गंगा स्नान के बाद अपने पावन धाम पहुंची मां चन्द्रबदनी, जानिए महत्ता और इतिहास
अक्षय तृतीया पावन पर्व पर देवप्रयाग में माँ गंगा स्नान के बाद अगले दिन मां चंद्र बदनी अपने पावन धाम पहुंच गई। इस पर पूजा अर्चना के साथ ही रविवार की रात भर देवी जागरण का आयोजन भी किया गया। गौरतलब है कि अक्षय तृतीया को पावन तट भक्तों की भीड़ के साथ पारम्परिक वाद्य यंत्रों की धुन में माँ चन्द्रबदनी ने अलकनंदा व भागीरथी के पावन संगम में डुबकी लगायी। उस समय पूरा वातावरण देवमय हो गया। (खबर जारी, अगले पैरे में देखिए)
माता ने अपना दिव्य रूप दिखाया। मां के अगवानी वीर नाग, घण्ड्याल, क्षेत्रपाल आदि देवी-देवताओं ने अपने-अपने पश्वाओं पर अवतरित हो कर भक्तों को सुफल बाँटकर आशीर्वाद प्रदान किया गया। यात्रा का प्रारम्भ बालावाला स्थित माँ चन्द्रबदनी मन्दिर से ठीक 10:00 बजे पूर्वाह्न पर हुआ। ठीक 1:30 अपराह्न माँ पराम्बा जगदम्बिका की चल विग्रह डोली देवप्रयाग में पहुंची थी। तदुपरांत माता ने अपने सहचरों सहित माँ गंगा में पावन डुबकी लगायी। (खबर जारी, अगले पैरे में देखिए)
इसके बाद मुख्य पुजारी ने माता का श्रृंगार आरती उतारी। भक्तों के दर्शनार्थ डोली को अवस्थित किया गया। भण्डारे के बाद माता ने श्री रघुनाथजी मन्दिर में जाकर भगवान श्रीराम जी से भेंट की। सभी मन्दिरों की परिक्रमा करके मांने अपने पावन धाम चन्द्रकूट पर्वत के लिए प्रस्थान किया। जहाँ लगभग 200 से अधिक भक्तगण माता के आगमन के लिए प्रतीक्षारत थे। ठीक 6:00 बजे मां ने मुख्य मंदिर में प्रवेश किया। मन्दिर की परिक्रमा कर माँ ने विश्राम लिया। तदुपरांत सांध्यकालीन आरती होने के बाद भण्डारा हुआ। रात भर कीर्तन भजन हुए। (खबर जारी, अगले पैरे में देखिए)
अगले दिन रविवार की सुबह दिव्य श्रृंगार के बाद मां भगवती ने पुनः अपने भक्तों को सुफल बाँटते हुए अपने बालावाला स्थित मन्दिर के लिए प्रस्थान किया। तय कार्यक्रम के अनुसार ठीक 1:00 बजे अपराह्न में माता भरत मन्दिर ऋषिकेश में पहुंची। जहां भण्डारा आयोजित हुआ। तदुपरांत माता ने बालावाला के लिए प्रस्थान किया। रविवार की शाम पांच बजे चल विग्रह डोली बालावाला स्थित अपने मन्दिर पहुंची। ठीक रात आठ बजे सांध्यकालीन आरती की गई। इसके बाद पूरी रात भर भगवती जागरण का आयोजन किया गया। (खबर जारी, अगले पैरे में देखिए)

सिद्धपीठ चंद्रबदनी की महत्ता
