डॉ. मुनि राम सकलानी मुनींद्र की कविता संग्रह-‘अनुभूति के स्वर’ की समीक्षा, समीक्षक-सोमवारी लाल सकलानी
सुप्रसिद्ध साहित्यकार एवं भाषा वैज्ञानिक डॉ. मुनि राम सकलानी मुनींद्र की ओर से रचित कविता संग्रह ‘अनुभूति के स्वर’ का रसास्वादन किया। यूं तो डॉक्टर साहब की पुस्तक काफी समय पहले उपलब्ध हो गई थी, लेकिन समय अभाव के कारण पुस्तक की समालोचना नहीं कर पाया। यह भी एक साहित्यिक धर्म है।
किसी विद्वान व्यक्ति की पुस्तकों पढ़ना जितना सुखद है, मेरे लिए उसे भी अधिक सुखद उसकी समालोचना करना भी है। कवि का ज्ञान, भाव, भाषा और व्यक्तित्व उसकी कृति में झलकता है। डॉक्टर सकलानी की अनेक पुस्तके मैंने पढ़ी हैं और अपनी बुद्धि के अनुसार उनकी समीक्षा भी की है। वे अनेक लब्ध प्रतिष्ठित पत्रिकाओं में स्थान पा चुकी हैं। “अनुभूति के स्वर” कविता संग्रह डॉक्टर सकलानी की स्वरचित चौसठ कविताओं का संकलन है। जो कि पाठको के लिए उपयोगी है।
संपूर्ण संग्रह में कवि की जीवंत अनुभूतियों का समावेश है। कवि ने संसार को जिस रूप में महसूस किया, उन्हें अपने शब्दों में भावनात्मक रूप से प्रस्तुत किया है। अनेकों भाव और विचार कविताओं में परिलक्षित होते हैं। कहीं-कहीं पर कुछ भटकाव भी प्रतीत होता है, क्योंकि डॉ. सकलानी समग्र साहित्य के विद्वान हैं और पद्य विधा से अधिक उनका गद्य विधा पर अधिकार है।
देश, प्रदेश, विदेश, भौगोलिक स्थिति, तीर्थ स्थान आदि के अलावा आपकी यह कविताएं लोक समाज और लोकजीवन के साथ-साथ लोकतंत्र को भी प्रस्तुत करती हैं। कवि ने जैसा समझा और अनुभव किया उसकी अनुभूति भावनात्मक रूप से पुस्तक के सांचे में ढालकर प्रस्तुत कर दी।
” जिंदगी की लंबी तन्हाइयों में जब /दुखी हो जाता कभी मन /तो बहुत ही अच्छा लगता है सुनकर/ ऋषि मुनियों के प्रवचन /सुंदर लगते हैं रीति नीति के दोहे/ सत्यम शिवम सुंदरम भाव में खोए।
बस ! यही है कवि के “अनुभूति के स्वरों का सार” एक विद्वान व्यक्ति कभी अपनी विद्वता को नहीं परख सकता है। वह सदैव विद्वानों के राह देखता है। उनका सानिध्य पाना चाहता है। अपनी ज्ञान पिपासा और मन की शांति के लिए कभी धर्म ग्रंथों की ओर मुड़ता है, तो कभी विद्वान व्यक्तियों के विचारों की ओर उन्मुख होता है। कभी काव्य धारा में निमग्न होता है, तो कभी पुरातन में लौट जाना चाहता है।
उसकी प्रवृत्ति और निवृत्ति का द्वंद सदैव उसे अपने धर्म, कर्म लोक समाज, लोक संस्कृति और लोक जीवन की ओर ले जाने का कार्य करता है। सब कुछ होने पर भी वह खालीपन महसूस करता है और लौट जाना चाहता है अपने अतीत में। अपने पूर्वजों की थाती में। अपने बचपन में। और अपने पुराने नीड़ में। अपने अस्तित्व की तलाश में। “एक बिजली का खंबा हूं मैं खड़ा हूं /एक मकान के सहारे /लगाए हूं अपनत्व की आस/ अनवरत उजड़ते घरों के/ निर्मम छोड़ दिया है मुझे अकेले /जैसे मेरा कोई अस्तित्व ही नहीं/ अस्तित्व है उन मोटे तारों का /जो मेरे बल पर टिके हैं/ इस जीवन पर खड़ा हूं मैं /अपने अस्तित्व के लिए /अस्तित्व की तलाश में/ मैं व्यथित हूं”।
कवि की यह व्यथा सार्वभौमिक है। सर्वव्यापी है। कवि की भावना उच्चस्थ रूप धारण कर एक स्वप्निल लोक में नहीं ले जाती है, बल्कि मनुष्य को उसके अस्तित्व का बोध कराती है। डॉ. मुनि राम सकलानी जी एक साहित्यकार ही नहीं, बल्कि अकादमी विद्वान भी हैं। वह एक भाषा शास्त्री भी हैं, लेकिन उनके साहित्य में कहीं भी पांडित्य प्रदर्शन नहीं झलकता है। सरल, सटीक, बोधगम्य और भावनात्मक कल्पना ही स्पष्ट दिखाई देती हैं ।
यथा—-” चिड़िया का संसार /मेरे छोटे से आंगन के बाहर/ बैठे हुए एक नन्ही चिड़िया/ कर रही है बहुत कलरव / वह बतियाना चाहती है मुझसे/ वह बेचारी कर रही है संघर्ष/ एक सूखे बीज की प्राप्ति के लिए /तभी कांव-कांव करता एक कौवा/ झपट्टा मारता दाने के लिए /भूख की अतिरंजना के संघर्ष में सफल/छू लेना चाहती है अपनी मंजिल।
