Loksaakshya Social

Social menu is not set. You need to create menu and assign it to Social Menu on Menu Settings.

Social menu is not set. You need to create menu and assign it to Social Menu on Menu Settings.

November 10, 2024

उत्तराखंड में भू -कानून समय की मांग या चुनावी मुद्दाः सोमवारी लाल सकलानी

मेरा मानना है कि उत्तराखंड भू कानून जो कि समय की मांग है। यथा समय शासन और प्रशासन को इस पर पहल करनी चाहिए।

समय की मांग या चुनावी मुद्दा
उत्तराखंड भू- कानून पर आजकल खूब हल्ला, शोर – शराबा और बहस हो रही है। सैद्धांतिक रूप से तो यह एक अच्छी पहल है, लेकिन व्यावहारिक रूप से देखा जाए तो यह बाईस और चौबीस के चुनावों को मध्य नजर रखते हुए राजनीतिक पार्टियों का चुनावी एजेंडा भी हो सकता है, जिसकी पृष्ठभूमि बन रही हो।
राज्य निर्माण के वक्त ही बन जाना चाहिए था
उत्तराखंड राज्य निर्माण के समय से ही उत्तराखंड भू – कानून (अधिनियम) बनकर पास हो जाना चाहिए था। हिमाचल प्रदेश की तर्ज पर यहां के जल, जंगल और जमीन पर स्थानीय जनता का अधिकार होना चाहिए था। दुर्भाग्य की बात यह रही कि हमारे जनप्रतिनिधि चाहे वह किसी भी पार्टी के रहे हों, व्यक्तिगत स्वार्थों के कारण इतने गिर गए कि उन्हें इस प्रकार के जनमानस से जुड़े हुए मुद्दों को सोचने और समझने की जरूरत भी महसूस नहीं हुई।
यूकेडी और राष्ट्रीय पार्टियों की भूमिका
उत्तराखंड क्रांति दल ने उत्तराखंड राज्य निर्माण के लिए जो बिगुल बजाया था और जिसमें उन्होंने कुर्बानी भी दी थी। आपस में ही राज्य निर्माण पहले से मनमुटाव में जुटे रहे। दिल्ली जाकर के अनेक संगठनों के द्वारा आपस में माइक तक की झपटी के लिए उतावले हो गए। जिससे जनता में एक बुरा संदेश गया और उत्तराखंड क्रांति दल हाशिए पर आ गया। राष्ट्रीय पार्टियां चाहे भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस हो या भारतीय जनता पार्टी हो, उन्होंने राज्य निर्माण केवल राजनीतिक स्वार्थों की पूर्ति करने के लिए आगे बढ़ाया। क्योंकि आरंभिक क्षणों में ही इस भू कानून व्यवस्था जैसे ज्वलंत प्रश्नों को पीछे छोड़ दिया। जब उत्तराखंड राज्य निर्माण हो गया तो उसके बीस वर्ष बाद तक भी बारी-बारी से राष्ट्रीय पार्टियां उत्तराखंड में राज करती रहीं हैं। उनका एक सूत्रीय कार्यक्रम सत्ता सुख,संपत्ति बटोरना,अपनी ही पार्टी की टांग खिंचाई करना या मुख्यमंत्री बदलने का रहा। अपनी राजनीतिक रोटियों को सेकने में संलग्न रहे।अपने चुनाव की ही चिंता रही है।
उत्तराखंड क्रांति दल, जिसका कि एक क्षेत्रीय वजूद था, वह भी कभी कांग्रेस तो कभी भाजपा की गोदी में बैठ गए। तमाम जनता के ज्वलंत मुद्दे, परेशानियां, बेरोजगारी, जल जंगल जमीन, हक -हकूक आदि हाशिए पर चलते गए। छोटे से प्रदेश में 20 सालों में भी कुछ बड़ा अंतर नहीं दिखाई दे रहा है। वस्तुस्थिति उत्तरप्रदेश के समय जैसी ही है। यहां के अति महत्वाकांक्षी राजनीतिक नेता, छोटे तपके के नेता, ठेकेदार, प्रॉपर्टी डीलर चुनाव जीतने तक की सीमित रहे। उन्होंने अपने लिए कोठी, बंगला तलाशना शुरू कर दिया। खाले नाले की जमीन के ऊपर कब्जा करना शुरू कर दिया। यहां तक कि भूमाफियाओं, धन्ना सेठों को भी यहां जमीन खरीदने के लिए लालायित किया। बहुत सारे लोगों की दलाली आज भी बरकरार है।
