कुम्भ का इतिहास व वर्तमान स्वरूप, जानिए पौराणिक रोचक कहानियांः डॉ. मुनिराम सकलानी

उत्तराखंड प्राचीन काल से ही धार्मिक एवं आध्यात्मिक साधना का केन्द्र रहा है। यहां पवित्र तीर्थ स्थलों के अवस्थित होने के कारण इसे देवताओं की भूमि अर्थात देवभूमि भी कहा जाता है। देवभूमि उत्तराखंड में कई धार्मिक मेले व त्योहार मनाये जाते हैं, लेकिन परन्तु विश्व प्रसिद्ध कुम्भ मेला/अर्द्ध कुम्भ मेला उत्तराखंड के द्वार हरिद्वार में प्रति बारहवें या छटे वर्ष के अन्तराल में मनाया जाता है।
कुंभ का अर्थ
कुम्भ का शाब्दिक अर्थ घड़ा अथवा कलश होता है। हमारे ज्योतिष शास्त्र में कुम्भ का संबंध राशि से है। इसलिए कुम्भ पर्व में ज्योतिष शास्त्रीय अर्थ ग्रहण किया जाता है। इसके अतिरिक्त कुम्भ शब्द का कई व्यापक सन्दभों में भी अर्थ ग्रहण किया जाता है। हमारी प्राचीन संस्कृति में कुम्भ मंगल, शुभ, सूकुन और सौन्दर्य का प्रतीक है। कुम्भ महापर्व में धार्मिक कुम्भ या घट पात्र का स्मरण किया जाता है। वह ही अमृत सुधा कलश है। लोक श्रुति के अनुसार कलश के मुख में भगवान विष्णु, कण्ठ में शंकर जी तथा नीचे के हिस्से में भगवान ब्रह्मा जी का निवास है। इसके साथ ही कलश के मध्य हिस्सें में हमारे देवी-देवताओं और समस्त पर्वत, समुद्र, पृथ्वी और चारों वेद समाहित है।
ये है पौराणिक कथा
हमारे वैदिक काल में इसी अमृत कलश की प्राप्ती की लिए देवताओं और दानवों में एक महासंग्राम हुआ था। इस महासंग्राम में ब्रह्मा, विष्णु, महेश, इन्द्र आदि देवताओं तथा दानवों ने वासूकि नामक महानाग की रस्सी और मेरू पर्वत की मथनी बनाकर समुद्र का मंथन किया।
ये भी है एक कथा
विष्णु पुराण एवं पद्म पुराण के अनुसार समुन्द्र मंथन में से पहले एक कथा बडी रुचिपूर्ण है। कहा जाता है कि एक बार दुर्वासा ऋषि धरती के विभिन्न स्थलों का भम्रण करने निकले। उन्होंने एक विद्याधारी को एक बगीचे में एक पारिजात फूलों की माला धारण किये हुए देखा और फूलों की मधुर सुगन्ध से आकृर्षित होकर ऋषि ने वह फूलों की माला विद्याधारी से विनती कर मांग ली। ऋषि दुर्वासा ने हर्षित होकर वह फूलों की माला अपने गले पर डाल दी और आनन्द विभोर होकर इधर-उधर विचरण करने लगे।
रास्ते में उन्होंने देवराज इन्द्र को यात्रा करते देखा जो अपने कई भक्तों के साथ ऐरावत हाथी पर सवार होकर अपने दिव्य सिहांसन पर विराजमान हुये। देवराज इन्द्र की नजर जैसे ही ऋषि दुर्वासा की ओर पड़ी। उन्होंने हाथी को रोका और उन्हें आदर सहित प्रणाम किया। उसके बाद दुर्वासा ने वह दिव्य फूलों की माला देवराज इन्द्र को स्नेहपूर्वक भेंट की और देवराज इन्द्र ने वह फूलों की माला ग्रहण कर ली। उन्होंने वह फूलों की माला अपने मातलि नाम के सारथी को दे दी। उनके सारथी ने वह दिव्य माला ऐरावत हाथी के सिर पर डाल दी।
