से शाम तक इस तरह होता है शोभायमान
सहस्त्रधारा में प्रभातकाल में भगवान भुवन भास्कर अपने लाल कंचन वर्ण की प्रथम किरण में सारी सुकुमारता एकत्रित करके जब ऊषा सुन्दरी के मुखारबिन्दु के आंचल को स्पर्श करते हैं, उस समय हरितिममा की किरिटधारी मसूरी का उत्तुंग मस्तक उन्हें प्रत्यक्ष ही प्रणाम करता हुआ प्रतीत होता है। दोपहर में जब छाया और धूप परस्पर आंख-मिचौनी खेला करते हैं, सहस्त्रधारा के आस-पास स्थित गांवों में चरने वाली दुग्ध धवल गायें पर्यटक के चक्षुओं को प्रतिपल अपनी ओर आकर्षित किया करती हैं।
यहां है सरहस्त्रधारा
सहस्त्रधारा, देहरादून और उसके उप नगर रायपुर के मध्यकोण में 13 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। आस-पास विशालकाय पहाड़ों की पहरेदारी में गुफाओं की वीणा से सहस्त्रों जलतारों पर छिड़ा झर-झर संगीत सहस्त्रधारा के नाम को सार्थक बनाया करता है। गुफा द्वार के समीप आचार्य द्रोण का दिव्य मन्दिर मौन मुग्ध होकर निर्झर की राग-रागिनियों में डूबा रहता है तथा पाषण खण्डों से खेलते रहते जल प्रवाह में पर्यटक अपने-अपने स्तर पर जल केलि का रस लिया करते हैं।
स्कंद पुराण में भी है वर्णन
दो पहाड़ियों के मध्य घिरा यह स्थल अपनी गोद में एक छोटी सी प्राचीन देवजन्या नदी को भी समेटे है। देवजन्या नदी की छोटी सी धारा इठलाती हुई बहती है। स्कन्दपुराण के अनुसार महामुनि अग्निवेश द्वापर में वृहथनगर (देहरादून) में नालापानी तथा सहस्त्रधारा की प्राचीन देवजन्या अथवा वाल्दी नदी के निकट कुटिया बनाकर रहते थे। इसी की जलधारा में स्थान कर भगवद् भजन किया करते थे। पुराणों में देवजन्या में स्नान का महत्व अश्वमेघ यज्ञ के फल की प्राप्ति के बराबर आंका गया है।
नेहरू की प्रिय थी यह स्थली, मृत्यु से एक दिन पूर्व नहीं छोड़ पाए थे यहां से मोह
आज के परिवेश में सहस्त्रधारा का महत्व इसलिए भी अधिक है, क्योंकि यह स्थली पूर्व प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू जी को बहुत प्रिय थी। वे यहां डूबते सरूज की लाली में सरोबार सहस्त्रधारा के झरनों और पहाड़ों पर उदे-उदे बादल को घण्टों निहारते थे। यहां की माटी के कण-कण से उन्हें अक्षुण्ण लगाव था और शायद नियति का अपना ये ढंग था कि मृत्यु से एक दिन पूर्व भी नेहरू जी अपने इस स्थान का मोह न छोड़ पाये।
सौ साल पुराना है इतिहास, बेचा जाता था गंधक का जल
पर्यटकों की इस प्रिय स्थली सहस्त्रधारा के प्रचार का इतिहास लगभग सौ वर्ष पुराना है। सन् 1904 में लेसन नाम के एक ब्रिटिश व्यापारी ने सहस्त्रधारावर्ती गन्धक स्त्रोत को देहरादून जिले में नागल ग्राम के निवासी कन्हैयालाल से पांच हजार रूपये में खरीद कर उसके जल का व्यवसाय आरम्भ किया। उस समय गन्धक के पानी की एक बोतल को मिनरलवाटर’ के रूप में एक आने में बेचा जाता था। 1930 में मसूरी के एक प्रसिद्ध डाक्टर बूचर ने सहस्त्रधारा के गंधक जल को पौष्टिक पेय के रूप में बेचने के लिए एक कम्पनी का निर्माण किया और उसके प्रचार के लिए एक पुस्तक भी प्रकाशित की। डाक्टर बूचर ने अपनी पुस्तक में पेट दर्द के पुराने रोग को समाप्त करने शरीर में स्फूर्ति लाने’, चर्मरोग और रक्त दोषों को मिटाने तथा फेफड़ों आदि के रोग निर्मूलन के लिए सहस्त्रधारा के गन्धक जल को अचूक दवा बताया है। स्वतन्त्रता प्राप्ति के पश्चात् यह क्षेत्र चाम्बासारी पंचायत के अधिक्षेत्र में आ गया। धीरे-धीरे पर्यटक स्थल के रूप में विकसित होता गया।
मोटर मार्ग बनने से बढ़ने लगे पर्यटक
1956-57 में आरके सूरी एण्ड सन्स नामक लाइम स्टोन की एक कम्पनी ने सहस्त्रधारा से लेकर चाम्बासारी तक व्यवसायिक उद्देश्य से मोटर मार्ग निर्माण किया, जिससे आने जाने वाले लोगों को पर्याप्त सुविधा हो गई। अपेक्षित विकास न होने पर भी केवल इसकी रमणीयता से आकर्षित होकर प्रतिवर्ष लाखों पर्यटक यहां भ्रमण करने आते हैं। ग्रीष्म ऋतु में जब पर्यटक व स्थानीय नागरिक वातावरण की उष्णता से बेचैन हो सहस्त्रधारा की ओर आसक्त होते हैं तो प्रतिदिन करीब बीस से अधिक की संख्या यहां पहुंचने लगती है।
भीड़ बढ़ने से जल का प्राकृतिक तापमान भी गड़बड़ाया
स्थिति यह हो जाती है कि यहां भीड़ बढ़ने से बहते जल का प्राकृतिक तापमान भी अपनी वास्तविकता खो बैठता है। राज्य सरकार व प्रशासन का सहस्त्रधारा की प्रमुखता व प्राचीनता से परिचय न होने के कारण शायद मानव की निर्माणकारी प्रवृत्तियों का वर्तमान, अर्वाचीन
विचारधारा में उपहास की वस्तु माना जाना है।
लेखक का परिचय
लेखक देवकी नंदन पांडे जाने माने इतिहासकार हैं। वह देहरादून में टैगोर कालोनी में रहते हैं। उनकी इतिहास से संबंधित जानकारी की करीब 17 किताबें प्रकाशित हो चुकी हैं। मूल रूप से कुमाऊं के निवासी पांडे लंबे समय से देहरादून में रह रहे हैं।
लोकसाक्ष्य पोर्टल पाठकों के सहयोग से चलाया जा रहा है। इसमें लेख, रचनाएं आमंत्रित हैं। शर्त है कि आपकी भेजी सामग्री पहले किसी सोशल मीडिया में न लगी हो। आप विज्ञापन व अन्य आर्थिक सहयोग भी कर सकते हैं।
वाट्सएप नंबर-9412055165
मेल आईडी-bhanubangwal@gmail.com
भानु बंगवाल, देहरादून, उत्तराखंड।