सर्दी की सुबह, हाथ में लोटा लिए चौराहे में खड़ा आदमी, पूछने लगता है-कहां से चिड़िया मंडी
चिड़िया मंडी में किनारा भटक कर तीन किलोमीटर दूरी पर स्थित चौराहे तक पहुंचे व्यक्ति की व्यथा को वही महसूस कर सकता है, जो इन दो स्थानों के बीच की दूरी को जानता है।

किसी नई जगह पर अक्सर रास्ता भटकने की आशंका रहती है। कई बार तो व्यक्ति मंजिल के पास से होकर गुजर जाता है, लेकिन पहुंच नहीं पाता। गलियों के जाल वाले मोहल्ले में पहली बार किसी के घर का रास्ता याद करना मेरे तो बस की बात नहीं। कई बार तो व्यक्ति ऐसे स्थानों पर रास्ता भटक जाता है और ऐसी जगह पहुंच जाता है जहां रास्ता भटकने की उम्मीद तक नहीं की जा सकती। मसलन जहां गलियां न हो, सपाट मैदान हो। ऐसे स्थानों से किनारे सड़क तक निकलने के लिए रास्ते की तलाश काफी टेढ़ी खीर हो जाती है।
व्यक्ति एक मुसाफिर के समान है। जो किसी न किसी रास्ते पर चल रहे हैं। इन रास्तों पर कई बार चुनौती खड़ी होती है, तो कई बार आनंद भी आता है। हर दिन एक नई राह के समान होता है। यदि अच्छा कट जाए तो मंजिल मिल गई और यदि दिन भर परेशानी रही, तो समझो रास्ता भटक गए। रास्ता भटकने पर राह दिखाने वाले भी मिल जाते हैं, लेकिन कई बार ऐसा समय आता है कि काफी तलाशने के बाद भी राह दिखाने वाला जल्द नहीं मिल पाता।
देहरादून के शहरी क्षेत्र में दो बरसाती नदियां रिस्पना व बिंदाल एक दूसरे के सामानांतर हैं। इन्हीं नदियों के दोनों तरफ मोहल्ले बसे हैं। वर्तमान में अतिक्रमण के चलते ये नदियां संकरी हो गई हैं। कई साल पहले इन नदियों में रिस्पना की चौड़ाई कई स्थानों पर पांच से सात सौ मीटर, या फिर इससे भी से अधिक थी। गरमियों में ये नदी सूखी रहती थी। यहां अक्सर रास्ते का अंदाजा नहीं लग पाता था। जहां से नदी में गए, वहां से वापस निकलने का रास्ता मुझे तब याद नहीं रहता था। ऐसे में कई बार बाहर निकल कर आसपास के मोहल्ले तक पहुंचने में एक-दो किलोमीटर का अतिरिक्त फेरा लग जाता था। छोटे में अक्सर हम सफेद चमकदार पत्थर की तलाश में नदी में जाते थे।
करीब 35 साल पहले की बात है। मैं सुबह करीब पांच बजे दून अस्पताल में भर्ती किसी परिचित को देखने के लिए घर से निकला। साथ ही थरमस में उससे लिए सुबह की चाय ले गया था। अस्पताल मेरे घर से करीब तीन किलोमीटर दूर है। अस्पताल के निकट सड़क के बीच खड़े एक व्यक्ति ने मुझे रुकने का इशारा किया। उसके हाथ में खाली लोटा भी था। मैं उसके पास गया तो उस व्यक्ति ने मुझसे पूछा भैया चिड़िया मंडी कहां है। वहां से चिड़िया मंडी करीब तीन किलोमीटर दूर थी। वहां का रास्ता किसी को समझाना तब आसान काम नहीं था। कई चौक, सड़क व गलियों को पार कर ही वहां पहुंचा जा सकता था। मैं हाथ में लौटा लिए हुए उस व्यक्ति से चिड़िया मंडी का रास्ता पूछने पर कुछ हैरान भी था।
मैने उससे पूछा कि चिड़िया मंडी वह क्यों पूछ रहा है और उसके हाथ में लोटा क्यों है। तब उसने अपनी व्यथा सुनाई। उसने बताया कि वह चिड़िया मंडी में एक बारात में आया है। सुबह शौच के लिए रिस्पना नदी गया। उस वक्त जहां शौचालयों की व्यवस्था नहीं थी, वहां लोग शौच के लिए नदियों की ओर रुख करते थे। उसने बताया कि शौच के बाद वह नदी से वापस मोहल्ले की तरफ तो गया, लेकिन रास्ता भटक गया। मोहल्लों की वे गलियां भूल गया, जहां से वह नदी में गया था। आगे बढ़ते-बढ़ते वह इस स्थान पर आ पहुंचा।
मुझे उस व्यक्ति की व्यथा पर तरस आया। मैने सोचा कि सुबह-सुबह न जाने कितनी देर से यह भटक रहा है। जिस मरीज को देखने मैं जा रहा था, वहां तो अन्य लोग भी सेवा में हैं। इस पर मै उस व्यक्ति को अपने साथ चिड़िया मंडी ले गया। फिर वह स्थान तलाशा, जहां वह बारात में आया था। उसे छोड़ने के बाद ही मैं वापस अस्पताल में मरीज को देखने पहुंचा। अस्पताल पहुंचते ही कई लोगों ने मुझसे सवाल किया कि देरी कैसे हो गई। मैं सिर्फ मुस्कराता रहा। क्योंकि मेरे दिमाग में तो चिड़िया मंडी, सर्दी से कांप रहे हाथ लोटा लिए हुए आदमी की तस्वीर घूम रही थी।
भानु बंगवाल
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भानु बंगवाल, देहरादून, उत्तराखंड।