ऐरावत हाथी ने वह पुष्पों की माला सूंघी और अपने पैरों से कुचल दी। इस पर महर्षि दुर्वासा बहुत क्रोधित हुए और उन्होंने देवराज इन्द्र से कहा कि देवराज इन्द्र तुमने इस दिव्य पुष्प की माला को इस तरह फेंक कर मेरा अनादर किया है। तुम नही जानते हो कि मैं कौन हूं ? भगवान शिव की तीसरी आंख की तरह प्रलयकारी व उग्र मेरे रूप से तीनों लोकों के लोग मेरे भय से कांपतें है। अरे ! मूर्ख तुने मुझे उतेजित किया। तू इस पद के वैभव को भोगने के लायक नहीं है। तूने एक तपस्वी ब्राह्म्ण का अपमान किया है। तू इसी क्षण श्रीविहिन हो जा।
यह सुनकर देवराज इन्द्र ऋशि दुर्वासा से क्षमायाचना करने लगे। ऋषि ने कहा कि इन्द्र तुम्हारी यह क्षमा याचना करना, रोना, स्तुति करना व्यर्थ हैं। मैं दुर्वासा ऋषि हूं। मेरे दिल में दया और क्षमा नामक कोई वस्तु नहीं है। मेरा दिया गया श्राप व्यर्थ नहीं जायेगा और दुर्वासा पुनः अपने रास्ते पर चलने लगे। इस श्राप से देवरात इन्द्र उसी समय श्रीविहिन हो गये। यह घटना सुनकर असुरों ने देवलोक पर हमला कर दिया तब देवतागण त्राहि -त्राहि करते हुए ब्रहमलोक में पहुचें और उन्होंने इस संबंध में ब्रहमाजी से परामर्श किया। ब्रहमाजी के नेत्त्व में ही क्षीर सागर के तट पर भगवान श्रीमन नारायण जी के पास गये तथा उनकी खूब स्तुति करने लगे।
देवताओं की बातों से अभिभूत होकर भगवान श्रीमननारायण ने देवताओं को समुन्द्र मंथन की सलाह दी। जिसमें सुमेरू पर्वत की मथनी और वासूकि नाग को रस्सी बनाने का सुझाव दिया। भगवाननारायण ने कहा कि समुन्द्र मंथन से ही भगवती श्रीदेवी अवतरित होंगी। जिससे देवलोक पुनः श्री सम्पन्न हो जायेगा। उन्होंने सुझाव दिया कि समुद्र मंथन में असुरों को भी साथ लिया जाय। क्योंकि यह कार्य अकेले देवतागण नहीं कर सकेंगे। उन्हें समुद्र मंथन में प्राप्त चीजों में बराबर का हिस्सा उन्हें दिऐ जाने का प्रलोभन दिया जाय।
यह प्रस्ताव लेकर देवतागण दानवों के पास गये। असुर समुन्द्र में अमृत पीकर अमर हो जाने का लोभ संवरण नहीं कर पाये और उन्होंने देवताओं के प्रस्ताव को मान लिया और वे मिलकर सुमेरू पर्वत की मथानी और वासुकी नाग की रस्सी बनाकर समुद्र मंथन करने लगे। समुद्र मंथन में कुल चौदह रत्न निकले। पुराणों में कहा जाता है कि जब भगवान धन्वतरि अमृत का घडा लेकर बाहर आये तो देवताओं और दैत्यों में अमृत पान करने के लिए इस संग्राम की स्थिति भांपते हुए भगवान विष्णु मोहनी का रूप धारण कर दानवों को भ्रम में डालकर देवताओं को पंक्तिबद्ध अमृत पान कराने लगे। इसी बीच एक दैत्य अपना रूप बदलकर देवताओं के बीच बैठ गया। भगवान विष्णु ने उस दैत्य को पहचान लिया और उन्होंने उसका सिर काट दिया।
कुछ पुराणों में यह भी वृतान्त मिलता कि अमृत कलश को दैत्यों से बचाने के लिए इन्द्र के पुत्र जयंत ने कलश का हरण कर लिया और वह वहां से भाग गया। इस पर देवता और दैत्य जयंत का पीछा करने के लिए भागे। जयन्त कौवे का रूप धारण कर स्वर्ग की ओर उडा। अमृत पान की लालसा में जो छीना-झपटी हुई उससे अमृत कलश से कुछ बूंदे छलक कर पृथ्वी में प्रयाग की त्रिवेणी, हरिद्वार में गंगा, नासिक में गोदावरी और उज्जैन में क्षिप्रा नदी में गिरी।
