Loksaakshya Social

Social menu is not set. You need to create menu and assign it to Social Menu on Menu Settings.

Social menu is not set. You need to create menu and assign it to Social Menu on Menu Settings.

December 12, 2024

जानिए भारतीय सैन्य अकादमी देहरादून का इतिहास, आज विदेशों में भी है नाम

सर्वप्रथम है देश की रक्षा, गौरव और कल्याण |
तदनंतर है सेना का हित, मंगल और सम्मान |
सदा अंत में आयेगा निज सुख, सुविधा और प्राण ।
ये आदर्श वाक्य हैं उस भारतीय सैन्य अकादमी, देहरादून के जो भारतीय सेना के लिए कर्मठ, साहसी और वीर अधिकारियों को प्रशिक्षित करती है। अकादमी का मुख्य भवन, रेलवे स्टाफ कालेज के रूप में सन् 1930 में 23,96,000 रूपयों की लागत से तैयार हुआ था। आर्थिक तंगी के कारण स्टाफ कालेज को फरवरी 1932 में बन्द कर दिया गया तथा समस्त सम्पत्ति मार्च 1932 में सैन्य विभाग को, अकादमी स्थापित करने के लिए सुपुर्द कर दी गयी।
देहरादून की चकराता रोड स्थित भारतीय सैन्य अकादमी, देश की एकमात्र ऐसी संस्था है जो देश की रक्षा हेतु कैडेटों को कठिन प्रशिक्षण देकर सेना में कमीशन देती है। यहां से प्रशिक्षित कैडेट भारतीय सशस्त्र सेना में सेकेण्ड लेफ्टिनेंट के पद पर कमीशन प्राप्त कर लेते हैं। इस अकादमी में कैडेटों का प्रवेश चार स्त्रोतों से किया जाता है – प्रथम संघ लोक सेवा आयोग, प्रतियोगी परीक्षायें आयोजित करके प्रतिवर्ष दो बार चयनित प्रत्याशियों के नाम भेजता है, जिसे अकादमी आगामी सत्र के लिए उनका नामाकंन करती है, जिसे सीधा प्रवेश भी कहा जाता है। दूसरा प्रवेश राष्ट्रीय सुरक्षा अकादमी, खड़कवासाला के कैडेट होते हैं जो अपना पाठयक्रम पूरा करके प्रतियोगी परीक्षा के आधार पर ग्रेजुएशन के लिए आते हैं।

