Loksaakshya Social

Social menu is not set. You need to create menu and assign it to Social Menu on Menu Settings.

Social menu is not set. You need to create menu and assign it to Social Menu on Menu Settings.

July 22, 2025

भारत से जहाज में बैठकर पहुंचे केन्या, अब दस लाख को मारने का लक्ष्य, ये था मारने के निर्णय का कारण

ये खबर कुछ अटपटी है। जहाज से किसी दूसरे देश की यात्रा करते हैं और अपने परिवार को तेजी से बढ़ाते हैं। उनकी भूमिका तो गंदगी साफ करने की थी, लेकिन उनके काम को उस देश से पसंद नहीं किया। नतीजा से निकला कि उन्हें मारने का फरमान जारी हो गया। जब फरमार जारी हुआ तो उनकी संख्या दो चार से बढ़कर लाखों में पहुंच गई। ये अजब गजब कहानी भले ही पुरानी हो, लेकिन हम आपको इसलिए पढ़ा रहे हैं कि हर जगह वही होता है। क्या होता है, इसे हम एक गाने की लाइन से परिभाषित कर देते हैं। ये लाइन है कि मतलब निकल गया तो पहचानते नहीं। (खबर जारी, अगले पैरे में देखिए)

सवाल उठाती है खबर
एक साल पुरानी खबर है, लेकिन ये भी सच है कि ऐसी खबरों को हर एक को पढ़ना जरूरी है। पर्यावरण प्रेमी, पक्षी प्रेमियों के लिए भी ये खबर सवाल उठाती है। सवाल ये है कि क्या कुछ पक्षियों की प्रजातियों को बचाने के लिए ऐसा कदम उठाना सही है कि दूसरे पक्षियों की हत्या कर दी जाए। ये तो एक संतुलन है कि एक पक्षी या जानवर दूसरे को मार खाएगा। फिर भारत के कौव्वों को लेकर केन्या ने ऐसा कदम उठाया कि जो आज की तारीख में भी चल रहा है। करीब दस लाख कव्वों को मारने का लक्ष्य वहां की सरकार ने पिछले साल रखा था। इस पर निरंतर काम हो रहा है। हालांकि, हमें नहीं पता कि ये भारतीय कौव्वे आज तक कितनी संख्या में मारे गए हैं। (खबर जारी, अगले पैरे में देखिए)

ये की थी घोषणा
एक साल पहले केन्या की सरकार ने भारतीय मूल के कौवों को बड़े पैमाने पर खत्म करने की घोषणा की थी। सरकार ने 2024 के आखिर तक दस लाख कौवों को मारने की मारने की कार्य योजना की घोषणा की थी। तब केन्या सरकार के वन्यजीव विभाग का कहना था कि कौवा उनके प्राथमिक पारिस्थितिकी तंत्र का हिस्सा नहीं हैं। केन्या वन्यजीव सेवा ने इंडियन हाउस कौवे (कोरवस स्प्लेंडेंस) को आक्रामक विदेशी पक्षी कहा है, जो दशकों से जनता के लिए परेशानी का सबब बने हुए हैं और स्थानीय पक्षियों की आबादी को काफी प्रभावित कर रहे हैं और सरकार समस्या के समाधान के लिए प्रतिबद्ध है। (खबर जारी, अगले पैरे में देखिए)

ये दिया गया  था तर्क
तब केन्या के वन्यजीव प्राधिकरण का कहना था कि पक्षी पूर्वी अफ्रीका के मूल निवासी नहीं हैं, लेकिन कुछ सालों में तटीय शहरों मोम्बासा, मालिंदी, वाटमू और किलिफी में उनकी आबादी में बहुत तेज वृद्धि हुई है। इनकी आबाजी से पैदा हो रही समस्याओं को देखते हुए प्राधिकरण ने 2024 के अंत तक दस लाख घरेलू कौवों को खत्म करने का लक्ष्य रखा है। कौवों को खत्म करने के इस कार्यक्रम की घोषणा एक बैठक में की गई थी। इसमें होटल उद्योग के प्रतिनिधियों और घरेलू कौवा नियंत्रण में विशेषज्ञता वाले पशु चिकित्सकों सहित हितधारकों को एक साथ लाया गया। (खबर जारी, अगले पैरे में देखिए)

