देहरादून की चकराता रोड का जानिए इतिहास, यहां बगीचे की जमीन को किसने किया आबाद
गढ़वाल राज्य के तत्कालीन शासक सुदर्शन शाह द्वारा अंग्रेजों को देहरादून सुपुर्द कर दिये जाने के उपरान्त देहरादून में चहुंमुखी विकास की प्रक्रिया आरम्भ हुई। सन् 1873 में तत्कालीन सुपरिन्टेन्डेंट ऑफ दून एच. जी. रॉस ने चकराता में सैन्य छावनी बनाने के उद्देश्य से सहारनपुर-चकराता मार्ग का निर्माण करवाया। सन् 1900 में जब देहरादून, रेलवे लाइन से जोड़ दिया गया तो सेना देहरादून तक तो पहुंचने लगी, लेकिन चकराता जाने के लिये कोई मोटर मार्ग उपलब्ध न होने के कारण देहरादून-रामपुर मंडी सड़क निर्मित की गई। वही सड़क 38 किलोमीटर की दूरी पर हरबर्टपुर के समीप सहारनपुर-चकराता मार्ग को काटती हुई आगे बढ़ती थी।
इस तरह देशरादून से चकराता का मार्ग यातायात हेतु सुगम हो गया। उस समय रामपुर मण्डी यमुना नदी के किनारे एक व्यवसायिक केन्द्र के रूप में विकसित थी। यहीं से नाव द्वारा व्यवसायिक सामान, पंजाब प्रांत को आयात-निर्यात होते थे। घंटाघर चौक से रामपुर मण्डी तक पहुंचने वाली सड़क लम्बे समय तक रामपुर मंडी रोड कहलाई। बाद में जब इसी सड़क के माध्यम से चकराता की और आवाजाही बढ़ी तो यही सड़क सरकारी दस्तावेजों में चकराता रोड से नामांकित की गयी।
सुनसान सड़क के दोनों ओर थे बगीचे
सन् 1932 में गोयल फोटो कम्पनी, क्राउन एण्ड कम्पनी, विश्वम्भर दत्त चन्दोला की प्रिंटिंग प्रेस, एक्या-सोल्जर्स मोटर ट्रांसपोर्ट कम्पनी का बुकिंग कार्यालग चकराता रोड में व्यवस्थित हो चुके थे। उससे आगे आबादी न के बराबर थी। एक सुनसान सड़क और उसके दोनों ओर आम, लीची के मीलों लम्बे बाग थे। चकराता रोड़ को आरम्भिक दिनों में जीवन प्राण देने का श्रेय मंसाराम बैंक के स्वामी को जाता है।
आबाद करने श्रेय लाला मंसा राम को
सन् 1944 मैं मंसा राम बैंक के स्वामी ने चकराता रोड पर एक कालोनी बनाने के उद्देश्य से भूमि खरीदनाी आरम्भ की। उस समय नगर का प्रतिष्ठित बैंक मंसा राम एण्ड सन्स चरमोत्कर्ष पर था। लाला मंसा राम ने सर्वप्रथम अपने पुत्र महावीर प्रसाद व पौत्रों के नाम से 27 बीमा भूमि कलकत्ता के राजा टैगोर परिवार के पुष्पेंद्र नाथ, प्रमाशतेंद्र व प्रणवनाथ से खरीदी। इतनी भूमि कालोनी निर्माण के लिए काफी न थी अत: पट्टेदार रामचंद्र से 7.90 बीघा लीज भूमि व स्वर्गीय पंडित महन्त ओम प्रकाश के पुत्र सुरेन्द्र प्रकाश व जयप्रकाश से 32 बीघा नौ बिस्वा भूमि खरीद कर कुल 58 बीघा भूमि पर कालोनी का निर्माण आरम्भ कराया। साथ ही इस कालोनी का नाम कनाट प्लेस रखा।
ऐसे विकसित होता गया कनाट प्लेस