तीसरी श्रेणी उन प्रतियोगियों की होती है जो सैन्य कैडेट कालेजों में अध्ययन करते हैं तथा चौथे तकनीकी स्नातक होते हैं, जो सेना के तकनीकी विंग का प्रशिक्षण प्राप्त करते हैं। इनके अतिरिक्त इस अकादमी में मित्र राष्ट्रों के कैडेट भी होते हैं जो यहां प्रशिक्षण प्राप्त करते हैं। मित्र राष्ट्रों में नेपाल, भूटान, बंगलादेश, मालदीव, मारिशस, नाइजीरिया आदि 22 राष्ट्र सम्मिलित हैं।
गौरवशाली रहा इतिहास
इस अकादमी का इतिहास गौरवशाली रहा है। यहां के प्रशिक्षित कैडेट- वर्मा, पाकिस्तान, नेपाल एवं भूटान में अपने देश की सेनाओं के प्रमुख भी रह चुके हैं। इस अकादमी की स्थापना सन् 1932 में हुई थी। इसके संस्थापक फील्ड मार्शल सर फिलिप चेटवुड थे। इसका विधिवत उद्घाटन उन्होंने 10 दिसम्बर 1932 में किया था। उस समय इसके कैडेटों की संख्या मात्र चालीस थी। इन्हीं प्रथम वैच के कैडेटों में जो अग्रणीय कहलाये। इनमें फील्ड मार्शल एस.एच.एफ.जे. मानेकशॉ, जनरल मौहम्मद मूसा जो पाकिस्तानी सेना के सेनाध्यक्ष बने, लेटिनेंट जनरल स्मिथ डन जो बाद में वर्मा की सेना के सेनाध्यक्ष बने।
भारत में ब्रिटिश राज्य स्थापित होने के उपरान्त भारतीय रायल सेना में अधिकारी स्तर का पद प्रथम विश्व युद्ध से पूर्व नही था, किन्तु प्रथम महायुद्ध के समय भारतीय सेना के जिनमें लगभग शत-प्रतिशत भारतीय थे। 53486 बहादुर सैनिक फ्रांस, पूर्वी अफ्रीका, मसोपोटामिया, पर्सिया, मिस्त्र, गैलीपोली, अदन और मस्कत में मारे गये, 64350 वीर सैनिक घायल हुए तथा 3762 सैनिक 31 दिसम्बर 1919 तक लापता हो चुके थे।
परिणामत: 25 अगस्त 1917 को सेना के भारतीयकरण के सम्बन्ध में एक महत्वपूर्ण कदम उठाया गया। रायल सेना में जो सात भारतीय, पैदल एवं अश्वारोही सेना में अपनी सेवायें दे रहे थे, कमीशन दिया गया और प्रथम विश्व युद्ध समाप्त होने से पूर्व दो भारतीय सैनिकों को जिन्हें अस्थायी कमीशन प्राप्त हुआ था, स्थायी कमीशन प्रदान किया गया।
सन् 1924 में समस्त राजनैतिक दलों के प्रमुख नेताओं ने प्रान्तीय काँसिल में यह दबाव डाला कि सेना का विशुद्ध भारतीयकरण किया जाये और उनके प्रशिक्षण के लिए भारतीय मानक की स्थापना की जाये। उस समय स्थापित स्किनर समिति ने ब्रिटिश सरकार को सुझाव दिया कि शीघ्र ही सैन्य अकादमी की स्थापना की जाय, जिसमें कम से कम सौ कैडेटों के प्रशिक्षण की व्यवस्था हो, लेकिन ब्रिटिश सरकार इस सुझाव से सहमत न हुई।
भारतीय नेताओं ने सन् 1928 में एक बार फिर इस मामले पर केन्द्रीय असेम्बली में आवाज उठायी। राष्ट्रीय नेताओं द्वारा जोरदार मांग उठाये जाने के कारण भारतीयकरण की गति धीमी पड़ गई। केवल 29 भारतीय कैडेटों को वार्षिक प्रशिक्षण के लिए इंग्लैण्ड भेजा गया, जिनमें 20 सैण्डहर्स्ट,6 वुडविच, और 3 क्रेनवेल गये। ऐसे धीमे प्रयासों से भारतीय नेताओं का मनोबल टूटा।
अब भारतीय नेता अपनी इस लड़ाई को 1930 में लन्दन में हुए प्रथम गोलमेज सम्मेलन में ले गये। जहां 30 सदस्यों की रक्षा उपसमिति गठित की गयी, जिसमें ब्रिटिश व भारतीय दोनों देशों के विशेषज्ञ शामिल थे। गोलमेज सम्मेलन के निर्णय के अनुपालन में मई 1931 में चेटवुड समिति की स्थापना कर दी गयी। जिसने एक विस्तृत योजना के अंतर्गत प्रतिवर्ष 60 कैडेटों को कठोर प्रशिक्षण देकर रायल सेना में कमीशन देने का प्रावधान रखा। इस प्रकार भारतीय सैन्य अकादमी (इण्डियन मिलिट्री एकेडमी) 1 अक्टूबर 1932 को अस्तित्व में आई।
द्वितीय विश्व युद्ध प्रारम्भ होने तक 540 भारतीय कैडेट, सेना में कमीशन प्राप्त कर चुके थे। विश्वयुद्ध के दौरान अकादमी को अधिकारी प्रशिक्षण विद्यालय का रूप दे दिया गया। सन् 1941 से 1946 के मध्य यहाँ से 2038 भारतीय व अंग्रेज अधिकारी प्रशिक्षित हुए। अकादमी में प्रथम नियमित प्रशिक्षण 25 फरवरी 1946, द्वितीय नियमित प्रशिक्षण 19 अगस्त 1946 व तृतीय नियमित प्रशिक्षण 22 जनवरी 1947 को प्रारम्भ हुआ। भारत के विभाजन के कारण 14 अक्तूबर 1947 को 112 कैडेट पाकिस्तान चले गये।