इसलिए 12 वर्ष में मनाया जाता है कुंभ पर्व
महाकुम्भ का पर्व देवताओं और दैत्यों में अमृत प्राप्ति के लिए 12 दिन तक चले घोर संगाम के परिणाम स्वरूप ही 12 वर्ष में कुम्भ का पर्व पृथ्वी में पडता है। यह मान्यता है कि देवताओं का एक दिन मानव के एक वर्श के बराबर होता है और कुम्भों की संख्या भी 12 ही होती है। इनमें से चार कुम्भ पृथ्वी में पडते हैं और शेष आठ कुम्भ देवलोक में हाते हैं। कुम्भ पर्व में तीन मुख्य स्नान पर्व होते हैं। कहा जाता है कि सूर्य, बृहस्पति और पवित्र कलश को बचाने के लिऐ विषेश प्रयास किए। सूर्य भगवान ने कुम्भ को फूटने से बचाया, बृहस्पति जी ने कुम्भ को लूटने से बचाया तथा चन्द्रमा ने छलकने से बचाया। इसलिए जब भी सूर्य, बृहस्पति और चन्द्रमा का योग बनता है इन पावन तीर्थो में कुम्भ का भव्य आयोजन किया जाता हैं।
इस बार 11 साल में है कुंभ
ज्यातिष एवं मीमांसा शास्त्रों के अनुसार जब सूर्य मेश राषी में तथा बृहस्पति कुम्भ राशि में प्रवेश करते हैं उस शुभ घडी में हरिद्वार में कुम्भ का योग होता हैं। हरिद्वार में कुम्भ प्रति बारह वर्ष में लगता है और अर्द्धकुम्भ छटे वर्ष में केवल हरिद्वार और प्रयाग में आयोजित होता है। परन्तु वर्ष 2021 में कुछ ऐसा संयोग पड़ रहा है कि हरिद्वार में इस वर्श 11 वर्ष में ही इस महाकुम्भ का आयोजन हो रहा है। हरिद्वार में हर की पैडी का विषिश्ट महत्व है। इसे ब्रह्मकुण्ड भी कहा जाता है। मान्यता है कि समुद्र मंथन के पश्चात हर की पैडी में अमृत कलष से कुछ पवित्र बूदें छलकी। तभी से हर की पैडी में 6 वर्ष में अर्द्ध कुम्भ और 12 वर्श में पूर्ण कुम्भ का आयोजन होता है।
कई ऐतिहासिक प्रमाण हैं मौजूद
कुम्भों के आयोजन के बारे में कई ऐतिहासिक प्रमाण मौजूद हैं। प्रयाग में आयोजित होने वाले कुम्भ का जिक्र प्रथम बार 3464 ईषा पूर्व मिलता है। कहा जाता है कि हड़प्पा और मोहनजादड़ों की सभ्यता से भी एक हजार ई पूर्व माघ के महिने में अमावस्या के पावन दिन संत लोग कुम्भ संयोग में स्नान करने के लिए एकत्रित हुआ करते थे। यह भी उल्लेख मिलता है कि 2382 ईसा पूर्व विष्वमित्र द्वितीय ने माघ पूर्णिमा के दिन संगम तट पर स्नान का महातम्य स्थापित किया है। यह सिन्धु घाटी की सभ्यता के विकास के दिनों की बात हैं।
स्नान का धार्मिक महत्व
कुम्भ स्नान का बहुत धार्मिक महत्व है। कहा जाता है कि सहस्त्रों अश्वमेध यज्ञों, हजारों वाजपेय यज्ञों और पृथ्वी की लाखों परिक्रमा करने से जो लाभ प्राप्त होता है उतना ही पुण्य लाभ कुम्भ में स्नान करने से होता है। इसलिए सम्पूर्ण भारत की धर्म परायण जनता हजारों वर्शो से कुम्भ में स्नान करने के लिये तीर्थस्थलों में उमडती हैं।
कई महामारियों का किया सामना
