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March 12, 2025

रोग प्रतिरोधकता बढ़ाने वाली सब्जी है प्रकृति का अनमोल उपहार लिंगड़ाः डॉ. महेंद्र पाल सिंह परमार

लिंगड़ा एक खायी जाने वाली जंगली फर्न की प्रजाति है। इसे लिंगुड़ा, लिंगुड़, लिंगडी , फीडल हेडेड फर्न या ल्यूड़ के नाम से जाना जाता है।

लिंगड़ा एक खायी जाने वाली जंगली फर्न की प्रजाति है। इसे लिंगुड़ा, लिंगुड़, लिंगडी , फीडल हेडेड फर्न या ल्यूड़ के नाम से जाना जाता है। इसका वानस्पतिक नाम Diplazium esculentum (डिप्लाजियम ऐस्कुलेंटम) है। यह टेरिडोफायटा डिविजन का खाने योग्य फर्न है। इसका उपयोग लोग सब्जी के लिए करते हैं। साथ ही यह रोग प्रतिरोधकता बढ़ाने वाली सब्जियों में सबसे शुद्ध जैविक सब्जी है।
यहां पाया जाता है लिंगड़ा
यह विश्व के कई देशों पर्वतीय स्थानों के साथ साथ, ओसियानिया के पर्वतीय इलाकों में नमी वाली जगहों पर पाया जाता है। मलेशिया में इसे पुचुक पाकू और पाकू तांजुंग कहा जाता है तो फिलिपीन्स में ढेकिया थाईलैंड में इसे फाक खुट कहते हैं। असम में धेंकिर शाक, सिक्किम में निंगरु, हिमाचल में लिंगरी, बंगाली में पलोई साग और उत्तर भारत में लिंगुड़ा कहा जाता है। जंगल में उगने वाली सब्जी लिंगुड़े दिखने में जितने सुन्दर होते हैं खाने में उतने ही स्वादिष्ट और पौष्टिक होते हैं। दरअसल, लिंगड़ा गाड़-गधेरों (बरसाती नदी या नाले) के आस-पास या फिर घने जंगलों में पाए जाते हैं।
इस तरह होता है उपयोग
इसे परम्परागत रूप से विभिन्न बीमारियों के निवारण के लिये भी घरेलू उपचार में भी प्रयोग किया है। पहाड़ी लोगों की यह मनपसंद सब्जी है। आजकल तो देश-विदेश में भी इसकी काफी मांग बढ़ गई है। साथ ही अब लिंगड़े का अचार और सलाद खूब पसंद किया जा रहा है। बता दें कि लिंगडे मे कॉपर , कैल्शियम, पोटेशियम तथा आयरन प्रचुर मात्रा होने के कारण एक उच्च पोषकता का प्राकृतिक स्रोत है। अब विश्व में कई देशो में लिगड़ा की खेती वैज्ञानिक एवं व्यवसायिक रूप से भी की जा रही है। अब कई संस्थाए व अचार बनाने वाले इसका अचार भी बना रहे हैं।
प्रचूर मात्रा में होता है आयरन
यदि मशरूम की भाँती इसे भी उगाया जाय तो ये पोषकता युक्त सब्जी हमें वर्ष भर मिल सकती है। अभी यह अप्रेल से अगस्त तक ही मिल पाता है, परन्तु वर्ष भर मिलने से एक अच्छा रोजगार भी मिल सकता है। जहां एक और पर्वतोय बेटियाँ व महिलायें एनिमिक होती हैं, वर्षभर मिलने से उनकी दशा में सुधार हो सकता है। क्योंकि ये एक आयरन प्रदान करने वाली सब्जी ।है यह न सिर्फ स्वास्थ्य के हिसाब से अच्छी पहल होगी, बल्कि लिंगुड़ा से रोजगार पाने का एक अवसर भी होगा।