नामकरण में भी हुए कई परिवर्तन
अकादमी के नामकरण में कई एक परिवर्तन हुए, किन्तु आरम्भ में जो इसका नाम था, वह आज भी है। जनवरी 1949 में आर्मड फोर्सेज अकादमी रखा गया और इसकी एक शाखा क्लेमेन्टटाउन में स्थापित हुई। इसमें थलसेना, वायुसेना और नैसेना के कैडेटों को आम्ड फोर्सेज अकादमी में अन्य दो वर्ष का प्रशिक्षण तथा नैसेना व वायुसेना के कैडेटों को देश के अन्य भागों में स्थित प्रशिक्षण केन्द्रों पर प्रशिक्षित करने के लिए भेजा जाने लगा। 1 जनवरी 1950 को आर्मड फोर्सेज अकादमी, देहरादून का नाम बदलकर नेशनल डिफेंस अकादमी रखा गया। तीन स्कन्धों वाली नेशनल डिफेंस अकादमी सन 1954 में देहरादून से खड़कवासला चली गयी और मिलिट्री विंग का नाम मिलिट्री कालेज हो गया। सन 1960 में अपने पूर्व नाम भारतीय सैन्य अकादमी से पुन: अलंकृत की गयी। सन् 1962 में चीन के आक्रमण के बाद अकादमी का विस्तार हुआ। सन्1962 से 1964 के मध्य 4051 कैडेटों को आपात्कालीन कमीशन दिया गया।
ऐसे प्रदान किया कलर
भारतीय सैन्य अकादमी को 10 दिसम्बर 1962 को भारत के राष्ट्रपति डॉ० राधाकृष्णन् द्वारा स्वतंत्रता के उपरान्त प्रथम बार ‘कलर’ प्रदान किया गया तथा 23 नवम्बर 1933 को मिले ‘किंग्स कलर’ को विश्राम दे दिया गया। 15 नवम्बर 1976 को पुन: तत्कालीन राष्ट्रपति फखरूद्दीन अली अहमद द्वारा ‘कलर’ प्रदान किया गया, जो आज तक विद्यमान है।
भारतीय सैन्य अकादमी में मुख्यतया राष्ट्रीय रक्षा अकादमी तथा सेना कैडेट कालेज, से कैडेट आते हैं तथा कुछ कैडेट विश्वविद्यालय और कालेजों से अकादमी में सीधा प्रवेश लेते हैं। तकनीकी स्नातक विश्वविद्यालयों से आने वाले कैडेट एक वर्ष का प्रशिक्षण लेने के पश्चात् तकनीकी आर्स में कमीशन लेते है। देश की भौगोलिक रचना को देखते हुए यहाँ की रक्षा आवश्यकतायें विश्व के किसी भी देश की तुलना में बहुत अधिक है, जिनको ध्यान में रखकर कठिन प्रशिक्षण की व्यवस्था की गयी है। कैडेट, शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक, नैतिक गुणों को विकसित करने के साथ ही मस्तिष्क व हदय में देश प्रेम, चरित्र, गतिशीलता और समझदारी के गुणों को विकसित करते है।
अकादमी के संग्राहलय की विशेषता
अकादमी का फैलाव एक हजार पाँच सौ एकड़ भूमि पर चकराता मार्ग के दोनों ओर है। देश की दो प्रमुख नदियों गंगा तथा यमुना से इसकी दूरी समान है। अकादमी के चेटवुड भवन के अन्दर स्थित संग्रहलय में विभिन्न राष्ट्राध्यक्षों तथा सेना प्रमुखों द्वारा अकादमी को भेंट किये गये स्मृति चिह्नों के अतिरिक्त प्रथम तथा द्वितीय विश्वयुद्ध व पाकिस्तान के साथ हुए युद्धों में छीने गये हथियार व दस्तावेज भी उपलब्ध हैं। अकादमी चिह्न की पृष्ठभूमि सलेटी तथा लाल रंग की है। इन पर जलती हुई मशाल व दो तिरछी तलवार हैं, जो सेवा और ज्ञान का प्रतीक हैं। इस पर राष्ट्रीय प्रतीक अशोक धर्म चक्र अवस्थित है। चिह्न पर लिखा है ‘वीरता और विवेक’। वास्तव में यहां से प्रशिक्षित होने वाले अधिकारियों में दोनों ही गुणों का समावेश रहता है।
शौर्य से परिपूर्ण है इतिहास