स्थानीय लोगों की भूमिका
राज्य से बाहर का कोई भी व्यक्ति बिना स्थानीय लोगों के सांठगांठ के यहां जमीन नहीं खरीद सकता। इसलिए स्थानीय भू माफियाओं पर भी अंकुश लगना चाहिए जो कि देव भूमि की जमीन को बेचने में दलाली का काम कर रहे हैं। आने वाले 50 वर्षों में यदि हालात यही रहे तो उत्तराखंड की अधिकांश भूमि पहाड़ के मूल निवासियों के हाथों से चली जाएगी। केवल यहां का मूलनिवासी केवल बंधुआ, मजदूरी और मजदूर के रूप में ही काम करने के लिए मजबूर होगा।
आज हमारे अधिकांश राजनेताओं, जनप्रतिनिधियों के देहरादून, हरिद्वार, नैनीताल, हल्द्वानी आदि मैदानी क्षेत्रों में कई बीघा जमीन हासिल की हुई है। सत्ता का भी इसमें कुरूप चेहरा देखने को मिला है। अभी कुछ दिन पर पूर्व एक लेख पढ़ रहा था, जिसमें कि मैं अपने ही उत्तराखंड क्रांति दल के एक पूर्व नेता, जिनका कि भारतीय जनता पार्टी से भी संबंध रहा है, हरिद्वार के अधिकांश खनन, क्रशर, प्रॉपर्टी आदि पर उनका एक छत्र साम्राज्य चल रहा है। चुनाव के समय वे अपने को गरीब घोषित करते हैं, जबकि अरबों की संपत्ति उनके पास है।
एक उदाहरण
पर्वतीय क्षेत्रों में चंबा मसूरी फल पट्टी योजना जब बनी तो वह समय भूमिहीन, निर्धन व्यक्तियों पूर्व सैनिकों के लिए पट्टे आवंटित हुए। इनमें से अधिकांश पट्टे राजनेताओं, जनप्रतिनिधियों, समाजसेवियों, अफसरशाही आदि को भेंट चढ़ गए। यदि तस्दीक की जाए तो दस फीसदी पर भी पूर्व सैनिकों, भूमिहीनों या अनुसूचित जाति के व्यक्तियों का मालिकाना हक नहीं है। फल और सब्जी उत्पादन के लिए जो यह पट्टे आवंटित किए गए थे। आज उस भूमि पर कंक्रीट के महल बन गए हैं। बड़े-बड़े रिसोर्ट और होटल, अट्टालिकाएं दिखाई दे रही हैं, जबकि कानून की दृष्टि से या नियमानुसार वहां इस प्रकार का निर्माण कार्य नहीं किया जा सकता था।
समरथ को नहीं दोष गोसाईं
दुर्भाग्य है इस प्रदेश का कि यहां यह सब कुछ हो रहा है। कृषि भूमि भी भू माफियाओं की भेंट चढ़ती जा रही है। स्थानीय छोटे नेता भी इसमें संलग्न है, क्योंकि उनको भी थोड़ा बहुत कमीशन मिल जाता है। पर्वतीय क्षेत्रों में आम आदमी के लिए पेड़ की एक टहनी काटना भी नामुमकिन है। लोग सड़क से वंचित हैं। वन अधिनियम की हर समय बात की जाती है लेकिन “समरथ को नहीं दोष गोसाईं। ”
नगर क्षेत्र के अंतर्गत ही भू माफियाओं का प्रभाव कितना बढ़ गया है कि राजमार्ग तक पर वह कब्जा करने की सोच रहे हैं और मनचाहे घाव पर्वत की छाती पर कर रहे हैं। कोई पूछने वाला नहीं है। टिहरी जिले के चंबा नगर क्षेत्र में ही राजमार्ग पर सरेआम इस प्रकार का कार्य किया जा रहा है, लेकिन किसी को भी फिक्र नहीं है, ऐसा प्रतीत होता है। एक घंटे या एक दिन में तो इतना बड़ा नुकसान नहीं किया जा सकता है। इसकी पटकथा महीनों पहले लिखी गई और महीनों से कार्य भी गतिमान रहा। अब बरसात के मौसम में बारिश के कारण बड़े-बड़े पत्थर, मलबा गिर कर सड़क पर आ गया है। आसपास के लोगों का जीना हराम हो गया है। केवल कानाफूसी होती है और फिर सन्नाटा !