डॉ. मुनि राम सकलानी की कविताओं में विचारात्मक पुट अधिक दिखाई देता है। भाषाविद होने के कारण कविताओं में बोधगम्यता अधिक है। भावनात्मकता है लेकिन संवेगात्मक ताकि कमी लगती है। कवि रहस्यवाद और छायावाद से दूर है। सटीक सांसारिक अनुभूतियों को उजागर किया है। फिर भी उद्द्दात भावों का समावेश है। जिसके कारण बार-बार कविताओं को पढ़ने को मन करता है।
जैसे_”पहाड़ की संघर्षशील नारी/ प्राकृतिक विपदा की मारी/ घास के भारी बोझ के नीचे/ दब गई है बेचारी। पर्वत नारी की संघर्षपूर्ण जीवन की व्यथा कवि ने मार्मिक ढंग से अभिव्यक्त किया है और भावनाओं को समझा और स्वीकारा है।
डॉक्टर सकलानी राजभाषा विभाग के निदेशक, सचिव पीतांबर दत्त बड़थ्वाल हिंदी अकादमी आदि महत्वपूर्ण पदों पर कार्यरत रहे हैं। उत्तरदायित्व पूर्ण कार्य राजकीय सेवाओं में होने के कारण उनका मौलिक चिंतन पाश्र्व में चला गया। सेवारत होते हुए व्यक्ति की मौलिकता प्रभावित होती है।
यह मेरा भी अनुभव है, लेकिन सेवानिवृत्ति के बाद उनका मौलिक साहित्य पूर्वक लाइन पकड़ता जा रहा है। जैसे-कवि की अनुभूति के स्वरों के अनुसार,” एक कैलेंडर की तरह पढ़ा जाता है। अक्सर मुझे/ अगला महीना आने पर जैसा मेरा कोई अस्तित्व नहीं/ कैलेंडर बोलता नहीं फिर भी बता देता है हमारा कर्म/ अगली तिथि से पहले समय से पहले ढल जाने का मार्ग।
डॉक्टर साहब ने अपनी कविताओं में हर एक संदर्भ को विषय बनाया है। प्रत्येक विषय पर एक एक पुस्तक लिखी जा सकती है। मुक्तक रचनाएं होने के कारण इन समस्त कविताओं की समीक्षा करना कठिन कार्य है। क्योंकि समीक्षाएं महाकाव्य और खंडकाव्य की अच्छी प्रकार से की जा सकती हैं। डॉक्टर सकलानी का साहित्य विशद, सूक्ष्म से स्थूल की ओर ले जाने वाला है। ऐसा कोई समसामयिक विषय नहीं है, जो उन्होंने इन चौसठ कविताओं में भावाभिव्यक्त न किया हो। प्रत्येक कविता एक नया पहलू उजागर करती है। नई दिशा देती है और नवजागरण का भाव उत्पन्न करती है।
जैसे -” शब्द ब्रह्म का है साकार स्वरूप /शब्द ही है जीवन का आधार /शब्द ही देते हैं जीवन को एक आकार/ शब्द ही करते हैं जीवन का पूर्ण श्रृंगार/ शब्द करते हमारी संवेदनाओं का विस्तार /शब्द हैं हमारे लिए प्रभु का वरदान”।
इस प्रकार डॉक्टर मुनि राम सकलानी जी की कविताएं जीवन के लिए एक सीख प्रदान करती हैं । बहुत ही सरल, सहज और लचीले अंदाज में उन्होंने अपनी कविताओं को प्रस्तुत किया है ।
कविता का आमुख अत्यंत सुंदर ढंग से डॉ सुधा पांडे, पूर्व कुलपति हेमवती नंदन बहुगुणा गढ़वाल विश्वविद्यालय के की ओर से लिखा गया है, जो कि अनूठा है। पुस्तक के बारे में सार संक्षेप में डॉक्टर मुनेंद्र सकलानी ने अपनी बात- अनुभूति के स्वरों में ‘लोकमंगल के पथ पर ‘ शीर्षक के द्वारा प्रस्तुत की है जो कि एक बेजोड़ नमूना है। “अनुभूति का स्वर ” कविता संग्रह लोक जीवन के लिए उपयोगी बने। इन्हीं शब्दों के साथ मूर्धन्य साहित्यकार डॉ मुनि राम सकलानी, मुनीद्र जी को प्रणाम । “अनुभूति के स्वर ” कविता संग्रह के सफलता की शुभकामनाएं।
पुस्तक के लेखक का परिचय
डॉ. मुनिराम सकलानी, मुनींद्र। पूर्व निदेशक राजभाषा विभाग (आयकर)। पूर्व सचिव डा. पीताम्बर दत्त बड़थ्वाल हिंदी अकादमी,उत्तराखंड। अध्यक्ष उत्तराखंड शोध संस्थान। लेखक, पत्रकार,कवि एवम भाषाविद। निवास : किशननगर, देहरादून, उत्तराखंड।
समीक्षक का परिचय
सोमवारी लाल सकलानी, निशांत।
सुमन कॉलोनी, चंबा, टिहरी गढ़वाल, उत्तराखंड।
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भानु बंगवाल, देहरादून, उत्तराखंड।