गढ़वाल यात्रा का अंतिम रेलवे स्टेशन है कोटद्वार, कभी था प्राचीन सभ्यता का केंद्र
उत्तराखंड के पौड़ी जिले में स्थित कोटद्वार, गढ़वाल यात्रा के लिए अन्तिम रेलवे स्टेशन है। इसे पर्वतीय क्षेत्र का प्रवेश द्वार भी कहा जाता है। अभिज्ञान शाकुन्तल की चिर-परिचित मालिनी के तट पर पौड़ी, और बिजनौर जिले के मध्य में दक्षिण हिमालय की सुदूर पहाड़ियों के चरणों में स्थित भूमि भाग कोटद्वार के नाम से प्रसिद्ध है। इस भूखण्ड की लम्बाई 92 किलोमीटर है जो पूर्व में पोरवा नदी को छूता हुआ पश्चिम में हरिद्वार तक चला गया है।
उत्तर में शिवालिक की पहाड़ियाँ और दक्षिण में कण्डी सड़क है। यह हिमालय की तराई में स्थित है और इसकी जलवायु प्रधानतया तराई की सी है। जमीन बहुत उपजाऊ है। हर पाँच वर्षों में एक वर्ष वर्षा अधिक, दो वर्ष साधारण और एक वर्ष कम तथा एक वर्ष बहुत ही कम होती है।
ऐतिहासिक दृष्टि से भी महत्व
ऐतिहासिक दृष्टि से यह क्षेत्र कभी प्राचीन सभ्यता का प्रमुख केंद्र रहा होगा। सन् 1887 के आस-पास सर अलैक्जेंडर कनिंघम ने इस क्षेत्र का सर्वेक्षण किया था। उन्होंने घने जंगलों के मध्य में अनेक आम के वृक्षों के समूह, मकान और नगरों के भग्नावशेष, कुंए तथा आबादी के चिहन देखे थे। कोटद्वार से कुछ किलोमीटर के अन्तर पर मोरध्वज का किला सर अलेक्जेंडर ने ही ढूंढा था।
इस किले पर बौद्ध भाव परिलक्षित होता है। ऐसा प्रतीत होता है कि इस स्थान पर पहले कभी बौद्ध विहार रहा होगा। बाद में उसी स्थान पर हिन्दू मन्दिर का निर्माण हुआ होगा, क्योंकि खुदाई में प्राप्त मूर्ति जो अब तक पानी और नमक के प्रभाव से अछूती रही, उसी आधार पर यह माना जा सकता है कि यह मन्दिर मध्य युगीन (1000 ईसवीं से 1500 ई. अन्तर्गत) में निर्मित हुआ होगा।
मोरध्वज किला
बिजनौर-कोटद्वार सड़क मार्ग पर कोटद्वार से करीब 13 किलोमीटर दूरी पर मथुरापुरमोर गांव पड़ता है। यह प्राचीन काल में यह क्षेत्र अहिक्षेत्र के नाम से जाना जाता था। उस समय यह उत्तर पांचाल की राजधानी हुआ करती थी। अहिक्षेत्र का वर्णन चीनी यात्री ह्वेनसांग ने भी अपनी पुस्तक में किया है। इस पुस्तक में बौद्व धर्म का वर्णन भी किया गया है। यह क्षेत्र गंगा एवं रामगंगा के बीच मे आता है। प्राचीन काल में शिवालिक की पहाड़ी इस क्षेत्र को तीन ओर से घेरे हुए थी। जिससे आक्रमणकारी नहीं आ पाते थे। इस दृष्टि से यहां राजधानी बनाई गई थी। इस गांव में महाभारत के समय का मोरध्वज का किला है।
ये है किवदंती
यह किला महाभारत के उस समय की याद दिलाता है, जब योगीराज श्री कृष्ण महाभारत का युद्ध समाप्त होने पर अपने भक्त मोरध्वज की परीक्षा लेना चाहते हैं, जिसमें कृष्ण ने अर्जुन के साथ शर्त लगायी थी कि तुम से भी बड़ा मेरा एक भक्त है और वह है मोरध्वज। उन्होंने राजा मोरध्वज के पास ऋषिवेश में पहुंचकर कहा कि महाराज मेरा शेर भूखा है और यह नरभक्षी है।
राजा ने कहा कि ठीक है मैं अपने मांस से इसकी भूख को शान्त कर देता हूं तो उन्होंने कहा कि नहीं यह तो किसी बच्चे का मांस खाता है तो राजा मोरध्वज ने अपने बच्चे का मांस खिलाना उचित समझा। तब कृष्ण ने कहा कि आप दोनों पति-पत्नि अपने पुत्र का सिर काटकर मांस खिलाओं अगर इस बीच तुम्हारा एक भी आंसू निकला तो यह नहीं खायेगा। इस प्रकार राजा और रानी ने अपने पुत्र का सिर काटकर शेर के आगे डाल दिया। तब कृष्ण ने राजा मोरध्वज को आर्शीवाद दिया तथा उनका पुत्र पुर्नजीवित हो गया। इस प्रकार राजा ने अपने भक्त की परीक्षा ली। उस दानी, तपस्वी भक्त राजा मोरध्वज का किला आज भी इस गांव में जीर्ण-शीर्ण अवस्था में है।