लिंगुड़ा के ओषधीय गुण
लिंगुड़ा कई औषधीय गुणों से भरपूर हैं। लिंगडा सब्जी के कई लाभ हैं और ये मात्र सब्जी ही नहीं, बल्कि एक आयूर्वेदिक दवाई भी है। इसमें नाइट्रोजन, फास्फोरस, आयरन व जिंक पाया जाता है। डॉक्टरो का भी मानना है कि लिंगुड़ा शूगर, हार्ट, के मरीजों के लिए रामबांण है। ये एडिबल कॉपर, जिंक, केल्सियम, फॉस्फोरस ,आयरन विटामिन बी का अच्छा श्रोत है। इस पोधे के उपयोग से खांसी में भी रोकथाम होती है व इसके निरंतर उपयोग से रोग प्रतिरोधकता भी बढती है। इसमें कोलेस्ट्रॉल नहीं होता है। इसलिए यह हार्ट के मरीजों के लिए बहुत लाभदायक होता है। लिंगुड़ा की पत्तियों का पाउडर औद्योगिक रूप से बायोसेन्थेसिस ऑफ सिल्वर नैनो पार्टीकल्स के लिए प्रयुक्त किया जाता है। क्योंकि लिंगुड़ा की पत्तियां स्टेबलाइजर का कार्य करती हैं।
आजीविका का एक अच्छा माध्यम बन सकता लिंगुड़ा
राज्य के परिप्रेक्ष्य में अगर लिंगुड़ा को मशरूम की भाँती शोध कर इसका कृषिकरण किया जाय तो यह पढ़े लिखे नोजावानों, बहु बेटियों के लिए आजीविका सृजन का एक अच्छा स्रोत बन सकता है। इस पर शोध एवं अनुसंधान की आवश्यकता है। इसकी खेती वैज्ञानिक तरीके और व्यवसायिक रूप में की जाए तो यह राज्य की आर्थिकी का एक बेहतर पर्याय बन सकता है। साथ साथ इसको वर्षभर उगाने से इसका अचार, सूप, ग्रीन सलाद बन सकता है। इससे स्थानीय लोगों को शुद्ध जैविक, प्राकृतिक, पोषकता युक्त, रसायन रहित गुणकारी औषधीय सब्जी मिलती रहेगी। विदेशों की तर्ज पर उत्तराखंड में भी लिंगुड़ा की खेती कर इसका व्यावसायिक उत्पादन किया जा सकता है। पलायन रोकने के लिए सबसे बड़ा जरिया बन सकता है। सरकार को इस ओर सोचने की जरूरत है।
संरक्षण जरूरी
समय रहते लिंगुड़ा का सरंक्षण उच्च स्तर पर नहीं किया गया तो आने वाले दिनों में वैज्ञानिक और इतिहासकार इसे इतिहास के पन्नों में ढूंढते रह जाएंगे। काश्तकारों की सरकारी स्तर से भी मदद की जायेगी तो लिंगुड़ा जैसे लाभकारी फर्न का संरक्षण किया जा सकेगा। आम तौर पर ये पहाड़ी क्षेत्रों के गद्देरों, नालो व अधिक नमी युक्त स्थानों पर बहुतायत मात्रा में प्राकृतिक रूप से उंगते हैं और यह स्वत: नष्ट होने वाला एक पौधा है। अब क्षेत्र के बाजारों में भी सीजनल सब्जी के रूप में ग्रामीण इसे बेचने लाने लगे हैं। जिसे लोग हाथो हाथ लेते भी है। आलम यह हैं कि इन दिनों गांवो के ग्रामीण अपने मवेशियों को जंगलों में हांकने जाने पर बिना लिगुड़ा लिये वापस नही लौट रहे हैं। बिना प्याज, टमाटर के सहयोग से ही बनने वाले लिंगुड़ा कोरोना वायरस के प्रकोप के कारण लंबे समय बाद अपने घरो को लौटे प्रवासियों को तो कुछ ज्यादा ही भा रहे हैं।


लेखक का परिचय
नाम -डॉ. महेंद्र पाल सिंह परमार ( महेन)
शिक्षा- एमएससी, डीफिल (वनस्पति विज्ञान)
संप्रति-सहायक प्राध्यापक ( राजकीय स्नातकोत्तर महाविद्यालय उत्तरकाशी)
पता- ग्राम गेंवला (बरसाली), पोस्ट-रतुरी सेरा, जिला –उत्तरकाशी-249193 (उत्तराखंड)
मेल –mahen2004@rediffmail.com

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भानु बंगवाल, देहरादून, उत्तराखंड।

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