इस कालोनी को समस्त नागरिक सुविधायें उपलब्ध कराने के साथ-साथ चकराता रोड की दिशा में सीमा दर्शाती दीवार पर विद्युत स्तम्भ भी इस तरह निर्मित किये गये कि रात्रि को एक जगमगाते शहर का आभास हो। कालोनी को नागरिकों की मूलभूत आवश्यकताओं को साथ जोड़ते हुए मनोरंजन के लिये हालीबुड और अमृत दो सिनेमाघर, सेन्ट्रल बैंक ऑफ इण्डिया के साथ 94 दुकाने, पोस्ट ऑफिस, 48 आवासीय लैट, दो विशाल बंगले, गैराज और 49 गोदाम भी निर्मित किये गाये। मंसा राम बैंक एण्ड सन्स द्वारा कालोनी के निर्माण से जनता में प्रतिष्ठा और विश्वास कायम हुआ।
अत: उत्साही बैंक स्वामियों ने सड़क के दूसरी ओर भी इसी तरह का व्यवसायिक एवं आवासीय प्रतिष्ठान बनाने का बीड़ा उठाया। 1947 में सम्पन्नता का दूसरा द्योतक भी लगभग बनने की पूर्ण तयारी में था। नगर की आबादी का घनत्व इतना अधिक न था कि इस निर्माणाधीन प्रतिष्ठान में भी पूंजी लगायी जा सके। परिणामत: बैंक स्वामियों ने नगरवासियों को तरह-तरह छूट के साथ आकर्षित करना आरम्भ किया।
फर्नीचर के प्रमुख व्यवसायी आर.आर. कोहली जो लाहौर से आकर राजपुर रोड पर अपना व्यवसाय चला रहे थे, से मंसाराम के परिवार के सदस्यों ने सम्पर्क कर एक वर्ष तक किराया न लेने की इच्छा जाहिर करते हुये दुकान व घर इस निर्माणाधीन बहुमंजिला इमारत में आवंटित किया। साथ ही उन्हें यह भी छूट दी कि वे दुकान व मकान का डिजाइन अपनी सुविधानुसार बनवाने के निर्देश दे सकते हैं। यही कारण है कि न्यू कोहली फर्नीचर मार्ट व हिन्द स्टोर्स ऐसे व्यवसायिक प्रतिष्ठान है जो सम्पूर्ण कालोनी में पूर्णतया भिन्नता लिए हुए हैं।
बिकती रही संपत्ति, बदले गए सिनेमाघरों के नाम
मंसा राम बैंक एण्ड सम्स ने चकराता रोड की दोनों दिशा में कालोनी तो विकसित कर दी, परन्तु भवनों के खाली रहने व बैंक लगातार घाटे में जाने लगा। इस पर बैंक स्वामियों ने 24 अप्रैल 1952 को यंग रोड पर रहने वाले नेपाल सरकार के अवकाश प्राप्त प्रधानमंत्री कर्नल शमशेर बहादुर जंग राणा की धर्मपत्नी महारानी गम्भीर कुमारी को 14 लाख 15 हजार में सिनेमा क्षेत्र वाली कालोनी बेच दी। कालान्तर में रानी गम्भीर कुमारी ने इस सम्पत्ति को सेठ बाल गोपाल दास को बेच दिया। किरायेदारों से किराया कम व समय में न मिल पाने के कारण बाल गोपाल दास ने काबिज किराएदारों को ही सस्ते मूल्यों पर सम्पत्ति हस्तान्तरित कर दी। धीरे धीरे सिनेमागृहों के स्वामियों के साथ-साथ नाम भी परिवर्तित कर नटराज व कैपरी रख दिये गये।
सड़क की दक्षिण दिशा में बनी कालोनी के लगातार खाली पड़े रहने के कारण 1953 में भारत इंश्योरेंस को मात्र 5 लाख 75 हजार में बेच दिया गया। 1960 में यही इमारत भारतीय जीवन बीमा निगम के अस्तित्व में आने पर निगम को हस्तांतरित कर दी गयी। चकराता रोड जो कभी आम-लीची व अमरूदों के बाग बगीचों से घिरा एक जंगल का स्वरूप देता था, अब उन फलों के बाग-बगीचों का स्थान यमुना कालोनी, दीपलोक कालोनी, विजय पार्क कालोनी, आशीर्वाद एन्क्लेव, बसंत विहार, एफ.आर.आई. व दून स्कूल की घनी बस्तियों ने ले लिया है।