खुदाई में निकली थी मूर्तियां
इस किले के पास ग्रामीणों के द्वारा की गई खुदाई में बहुत सारी समकालीन मूर्तियां निकली। जिसमें राजा मोरध्वज को मोर के ऊपर बैठा दिखाया गया है। जिनमें 5 फुट 8 इंच का शिवलिंग भी निकला है। जिसे ग्रामीणों ने किले के मंदिर में पुर्नस्थापित कर दिया। प्राचीन काल बौद्ध काल, शैवकाल, गुप्तकाल आदि कालों की चीजें क्षेत्र में विद्यमान है। एक बार गढ़वाल विश्वविद्यालय से एक टीम इस क्षेत्र का भ्रमण करने आयी थी। उसके बाद पुरातत्व विभाग ने आज तक इसकी कोई सुध नहीं ली है। इस गांव में एक प्राचीन कुंआ है, जो टूट-फूट चुका था गांव वालों ने इस कुएं के उपरी हिस्से की मरम्मत की है।
कुएं के बारे में ये है कथा
इस कुंए के बारे में किवदंती है कि राजा मोरध्वज सुबह यहां से 4 किलोमीटर की दूरी पर गंगा स्नान के लिए जाते थे। यह उनका नियमित दिनचर्या थी। गंगा जी ने सोचा कि यह भक्त रोज इतनी दूर से आता है क्यों न मैं एक धारा इनके किले के पास तक प्रवाहित कर दूं तो गंगा मां ने इस कुएं के माध्यम से एक धारा प्रवाहित की। इस कुएं के पानी की यह खासियत है कि दाद, खाज, खुजली आदि के रोग इसके स्नान से दूर हो जाते है। क्षेत्रीय लोग एवं दूर-दूर से आये श्रद्वालु इस कुएं में स्नान करते हैं तथा रोगों से मुक्त होते हैं।
राजाओं के शासनकाल में खेती के लिए सर्वोत्तम स्थान
गढ़वाली राजाओं के शासनकाल में कोटद्वार क्षेत्र खेती के लिए सर्वोत्तम स्थान था। लालढांग और चौकीघाट की मण्डी जिनका सम्बन्ध सोलहवीं शताब्दी से मालूम पड़ता है, इसके साक्षी हैं। मवाकोट स्थान में पुराने गढ़ों के खंडहर तथा जगदेव में नील की फैक्टरी के अवशेषों का दिखना, इस क्षेत्र की प्राचीन सम्पन्नता को दर्शाता है।
ब्रिटिश शासन में जंगलों के दिए जाते थे ठेके
इस क्षेत्र में ब्रिटिश शासन के दौरान जंगलों में चराई करने, लकड़ी और बाँस काटने के ठेके दिए जाते थे। सन् 1869 में तराई-भाबर का यह क्षेत्र गढ़वाल में सम्मिलित किया गया। तत्कालीन डिप्टी कमिश्नर कर्नल गसर्टिन के प्राथमिक प्रयासों से ही कोटद्वार ने धीरे-धीरे एक सम्पन्न बस्ती का स्वरूप धारण किया।
कुमाऊँ क्षेत्र से आये ठाकुर उमराव सिंह रावत को बेटन बन्दोबस्त में हिस्सेदारी के अधिकार दिये गये। ठाकुर उमराव सिंह ने क्षेत्र के सबसे बड़े जमींदार के रूप में लम्बे समय तक पहचान बनायी। उनकी सम्पन्नता एवं दयालु स्वभाव को जागर गीतों में स्थान मिला है।
द्वारीखाल
यह स्थान पौड़ी कोटद्वार मोटर मार्ग से 50 किलोमीटर के अन्तर पर पहाड़ के ऊपर स्थित है। इस स्थान का नाम द्वारी इसलिए पड़ा है, क्योंकि गढ़वाल के इस प्राचीन किले की खिड़की कोटद्वार तथा हरिद्वार की पुरानी हवेलियों के दरवाजों की भाँति है। यहाँ से दुगड्डा 20 किलोमीटर की दूरी पर है।
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लेखक का परिचय
लेखक देवकी नंदन पांडे जाने माने इतिहासकार हैं। वह देहरादून में टैगोर कालोनी में रहते हैं। उनकी इतिहास से संबंधित जानकारी की करीब 17 किताबें प्रकाशित हो चुकी हैं। मूल रूप से कुमाऊं के निवासी पांडे लंबे समय से देहरादून में रह रहे हैं।