आज के कुम्भ मेलों को वर्तमान स्वरूप में पहुंचने के लिए सैकडों वर् लग गये और इसे इस वर्तमान स्वरूप में आने के लिए कई संघर्षों से गुजरना पडा। वर्ष 1844, 1855, 1866 एवं 1891 में इसे कई महामारियों के बीच से गुजरना पड़ा। इस वर्ष हरिद्वार कुम्भ को कोराना जैसी विश्व व्यापी महामारी के दौर से गुजरना पड रहा है। जिसका सफल आयोजन करना एक चुनौतीपूर्ण कार्य है।
इन हाथों में रही व्यवस्था
हरिद्वार में कुम्भ मेले के संदर्भ में एक ऐतिहासिक तथ्य के अनुसार प्रारम्भ में कुम्भ स्थल की व्यवस्था में दशनामियों का वर्चस्व रहा। उसके बाद भक्तिकाल के उन्नयन के दौरान वैरागियों ने उसमें भाग लिया। कुछ समय बाद जब दोनों पक्षों में टकराव आया तो तीसरे पक्ष ने उसमें भाग लिया। अब महाकुम्भ का शुभारम्भ बावन फुटी धर्म ध्वजाओं की स्थापना से की जाती है। तत्पश्चात विभिन्न अखाड़े कुम्भ क्षेत्र में आगमन करते हैं। कुम्भ की परम्पराओं के अनुसार दशनामी सन्यासियों को सबसे पहले कुम्भ में स्नान करने का अधिकार है। जिनके सात अखाडे हैं।
जगतगुरु शंकराचार्य का अहम योगदान
जगतगुरु शंकराचार्य का भारतीय संस्कृति और सभ्यता के उन्नयन में एक महत्वपूर्ण स्थान है। कुम्भ का वर्तमान स्वरूप उन्हीं की सतत साधना का प्रतिफल हैं। उन्होंने ही हिन्दू धर्म और संस्कृति के विकास के लिए भारत के चारों दिशाओं में कई धामों व मठों की स्थापना की। जगतगुरु शंकराचार्य जी के द्वारा स्थापित धर्म ध्वजा का भी धार्मिक महत्व है। जिसके चार खूंटे होते हैं। कुम्भ में भव्य जुलूस हरिद्वार के मुख्य-मुख्य मार्गो से निकलता है। इसमें विभिन्न प्रकार के साधु-सन्यासी भाग लेते हैं। जिसमें सबसे अधिक संख्या नागा बाबाओं की होती है। जो अलग-अलग प्रकार के करतब दिखाकर अपनी शक्ति और भक्ति का प्रदर्षन करते हैं।
देवताओं और दानवों के संघर्ष का प्रतिफल
कुम्भ पर्व देवता और दानवों की दो विचारधाराओं, दो संस्कृतियों के संघर्ष की स्थति का प्रतिफल है। इसके परिणाम स्वरूप नश्वरता पर ईश्वरता तथा भौतिकता पर आध्यायत्मिकता की विजय है। भारतीय जन मानस कुम्भ की इसी स्मृति को अपने मानसपटल पर संजोये हुये पतित पावनी गंगा के अमृत जल में डुबकी लगाकर अपने को धन्य मानता है। कुम्भ पर्व देश के विभिन्न भाषा-भाषियों, विभिन्न संस्कृतियों तथा विभिन्न प्रांन्तों के जन-मानस को एक साथ जोडकर विभिन्नता में एकता का संदेश उद्घाटित कर देश की राष्ट्रीय एकता को मजबूत करता है। जिससे सभी भारतवासी एक दूसरे से भावनात्मक रूप से एक दूसरे से जुडते हैं।
लेखक का परिचय
डॉ. मुनिराम सकलानी, मुनींद्र। पूर्व निदेशक राजभाषा विभाग (आयकर)। पूर्व सचिव डा. पीताम्बर दत्त बड़थ्वाल हिंदी अकादमी,उत्तराखंड। अध्यक्ष उत्तराखंड शोध संस्थान। लेखक, पत्रकार,कवि एवम भाषाविद। निवास : किशननगर, देहरादून, उत्तराखंड।
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भानु बंगवाल, देहरादून, उत्तराखंड।