होटल बिजनेस के लिए भी बन रहे मुसीबत
केन्या के वन्यजीव प्राधिकरण की ओर से कहा गया था कि कौवे तटीय शहरों के होटल उद्योग के लिए भी बड़ी असुविधा पैदा करते हैं। कौवों की वजह से पर्यटक खुले में बैठकर अपने भोजन का आनंद नहीं ले पाते हैं। ऐसे में होटल व्यवसायी भी इनसे तंग हैं और छुटकारे की अपील कर रहे हैं। केन्या वन्यजीव सेवा (केडब्ल्यूएस) ने कहा है कि कौवे को खत्म करने का कार्यक्रम सार्वजनिक हित को देखते हुए बनाया गया है। (खबर जारी, अगले पैरे में देखिए)

किसानों का भी था आक्रोश
केडब्ल्यूएस ने समस्याग्रस्त जानवर, कीट या विदेशी आक्रामक प्रजाति को नियंत्रित करने के लिए कानूनी उपायों के अंतर्गत आने वाले अभियान का बचाव किया। केडब्ल्यूएस महानिदेशक का प्रतिनिधित्व करने वाले वन्यजीव और सामुदायिक सेवा के निदेशक चार्ल्स मुस्योकी ने कहा कि केन्याई तट क्षेत्र में होटल व्यवसायियों और किसानों के सार्वजनिक आक्रोश के चलते सरकार को ये कदम उठाने पड़े हैं। (खबर जारी, अगले पैरे में देखिए)

 

पर्यावरण के लिए भी बन रहे हैं संकट
केडब्ल्यूएस के अनुसार, आक्रामकता को देखते हुए भारतीय घरेलू कौवे एक खतरा बन गए हैं। ये लुप्तप्राय स्थानीय पक्षी प्रजातियों का शिकार कर रहे हैं। रोचा केन्या के संरक्षणवादी और पक्षी विशेषज्ञ कॉलिन जैक्सन के अनुसार, भारतीय प्रजातियों ने केन्याई तट पर छोटे देशी पक्षियों के घोंसलों को नष्ट करके और उनके अंडों और चूजों का शिकार करके उनकी आबादी में काफी कमी कर दी है। देशी पक्षियों की आबादी कम होने से पर्यावरण खराब हो रहा है। (खबर जारी, अगले पैरे में देखिए)

पारिस्थितिकी तंत्र को कर रहे प्रभावित
कौवों का प्रभाव केवल उन प्रजातियों तक ही सीमित नहीं है, जिन्हें वे सीधे निशाना बनाते हैं, बल्कि पूरे पारिस्थितिकी तंत्र को प्रभावित करते हैं।
भारतीय कौवे को ग्रे-नेक्ड कौवा, सीलोन कौवा और कोलंबो कौवा जैसे नामों से भी जाना जाता है। इनकी उत्पत्ति भारत और एशिया में हुई, लेकिन शिपिंग गतिविधियों की सहायता से यह दुनिया के कई हिस्सों में फैल गया है। केन्या में ऐसा माना जाता है कि वे 1940 के दशक के आसपास पूर्वी अफ्रीका में आये और ना केवल केन्या में बल्कि पूरे उष्णकटिबंधीय क्षेत्र में अपनी उपस्थिति मजबूत कर ली। पहले ये माना गया कि ये कौवे गंदगी को साफ करेंगे, लेकिन ये तो केन्या में ऐसे पक्षियों को भी मारने लगे, जिनका दीदार करने के लिए पर्याटक आते थे।  (खबर जारी, अगले पैरे में देखिए)