समय की मांग
मेरा मानना है कि उत्तराखंड भू कानून जो कि समय की मांग है। यथा समय शासन और प्रशासन को इस पर पहल करनी चाहिए। भू कानून बनना चाहिए, लेकिन उस पर इस प्रकार के विनिमय, परिशिष्ट, खंड और उपखंड ना जोड़ें जाएं कि आम आदमी को कुछ ना मिल सके और स्थानीय भू माफिया उनका भी अधिपति बन जाए। गौर करने की बात है कि बाहर का आदमी जब कहीं जमीन या प्रॉपर्टी खरीदना है, व्यवसाय करता है तो स्थानीय जनता से, स्थानीय प्रशासन से, स्थानीय सरकार से डरा हुआ भी रहता है और अनर्गल कार्य कम करता है। या तब करता है जब स्थानीय लोग साथ मिले हुए होते हैं।
सबसे ज्यादा पहाड़ का नुकसान करने में पहाड़ के निवासियों का भी योगदान है। इसलिए भू-कानून इस प्रकार का बने कि इसका आम जनमानस को लाभ मिले। ठोस प्रावधानों की व्यवस्था हो। उत्तराखंड राज्य बनने से पूर्व जब हम सब ने सड़कों पर संघर्ष किया, प्रत्येक व्यक्ति चाहे वह मजदूर हो या किसान, नौकरी पेशा वाला हो चाहे जनप्रतिनिधि सब का राज्य निर्माण में योगदान तो रहा है। मातृशक्ति और शिक्षक कर्मचारियों की भी महत्वपूर्ण भूमिका रही है। लाभ चंद लोगों को भी मिला। आज भी विकास की लड़ाई नहीं लड़ी जा रही है, केवल राजनीतिक स्वार्थ दिखाई पड़ता है।
समर्थन
मैं उत्तराखंड भू कानून का समर्थन करता हूं। यथा समय यह कानून बने और लागू हो। अच्छा होता की यह लड़ाई विधानसभा चुनाव के बाद लड़ी जाती ताकि लंबा समय मिलता यह समय तो केवल राजनीतिक स्वार्थों के कारण सरकार केवल घोषणा कर सकती है। राजनीतिक दल एजेंडा बना सकते हैं, क्योंकि चुनाव के लिए मात्र छह सात माह बाकी है। उत्तराखंड भू व्यवस्था भी कानून को राजनीतिक चश्मे से नहीं देखना चाहिए यह जनहित का मुद्दा है और इस में प्रत्येक व्यक्ति की सहभागिता जरूरी है। भले ही आम आदमी को कितना लाभ मिलेगा यह भविष्य की गर्त में है। फिर भी यह उत्तराखंड के लिए समय की मांग है।
लेखक का परिचय
कवि एवं साहित्यकार सोमवारी लाल सकलानी, निशांत सेवानिवृत शिक्षक हैं। वह नगर पालिका परिषद चंबा के स्वच्छता ब्रांड एंबेसडर हैं। वर्तमान में वह सुमन कॉलोनी चंबा टिहरी गढ़वाल, उत्तराखंड में रहते हैं। वह वर्तमान के ज्वलंत विषयों पर कविता, लेख आदि के जरिये लोगों को जागरूक करते रहते हैं।

Website | + posts

लोकसाक्ष्य पोर्टल पाठकों के सहयोग से चलाया जा रहा है। इसमें लेख, रचनाएं आमंत्रित हैं। शर्त है कि आपकी भेजी सामग्री पहले किसी सोशल मीडिया में न लगी हो। आप विज्ञापन व अन्य आर्थिक सहयोग भी कर सकते हैं।
वाट्सएप नंबर-9412055165
मेल आईडी-bhanubangwal@gmail.com
भानु बंगवाल, देहरादून, उत्तराखंड।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

You cannot copy content of this page