कवि एवं साहित्यकार दीनदयाल बन्दूणी की गढ़वाली गजल- माँ कालिंका
माँ कालिंका
मेरि बड्यर्यूं कि कालिंका माँ, दैंणी ह्वेकि जै.
आस लेकि- औंला हम, माँ- खुसी देकि जै..
तेरा थानम अयां छवां, माँ भरि-दीसौं झोऴी.
मेरा गढ़-कुमौ कि कालिंका तु, कष्ट लेकि जै..
तेरि जातरा-आयूं माँ मिं, टक्- धाक धैरीक,
दीसा- धयड़्यूं- आस माँ तु, पूरि- कैकि जै..
मीं अजांण- अपछ्यांण, माँ भूलु- भटकु छूं,
तेरि खुट्यूंम- प्वड़्यूं छूं मिं, बटु दिखैकि जै..
ग्वाऴु – बाऴु तेरु माँ मि, मेरि – धवड़ि सूंण,
मेरा जिया कि संका- दुविधा, माँ मिटैकि जै..
भूख- तीस हरच मेरि, माँ तेरि- छाया बगैर,
मुंडम मेरा- हाथ धैर, सदनि- ज्यूम बैठि जै..
‘दीन’ बटु रिबड़ी-मीं बिछड़ि, कख पौंछिग्यूं,
भलु बटु – भलि समज, माँ- मीं- बतैकि जै..
कवि का परिचय
नाम-दीनदयाल बन्दूणी ‘दीन’
गाँव-माला भैंसोड़ा, पट्टी सावली, जोगीमढ़ी, पौड़ी गढ़वाल।
वर्तमान निवास-शशिगार्डन, मयूर बिहार, दिल्ली।
दिल्ली सरकार की नौकरी से वर्ष 2016 में हुए सेवानिवृत।
साहित्य-सन् 1973 से कविता लेखन। कई कविता संग्रह प्रकाशित।
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भानु बंगवाल, देहरादून, उत्तराखंड।