ऐसा है मानना
ऐसा माना जाता है कि इन कौव्वों को 1890 के दशक के आसपास पूर्वी अफ्रीका में जानबूझकर लाया गया था। ताकि ज़ांज़ीबार द्वीपसमूह, जो उस समय ब्रिटिश संरक्षित क्षेत्र था। इसमें बढ़ती अपशिष्ट समस्या से निपटा जा सके। वहाँ से ये मुख्य भूमि और तट से होते हुए केन्या तक फैल गए। इन्हें पहली बार 1947 में मोम्बासा बंदरगाह पर देखा गया था और तब से इनकी संख्या में भारी वृद्धि हुई है। जिसका श्रेय बढ़ती मानव आबादी और साथ में जमा कूड़े के ढेर को जाता है, जो इन पक्षियों को भोजन और प्रजनन के लिए आदर्श वातावरण प्रदान करते हैं। इनका कोई प्राकृतिक शिकारी भी नहीं है। (खबर जारी, अगले पैरे में देखिए)

पर्यटन को पहुंचा रहे नुकसान
केन्या के होटल मालिकों ने शिकायत की है कि कूड़ा फेंकने वाले स्थानों के अलावा, पर्यटक होटल भी कौवों का पसंदीदा अड्डा बन गए हैं। जहां वे भोजन करने वाले क्षेत्रों में जमा हो जाते हैं। साथ ही भोजन का आनंद ले रहे मेहमानों को परेशान करते हैं। इससे पर्याटन उद्योग को नुकसान पहुंच रहा है। केन्या एसोसिएशन ऑफ होटलकीपर्स एंड कैटरर्स की अध्यक्ष मॉरीन अवूर ने कहा था कि कौवे वास्तव में उन मेहमानों के लिए बड़ी परेशानी बन गए हैं जो उष्णकटिबंधीय समुद्र तटों के बाहर भोजन का आनंद लेने के लिए हमारे होटलों में आते हैं। (खबर जारी, अगले पैरे में देखिए)

गुलेल का भी करते हैं इस्तेमाल
कुछ होटल उत्पाती कौवों को फंसाकर उनका दम घोंट देते हैं। कई ने उन्हें डराने के लिए गुलेल के साथ कर्मचारियों को काम पर रखा है। ऐसा कहा जाता है कि जाल लगाना अप्रभावी है, क्योंकि पक्षी इतने बुद्धिमान होते हैं कि वे उन क्षेत्रों से बचते हैं, जहां वे अन्य कौवों को मरते या फंसते हुए देखते हैं। भारी संख्या में कौवों को मारने की योजना के बावजूद अधिकारियों को लगता है कि उनके पास कोई विकल्प नहीं है, विशेषकर अब जब यह चिंता है कि कौवे अंतर्देशीय क्षेत्र में फैल सकते हैं। (खबर जारी, अगले पैरे में देखिए)

ऐसे पहुंचे केन्या में कौव्वे
केन्या में कौव्वे 1890 के दशक में पहुंचे। तब जंजीबार में कचरे को नियंत्रित करने के लिए इन्हें लाया गया था, क्योंकि गंदगी के कारण बीमारियां फैलती थीं। संरक्षण समूह ए रोचा केन्या के अनुसार, 1917 तक उन्हें पूर्वी अफ्रीका में कीट माना जाने लगा और जो भी मरे हुए कौवे या उनके अंडे लाता उन्हें इनाम मिलता था। माना जाता है कि 1947 में कौवे केन्या के तटीय इलाके मोंबासा में जंजीबार से जहाजों के जरिए पहुंचे। यहां गंदगी थी, जिस कारण उन्हें खानेपीने की कमी नहीं थी। अब कौवों का आतंक है। (खबर जारी, अगले पैरे में देखिए)

मारने का ऐसा है प्लान
द इंडियन एक्सप्रेस की रिपोर्ट के मुताबिक कौवों को खत्म करने के लिए केन्या सरकार ने न्यूजीलैंड से स्टारलाइसाइड नाम के जहर को आयात करने का प्लान बनाया। पक्षीविज्ञानी, संरक्षणवादी और ए रोचा केन्या के सीईओ डॉ. कॉलिन जैक्सन ने कहा था कि 10 लाख कोवों को मारने के लिए 6000 डॉलर प्रति क्रिलोग्राम के हिसाब से 5-10 किलोग्राम जहर की जरूरत है। उन्होंने तब कहा कि जहर को होटल उद्योग द्वारा दिए गए मांस के टुकड़ों में मिलाया जाएगा। यह 10-12 घंटे में कौवे को मार देगा। यह जहर ऐसा है, जो कौवों के मरने के बाद उन्हें खाने वाली दूसरी प्रजातियों के लिए जोखिमभरा नहीं होगा। हमें पता नहीं कि केन्या ने दस लाख कौवों को मारने का लक्ष्य पूरा किया या नहीं, लेकिन ये भी सच है कि वहां इसे लेकर अभियान चलता रहता है। (खबर जारी, अगले पैरे में देखिए)