धार्मिक, साँस्कृतिक, साहित्यिक, ऐतिहासिक एवं पर्यटन की दृष्टि से उत्तराखंड का हिमवन्त क्षेत्र एक अनन्य स्थानों में से एक है। तीर्थ धाम, मठ, मंदिर एवं शक्ति के सिद्धपीठों से भरपूर इस क्षेत्र ने विश्व में अपना नाम प्रतिस्थापित किया है। यहाँ श्री पंच बदरी, श्री पंच केदार, गंगोत्री, यमुनोत्री जैसे पावन धामों के अलावा भगवती के प्रसिद्ध 52 शक्तिपीठ व सिद्धपीठ भी स्थापित हैं। इन्हीं पीठों में चन्द्रकूट पर्वत पर अवस्थित भगवती सती का परम पावन शक्ति पीठ है चन्द्रबदनी। इससे अब सिद्धपीठ के नाम से भी जाना जाता है। मान्यता है कि सिद्धपीठ चन्द्रबदनी में जो भी श्रद्धालु भक्तिभाव से अपनी मनौती माँगने जाता है, माँ जगदम्बे उसकी मनौती पूर्ण करती हैं । मनौती पूर्ण होने पर श्रद्धालु जन कन्दमूल, फल, अगरबत्ती, धूपबत्ती, चुन्नी, चाँदी के छत्तर चढ़ावा के रूप में समर्पित करते हैं। (खबर जारी, अगले पैरे में देखिए)
मंदिर में नहीं है मां की मूर्ति
चन्द्रबदनी मंदिर काफी प्राचीन है। जनश्रुति है कि आद्य जगद्गुरु शंकराचार्य जी ने श्रीनगरपुरम् (श्रीनगर) जो श्रृंगी ऋषि की तपस्थली भी रही है, श्रीयंत्र से प्रभावित होकर अलकनन्दा नदी के दाहिनी ओर उतुंग रमणीक चन्द्रकूट पर्वत पर चन्द्रबदनी शक्ति पीठ की स्थापना की थी। मंदिर में चन्द्रबदनी की मूर्ति नहीं है। देवी का यंत्र (श्रीयंत्र) ही पुजारीजन होना बताते हैं। मंदिर गर्भ गृह में एक शिला पर उत्कीर्ण इस यंत्र के ऊपर एक चाँदी का बड़ा छत्र अवस्थित किया गया है। (खबर जारी, अगले पैरे में देखिए)
केदारखंड में मिलता है विस्तृत वर्णन
पुजारी से जानकारी मिली है कि केदारखण्ड में चन्द्रबदनी का विस्तृत वर्णन मिलता है। मंदिर पुरातात्विक अवशेष से पता चलता है कि यह मंदिर कार्तिकेयपुर, बैराठ के कत्यूरी व श्रीपुर के पँवार राजवंशी शासनकाल से पूर्व स्थापित हो गया होगा। इस मंदिर में किसी भी राजा का हस्तक्षेप होना नहीं पाया जाता है। सोलहवीं सदी में गढ़वाल में कत्यूरी साम्राज्य के पतन के पश्चात् ऊप्पू गढ़ में चौहानों का साम्राज्य था। उन्हीं के पूर्वज नागवंशी राजा चन्द्र ने चन्द्रबदनी मंदिर की स्थापना की थी। जनश्रुति के आधार पर चाँदपुर गढ़ी के पँवार नरेश अजयपाल ने उप्पू गढ़ के अन्तिम राजा कफू चौहान को परास्त कर गंगा के पश्चिमी पहाड़ पर अधिकार कर लिया था। तभी से चन्द्रकूट पर्वत पर पँवार राजा का आधिपत्य हो गया होगा। (खबर जारी, अगले पैरे में देखिए)
ये है पोराणिक कथा
पौराणिक कथाओं के अनुसार माँ सती ने अपने पिता दक्ष के यज्ञ में दुखी होकर हवन कुण्ड में आत्मदाह कर दिया था। दुखित शिव हवनकुण्ड से माँ सती का कंकाल अपने कंधे पर रखकर कई स्थानों में घूमने लगे। जब शिव कंधे पर माँ सती का कंकाल कई दिन तक लिये रहे तो भगवान विष्णु ने अपने सुदर्शन चक्र से शिव के कंधे से माँ सती के कंकाल के टुकड़े-टुकड़े कर दिये। इस तरह हिमालय प्रदेश में माँ सती के अंग कई स्थानों पर बिखर गये। जहाँ-जहाँ सती के अंग गिरे वे पवित्र शक्तिपीठ हो गये। ये शक्तिपीठ मानव जाति के लिए पूज्य हैं। चन्द्रमुखी देवी सती का बदन ही है जो चन्द्रबदनी के रूप में विख्यात हैं। (खबर जारी, अगले पैरे में देखिए)