क्लेमेन्टटाउन
देहरादून मुख्यालय से 11 किलोमीटर के अन्तराल पर बसा एक सुव्यवस्थित नगर है। आज से 60 वर्ष पहले यह कुछ अवकाश प्राप्त ब्रिटिश व एंग्लोइण्डियन रेलवे अधिकारियों की आवास स्थली थी। 1936 में इटली निवासी पादरी कादर क्लेमेन्ट ने एक सहकारी समिति के अन्तर्गत भूमि खरीदकर अंग्रेज व एंग्लो इण्डियन्स को बड़े बड़े प्लाटों के रूप में बेची। फादर क्लेमेन्ट का इसके पीछे यह प्रयास था कि सभ्रान्त लोगों की आवासीय कालोनी विकसित हो सके। इसमें उन्हें सफलता भी प्राप्त हुई। परिणामत: कालोनी का नाम भी इसके संस्थापक के नाम पर क्लेमेन्ट टाउन रखा गया।
द्वितीय विश्व युद्ध की घोषणा के समय ब्रिटिश सरकार ने कालोनी वासियों से निवेदन कर उनके आवासीय भवन व भूमि को किराये में अपने नियन्त्रण में लेकर यहां इटली के युद्ध बन्दियों को रखने की व्यवस्था की। ब्रिटिश सरकार ने आवासीय भवनों को लेते समय विश्वास दिलाया था कि युद्ध बन्दियों के जाने के उपरान्त भवन व भूमि वापिस कर दी जायेगी, परन्तु ऐसा न हो सका। परिणामत: कई कालोनीवासियों ने अपने आवासीय गृह व भूमि सरकार को ही बेचकर वापिस अपनी मातृ भूमि में ही जाना उचित समझा। बाद में यहां नेशनल डिफेन्स एकेडमी के जूनियर विंग की स्थापना कर दो गयी। आज क्लेमेन्ट टाउन कई शिक्षण संस्थाओं, तिब्बती कालोनी, एयर फोर्स के प्रशिक्षण शिविर, हिमालयन ड्रग कम्पनी व सैन्य क्षेत्र के रूप में पूर्णतया विकसित हो चुका है।
ठेकेदार के नाम पर पड़ा प्रेमनगर का नाम
प्रेमनाथ ठेकेदार द्वारा प्रिजनर कैम्प व रेलवे ट्रेनिंग सेन्टर का निर्माण कार्य सम्पन्न किया गया था अतः उसी के नाम पर इस क्षेत्र का नाम प्रेमनगर पड़ा। इण्डियन मिलिट्री एकेडमी (आई.एम.ए.) व द्वितीय विश्व युद्ध के समय जर्मन और इटली के युद्ध बंदियों को रखने के लिए बैरकों के निर्माण ने इस घने वनाच्छादित क्षेत्र को एक छोटे शहर में परिवर्तित कर दिया। विश्व युद्ध समाप्ति के उपरान्त रिक्त युद्ध बन्दी शिविरों को आवासीय स्वरूप देकर पाकिस्तान से आये शरणार्थियों को आवास के लिए आवंटित कर दिये गये। आज यह एक सघन बस्ती वाला शहर है।
लेखक का परिचय
लेखक देवकी नंदन पांडे जाने माने इतिहासकार हैं। वह देहरादून में टैगोर कालोनी में रहते हैं। उनकी इतिहास से संबंधित जानकारी की करीब 17 किताबें प्रकाशित हो चुकी हैं। मूल रूप से कुमाऊं के निवासी पांडे लंबे समय से देहरादून में रह रहे हैं।
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भानु बंगवाल, देहरादून, उत्तराखंड।