इसका इतिहास शौर्य से परिपूर्ण है। यहां प्रशिक्षित सैन्य अधिकारी, जिन्होंने देश-विदेश में यश अर्जित किया, उनमें कुछ सर्वोपरि इस प्रकार हैं – लेफ्टिनेंट जनरल पी.एस.भगत, मेजर सोमनाथ शर्मा, कैप्टन जी.एस. सलारिया, सैकेण्ड लेफ्टिनेंट अरूण खेत्रपाल, मेजर होशियार सिंह, कैप्टन विक्रम बत्रा, लेफ्टिनेंट जनरल सरताज सिंह और लेफ्टिनेंट मनोज कुमार पाण्डे आदि ने उत्कृष्ट वीरता एवं त्याग का प्रदर्शन कर अपना नाम स्वर्णाक्षरों में अंकित करवाया। अकादमी ने स्वतंत्रता से पूर्व एक विक्टोरिया क्रास, एक जार्ज क्रास, एक जार्ज मेडल तथा 73 मिलिट्री क्रास प्राप्त किये। स्वतंत्रता के उपरान्त अकादमी को मिले 551 अलंकरणों में से 12 अशोक चक्र, 2 सर्वोत्तम युद्ध सेवा मेडल, 84 महावीर चक्र, 37 कीर्ति चक्र और 25 उत्तम युद्ध सेवा मेडल हैं।
इस अकादमी का प्रभारी प्राचार्य कमाण्डेण्ट होता है, जिसका पद लेफ्टिनेंट जनरल का होता है। इसके नीचे उप कमाण्डेण्ट, उपप्रभारी मुख्य प्रशिक्षक होता है, जिसका पद मेजर जनरल का होता है। इसके अधीन प्रशासन, प्रशिक्षण, एकेडमिक तथा सामान्य विभाग होते हैं। प्रत्येक विभाग का प्रभारी ब्रिगेडियर स्तर का होता है, जिसके अधीनस्थ लेटिनेंट कर्नल, मेजर और कैप्टन होते है। इनके अतिरिक्त एड्जूटेंट, जिसे दण्डपालक कहा जाता है, ड्रिल व अनुशासन का दायित्व इसके ऊपर होता है। दण्डपालक मेजर या लेफ्टिनेंट कर्नल होता है।
महत्वपूर्ण घटनाक्रम
-25 नवम्बर 1937 को तत्कालीन सेनाध्यक्ष सर राबर्ट ए. कैसेल्स ने वर्तमान पुस्तकालय भवन का शिलान्यास किया।
-द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान अकादमी में 1000 से भी अधिक कैडेटों की व्यवस्था के लिए अस्थायी भवनों का निर्माण और अतिरिक्त प्रशिक्षण के लिए प्रबन्ध किये गये।
-आरम्भ में अकादमी में मात्र 200 कैडेटों के लिए व्यवस्था थी। मात्र 40 कैडेट प्रत्येक छ:माह में पास आउट होते थे। द्वितीय विश्वयुद्ध के आरम्भ होने तक अकादमी से 321 कैडेट कमीशन ले चुके थे।
-द्वितीय विश्वयुद्ध के समय 710 ब्रिटिश अधिकारियों के साथ-साथ 4278 भारतीय अधिकारियों ने भी कमीशन प्राप्त किया।
-ब्रिगेडियर ठाकुर महादेव सिंह 1947 में अकादमी के प्रथम भारतीय कमाण्डेण्ट बने।
-9 नवम्बर सन् 1948 को प्रथम भारतीय गवर्नर जनरल सी. राजगोपालाचारी ने व 9 दिसम्बर 1948 की तत्कालीन प्रधानमंत्री पण्डित जवाहर लाल नेहरू ने प्रथम विश्वविद्यालय कोर्स से परेड की सलामी ली।
-जनवरी 1948 में चौथा रेगुलर कोर्स प्रारम्भ हुआ और यह स्वतंत्र भारत का प्रथम प्रशिक्षित कोर्स था।
-1963 में यहां के कमाण्डेण्ट का पद बढ़ाकर मेजर जनरल कर दिया गया। मेजर जनरल एस.सी. पण्डित, वीर चक्र ने इसकी कमान सम्भाली।
-1974 में भारतीय सैन्य अकादमी में प्रवेश के लिए योग्यता स्नातक कर दी गयी और प्रशिक्षण की अवधि दो वर्ष से घटाकर डेढ़ वर्ष कर दी गयी।
-1980 में कमाण्डेण्ट का ओहदा बढ़ाकर लेफ्टिनेंट जनरल कर दिया गया। लेफ्टिनेंट जनरल एस. थामस ने दिसम्बर 1980 तक इस पद पर प्रथम कमाण्डेण्ट के रूप में कार्य किया।


लेखक का परिचय
लेखक देवकी नंदन पांडे जाने माने इतिहासकार हैं। वह देहरादून में टैगोर कालोनी में रहते हैं। उनकी इतिहास से संबंधित जानकारी की करीब 17 किताबें प्रकाशित हो चुकी हैं। मूल रूप से कुमाऊं के निवासी पांडे लंबे समय से देहरादून में रह रहे हैं।

Website | + posts

लोकसाक्ष्य पोर्टल पाठकों के सहयोग से चलाया जा रहा है। इसमें लेख, रचनाएं आमंत्रित हैं। शर्त है कि आपकी भेजी सामग्री पहले किसी सोशल मीडिया में न लगी हो। आप विज्ञापन व अन्य आर्थिक सहयोग भी कर सकते हैं।
वाट्सएप नंबर-9412055165
मेल आईडी-bhanubangwal@gmail.com
भानु बंगवाल, देहरादून, उत्तराखंड।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

You cannot copy content of this page