मां सती का रूप है मां चंद्रबदनी
चन्द्रबदनी माँ सती का ही रूप है। सती का शव ढोते-ढोते शिवजी स्वयं निर्जीव हो गये थे तथा चन्द्रकूट पर्वत पर आने पर शिव अपने यथार्थ रूप में आ गये। वास्तव में शक्तिस्वरूपा पार्वती के अभाव में शिव निर्जीव हो गये थे। पार्वती ही उन्हें शक्ति व मंगलकारी रूप में प्रतिष्ठित कर जगदीश्वर बनाने में सक्षम हैं। मंदिर में 1969 से पहले अष्टबलि प्रथा थी। किन्तु दक्षिण से आये स्वामी मन्मथन नाथ ने इस प्रथा पर अंकुश लगाने के लिए प्रयास किया। जिसका परिणाम यह हुआ कि आज मंदिर में कन्द, मेवा, श्रीफल, पत्र-पुष्प, धूप अगरबत्ती एवं चाँदी के छत्तर श्रद्धालुओं द्वारा भेंटस्वरूप चढ़ाया जाता है। बलि प्रथा पूर्णतः प्रतिबन्धित है। (खबर जारी, अगले पैरे में देखिए)
आंख पर पट्टी बांधकर कराते हैं स्नान
मंदिर में माँ चन्द्रबदनी की मूर्ति न होकर श्रीयंत्र ही अवस्थित है। किवंदती है कि सती का बदन भाग यहाँ पर गिरने से देवी की मूर्ति के कोई दर्शन नहीं कर सकता है। पुजारी लोग आँखों पर पट्टी बाँध कर माँ चन्द्रबदनी को स्नान कराते हैं। जनश्रुति है कि कभी किसी पुजारी ने अज्ञानतावश अकेले में मूर्ति देखने की चेष्टा की थी, तो पुजारी अंधा हो गया था। (खबर जारी, अगले पैरे में देखिए)
यहां पर है स्थित
सिद्धपीठ चन्द्रबदनी उत्तराखंड के जनपद टिहरी के हिण्डोलाखाल विकासखण्ड में समुद्रतल से 8000 फिट की ऊँचाई पर चन्द्रकूट पर्वत पर अवस्थित है। केदारखण्ड में इसे भुवनेश्वरीपीठ नाम से भी जाना जाता है। चैत्र, आश्विन में अष्टमी व नवमी के दिन नवदुर्गा के रूप में नौ कन्याओं की पूजा की जाती है। मंदिर के पुजारी पुजार गाँव के भट्ट लोग तथा पाठार्थी के रूप में सेमल्टी लोग हैं। जनश्रुति है कि माँ भगवती अरोड़ा नामक स्थान के समीप एक कुण्ड में नित्यप्रति स्नान करने जाती हैं। ये अदृश्य कुण्ड भक्तिपूर्वक ही देखा जा सकता है। मंदिर में चोरखोली काफी विख्यात है। इसके अतिरिक्त भोगशाला, सत्संग भवन, पाठशाला, भण्डारगृह, कैण्टीन, सिंह द्वार, परिक्रमा पथ देखने योग्य हैं। (खबर जारी, अगले पैरे में देखिए)
वास्तव में चन्द्रबदनी मंदिर में एक अलौकिक आत्मशान्ति मिलती है। इसी आत्म शान्ति को तलाशने कई विदेशी, स्वदेशी भक्त जन माँ के दर्शनार्थ आते हैं। डेढ़ किमी मोटर मार्ग से पैदल चलना पड़ता है। प्राकृतिक सौन्दर्य से लबालब चन्द्रकूट पर्वत पर अवस्थित माँ चन्द्रबदनी भक्तों के दर्शनार्थ हरपल प्रतीक्षारत है।
प्रस्तुतकर्ता
माधव सिंह नेगी, निवासी ग्राम पैलिंग, पो. परकण्डी जिला रुद्रप्रयाग, उत्तराखंड।

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भानु बंगवाल
मेल आईडी-bhanubangwal@gmail.com
भानु बंगवाल, देहरादून, उत्तराखंड।