पहले भी कौवों को मारने की हुई कोशिश
यह पहली बार नहीं है जब घरेलू कौवों को खत्म करने का प्रयास किया जा रहा है। डॉ. जैक्सन ने कहा कि 1980 के दशक से 2005 तक घरेलू कौवों को निम्न स्तर पर जहर देकर नियंत्रित किया जा रहा था। लेकिन सरकार ने ही 2005 में इसे रोक दिया। जैक्सन को उम्मीद है कि इस बार संभवतः केन्या पूरी तरह कौवों को खत्म कर देगा, क्योंकि इस बार सरकार खुद इन्हें खत्म करना चाहती है। उसने जहर खरीदने का परमिट दे दिया है। केन्या के अलावा यमन, सिंगापुर और कुछ यूरोपीय देशों में भी कौवे आक्रामक हो गए हैं। (खबर जारी, अगले पैरे में देखिए)

भारत से कैसे पहुंचे कौवे
भारतीय कौवे केन्या में कैसे पहुँच सकते हैं, यह एक रोचक प्रश्न है, लेकिन इसका जवाब देना मुश्किल है। भारतीय कौवे शब्द का उपयोग आमतौर पर दो अलग-अलग संदर्भों में किया जाता है। भारत में पाए जाने वाले कौवे और केन्या में रहने वाले भारतीय लोग। भारतीय घरों के आसपास पाए जाने वाले सामान्य कौवे को केन्या में “हाउसे क्रो” के रूप में जाना जाता है। (खबर जारी, अगले पैरे में देखिए)

ये कौवे स्वाभाविक रूप से केन्या में नहीं पाए जाते थे, लेकिन 19वीं शताब्दी के अंत में बंदरगाहों के माध्यम से जहाजों द्वारा गलती से या जानबूझकर लाए गए थे। एक बार जब वे केन्या पहुंचे, तो वे वहां की परिस्थितियों में अनुकूलित हो गए और तेजी से फैल गए। केन्या में भारतीय समुदाय की एक लंबी और समृद्ध इतिहास है, जो 19वीं शताब्दी में रेलवे निर्माण के दौरान और उसके बाद भी शुरू हुआ था। भारतीय व्यापारी, व्यवसायी और अन्य पेशेवर केन्या में आकर बस गए। आज, केन्या में एक महत्वपूर्ण भारतीय समुदाय है, जो वहां की संस्कृति और अर्थव्यवस्था में योगदान देता है। यदि आप “भारतीय कौवे” से केन्या में रहने वाले भारतीय लोगों के बारे में पूछ रहे हैं, तो इसका जवाब यह है कि वे सदियों से केन्या में रह रहे हैं और वहां की आबादी का एक महत्वपूर्ण हिस्सा हैं।
नोटः सच का साथ देने में हमारा साथी बनिए। यदि आप लोकसाक्ष्य की खबरों को नियमित रूप से पढ़ना चाहते हैं तो नीचे दिए गए आप्शन से हमारे फेसबुक पेज या व्हाट्सएप ग्रुप से जुड़ सकते हैं, बस आपको एक क्लिक करना है। यदि खबर अच्छी लगे तो आप फेसबुक या व्हाट्सएप में शेयर भी कर सकते हो।

Bhanu Bangwal

लोकसाक्ष्य पोर्टल पाठकों के सहयोग से चलाया जा रहा है। इसमें लेख, रचनाएं आमंत्रित हैं। शर्त है कि आपकी भेजी सामग्री पहले किसी सोशल मीडिया में न लगी हो। आप विज्ञापन व अन्य आर्थिक सहयोग भी कर सकते हैं।
वाट्सएप नंबर-9412055165
मेल आईडी-bhanubangwal@gmail.com
भानु बंगवाल, देहरादून, उत्तराखंड।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

You cannot copy content of this page