ब्राइटलैंड्स स्कूल के निदेशक रवि नारंग के अंतिम दर्शन को उमड़े वर्तमान और पूर्व छात्र, पढ़िए उनकी जीवन संघर्ष यात्रा

उत्तराखंड की राजधानी देहरादून के जानेमाने शिक्षाविद एवं ब्राइटलैंड्स स्कूल के निदेशक रवि नारंग का सोमवार को देहरादून स्थित आवास में निधन हो गया। ब्राइटलैंड्स स्कूल ने शिक्षा के क्षेत्र में एक मुकाम हासिल किया है। जो संस्थापक रवि नारंग की मेहनत का नतीजा था। आइसीएससी, आइएससी बोर्ड के टॉपरों में इस स्कूल के छात्रों की लंबी लिस्ट रहती है।
रवि नारंग काफी समय से अस्वस्थ चल रहे थे। कल दोपहर 28 दिसंबर को 12 बजे उनका निधन हुआ। आज उनका पार्थिव शरीर डालनवाला स्थित उनके आवास पर रखा गया। निधन की सूचना पर ब्राइटलैंड्स स्कूल के वर्तमान और पुराने छात्र बड़ी संख्या में स्कूल स्थित उनके आवास पर पहुंचे। कोरोना गाडलाइन का पालन करते हुए दूरी बनाकर इन वर्तमान और पुराने छात्रों ने ने अपने गुरु के अंतिम दर्शन किए।
देहरादून के कर्जन रोड डालनवाला में 1958 में प्राइमरी स्कूल से शुरू हुआ ब्राइटलैंड्स स्कूल देहरादून में जाना माना स्कूल है। इसकी स्थापना रवि नारंग की मां ने की थी। जब रवि नारंग ने इस स्कूल की बागडोर संभाली तो स्कूल का नाम प्रसिद्ध होने लगा। यहां सेना के अधिकारी, नौकरशाह के बच्चों के साथ ही मीडिल क्लास के लोगों के बच्चे पढ़ते हैं। कारण ये ही है कि इस स्कूल में फीस भी ज्यादा नहीं थी। साथ ही स्कूल का परिणाम अन्य स्कूलों की अपेक्षा हमेशा बेहतर रहा है। स्कूल के संस्थापक रवि नारंग पिछले काफी समय से अस्वस्थ थे।
बताया जा रहा है कि वे असाध्य रोग से पीड़ित थे। पिछले करीब 15 साल से उन्होंने खुद को सामाजिक जीवन से भी अलग कर लिया था। वह अविवाहित थे। 28 दिसंबर की दोपहर करीब 12 बजे उन्होंने अंतिम सांस ली। बताया जा रहा है कि उनकी एक बहन अमेरिका में है। उनके आने पर बुधवार को उनका अंतिम संस्कार किया जाएगा।
अनुशासन और शिक्षा के प्रति समर्पण ब्राइटलैंड्स स्कूल के निदेशक रवि नारंग की पहचान थी। न सिर्फ स्कूल परिसर, बल्कि बाहर भी नारंग का अलग रुतबा रहा है। यह उनका जज्बा ही था, जिसने ब्राइटलैंड्स को शिक्षा जगत में एक ब्रांड के तौर पर स्थापित किया। यही कारण है कि आज बड़ी तादाद में अभिभावक अपने बच्चे का दाखिला इस स्कूल में कराने की ख्वाहिश रखते हैं। नारंग का जाना न केवल उनके परिवार और स्कूल बल्कि ब्राइटलैंड्स में पढ़ने वाले हर छात्र-छात्रा और दून के शिक्षा जगत के लिए बड़ी क्षति है।
नारंग स्कूल के ध्येय वाक्य ‘नॉलेज इज स्ट्रेन्थ’ को हकीकत में बदलना जानते थे। यही कारण है कि स्कूल ने साल दर साल आइएससी व आइसीएसई परीक्षा में न केवल राज्य बल्कि देश की मेरिट लिस्ट में भी स्थान हासिल किया। यह नारंग की ही मेहनत का नतीजा था कि स्कूल इस स्तर तक पहुंच सका। आज के समय में भी अभिभावक इस स्कूल में अपने बच्चों का दाखिला करवाने के लिए इंतजार को भी राजी रहते हैं।
देवकी नंदन पांडे की कलम से रवि नारंग के बारे में
इतिहासकार, साहित्यकार एवं देहरादून निवासी देवकी नंदन पांडे लिखते हैं कि-रवि नारंग का अनायास हमें छोड़ कर चले जाना शिक्षा जगत की एक अपूर्णीय क्षति है। असामान्य मेधा के साथ स्नेहयुक्त एक संवेदनशील अत:करण, सवस्व कल्याण का साधुस्त वृत्ति, व्यसन मुक्त सात्विक गुण सम्पदा, निष्काम कर्म साधना सरल, पारदर्शी व्यवहार यही था उनका जीवन। जिसे लेकर वह एक उच्च शिक्षित, सम्पन्न, उच्च पदों पर, प्रतिष्ठित प्रभावशाली कुल में जन्मे। अपनी असामान्य मेधा के बल पर इन्होंने शिक्षा क्षेत्र में कीर्तिमान स्थापित किए।
जीवन की विकास यात्रा
रवि नारंग की जीवन विकास यात्रा भिन्न थी। युवावस्था में सजग, विकसित मेधा शक्ति लेकर सन 1975 में पिलानी से मैकनिकल इन्जीनियरिंग में स्नातक की उपाधि ग्रहण की। तदुपरान्त सन् 1977 में फैकल्टी ऑफ मैनेजमेंट स्टडीज नयी दिल्ली से एमबीए तथा सन् 1978 में हार्वर्ड विश्वविद्यालय अमेरिका से एडवान्स मैनेजमेंट प्रोग्राम में डिप्लोमा प्राप्त किया।
शिक्षा के प्रति विशष अनुराग रखने वाल रवि नारंग सन ने 1982 में पुन: गढ़वाल विश्वविद्यालय में प्रवेश लेकर विधि स्नातक की उपाधि प्राप्त की। शिक्षा उपरान्त किसी अन्य व्यवसाय का अंगीकृत न कर पूज्यनीय माता श्रीमती लजिया नारंग द्वारा स्थापित ब्राइटलैंड्स स्कूल की बागडोर थामी तथा निदेशक पद का दायित्व ग्रहण किया।
श्रीमती नारंग द्वारा स्थापित ब्राइटलैण्ड स्कल का जो बीज सन 1958 में अंकुरित हुआ था, वह यदि आज बट वृक्ष बना है तो केवल इसलिए क्योंकि रवि नारंग खाद-पानी की तरह इसकी जड़ों को सींचते रहते थे। इनके परिश्रम एवं साधना के कारण ब्राइटलैंड स्कूल में तारूण्य और नित नूतन सुगन्ध से परिपूर्ण पुष्प पुष्पित होते रवि नारंग, अपने पुरूषार्थ के बल पर प्रसिद्धि पाने वाले सर्वोत्तम पुरूषों को श्रेणी में आते थे।
वह पद-प्रतिष्ठा प्राप्त उन शिक्षाविदों में से थे, जिन्होंने अपने सहज गुण सम्पन्न व्यक्तित्व पर पद-प्रतिष्ठा और उपलब्धियों को कभी हावी नहीं होने दिया। इन्हीं पुनीत विचारों के कारण लोक जीवन से तादात्म्य स्थापित कर बह शिक्षा जगत की आशा एवं विजय के प्रतीक बन गये थे।
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भानु बंगवाल, देहरादून, उत्तराखंड।