महाभारतकालीन पात्रों की आत्माओं का आह्वान करते हैं यहां के लोग, होती है उनकी पूजा, जानिए यहां के मेले और पर्व
उत्तराखंड में उत्तरकाशी जिला सांस्कृतिक और धार्मिक दृष्टि से भी काफी समृद्ध है। यहां चार धामों में से दो धाम गंगोत्री व यमुनोत्री हैं, वहीं यहां देवी देवताओं के बहुतायात मंदिर भी मिल जाएंगे। यहां ज्यादातर देवता महाभारतकालीन पात्र हैं। इनकी आत्माओं का आह्वान मेलों और पर्व के मौकों पर किया जाता है। इसी तरह की रोचक जानकारी यहां आपको बता रहे हैं।
माध का मेला
उत्तरकाशी नगर में प्रत्येक वर्ष माघ मेला या उत्तरकाशी का मेला बहुत ही धूमधाम से मनाया जाता है। जो पूरे एक सप्ताह तक चलता है। इस मेले में एक सप्ताह तक दिन और रात को अनेक तरह के रंगारंग एवं शिक्षाप्रद कार्यक्रम होते हैं। यह मेला उत्तरकाशी के रामलीला मैदान में आयोजित किया जाता है।
देवताओं की आत्माओं का आह्वान
इस मेले की मुख्य विशेषता अपने अपने देवी देवताओं की पूजा करना है। जो कि एक अनोखा तरीका है। ग्रामवासी अपने देवताओं की डोली उठाकर यहाँ लाते हैं और गंगा स्नान करते हैं। यहाँ के देवी-देवता, मुख्य रूप से प्रतिभा सम्पन्न पितृ आत्मायें और महाभारतकालीन पात्र हैं। पाण्डव इस जनपद में सर्वाधिक लोकप्रिय एवं पूज्य हैं। प्रत्येक गांव में पाण्डवों के कुछ असीम भक्त मिल जाते हैं। वे अपने ऊपर द्रौपदी, भीम, अर्जुन, नकुल और सहदेव की अपर सहदेव की आत्माओं का आह्वान कर न्याय और अनेक भविष्यवाणियां करते है।
पांडव और कौरवों दोनों के हैं मंदिर
इसी तरह से महाभारत के नायक दुर्योधन को जखोलग्राम के निवासी अपना इष्ट देवता मानते है। देवराग्राम का इष्ट देवता कर्ण है, साथ में शल्य देवता की भी पूजा की जाती है। अन्य ग्रामों में जैसे बड़ेती में मटिया देवता, थराली में हमेरू और नागराजा, नैटवाड़ में पोखू देवता की पूजा की जाती है। सभी देवी-देवताओं की पूजा का अपना एक नियमित समय है, लेकिन कर्ण, दुर्योधन और पोखू को तो रोज ही गाजे-बाजे के साथ भोग देने की प्रथा प्रचलित है। इस जनपद में पाण्डव और
कौरव दोनों के मंदिर हैं।

नहीं आती किसी पर युधिष्ठिर की आत्मा
इन सबमें महत्त्वपूर्ण पहलू यह है कि युधिष्ठिर की आत्मा किसी पर नहीं आती है। शेष चार पाण्डवों एवं द्रौपदी की आत्माएँ आती हैं। अर्जुन की आत्मा जिस व्यक्ति पर आती है, वह उस समय अर्जुन की तरह धनुर्धारी तथा भीम की आत्मा का आह्वान करने वाला व्यक्ति भीम की तरह गदाधारी बन जाता है। वह लोहे की गदा से अपने ऊपर जोर से अनेक प्रहार करता है और अत्याधिक मात्रा में भोजन भी करता है। जो सामान्य स्थिति में सम्भव नहीं है। इन्हीं कारणों से स्थानीय लोग इन देवी-देवताओं एवं उन व्यक्तियों में, जिनमें पाण्डवों की आत्मा वास करती है, बहुत श्रद्धा रखते हैं।
मेले के आकर्षक
मेले में अन्य कार्यक्रमों के अतिरिक्त रानीचौरी स्थित पन्त कृषि एवं प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय के पर्वतीय परिसर द्वारा प्रदर्शनी लगायी जाती है। इसमें फसलों की किस्में, उनको उगाने की विधि, उनकी पैदावार, खादों की जानकारी एवं किसानों की समस्याओं का निराकरण भी किया जाता है। दूसरा आकर्षण का केन्द्र नेहरू पर्वतारोहण संस्थान का स्टाल होता है। इस संस्थान द्वारा पर्वतारोहण से सम्बन्धित सभी प्रकार के उपकरणों, कपड़ों को प्रदर्शित किया जाता है। अन्य जानकारी के लिए पर्वतारोहण अभियानों के व प्रमुख पर्वत शिखरों के फोटो भी प्रदर्शित किये जाते हैं। मेले के समापन के दिन भारत तिब्बत सीमा पुलिस के जवानों द्वारा दिखाये जाने वाला जूडो शो अत्यन्त आकर्षक होता है। इस प्रकार मेले की प्रसिद्धि एवं उपयोगिता निरंतर प्रगति पथ पर अग्रसरित है।
देवलांग पर्व
यमुना नदी के रवाँई-जौनपुर में महाभारत काल की कई परम्परायें देखने को मिलती है। जनपद उत्तरकाशी के नौगाँव पट्टी ठकराल में देवलांग नाम से एक पर्व प्रत्येक वर्ष मनाया जाता है। यहाँ स्थित गंगाटाडी में महासू देवता के सबसे छोटे भाई रघुनाथ जी के मंदिर के आंगन में प्राचीनकाल से ही पट्टी ठकराल के गंगाटाडी, कोटी, बखरोटी, मसाल व पटांगणी गाँव के लोगों द्वारा देवलांग (देवदार का वृक्ष) पर मशाल बाँधकर इस पर्व को मनाने की प्रथा चली आ रही है।
लांग शब्द का तात्पर्य लम्बाई से व देव का देवता को लेकर माना जाता है। कुछ लोगों की धारणा है कि देवलांग, ज्योतिलिंग का ही प्रतिरूप है। इस पर्व हेतु देवदार के विशालकाय वृक्ष को काटा जाता है, जिसे काटने का अधिकार केवल मसेटा (स्थानीय मिस्त्री) को होता है। वृक्ष, इस पर्व के लिए वही उपयुक्त होता है, जिसका ऊपरी हिस्सा टूटा हुआ न हो । देवदार के इस वृक्ष में चोटी से लेकर जड़ तक विषम घेरे बनाये जाते हैं।
इसमें किस नाम से कौन सा घेरा होता है, उसे मसेटा लोग ही जानते हैं। मेले के शुभारम्भ में, चीड़ के छिलकों की रस्सी कैंचीनुमा बनाकर देवलांग को खड़ा करते हैं। नजदीकी गाँव के लोगों द्वारा ओला मशाल बनाकर देवलांग पर आग लगायी जाती है। इसकी रोशनी में देवलांग का पूजन किया जाता है। जिसमें आसपास के समस्त गाँव भाग लेते हैं। देवलांग के जलते ही ऐसा विश्वास किया जाता है कि जैसे पूरे क्षेत्र की बुराई जलकर राख हो गई है।
महासू देवता गंगहाड़ी के देवस्थल में देवता का रूप यहाँ के पंडितों पर उतरता है। पूजा के समय मंदिर क्षेत्र में ही महासू की डोली भी उठती है। उस समय ताल और लय पर पाण्डव नृत्य भी होता है। यहाँ स्थित मंदिर उत्कृष्ट कलाकृति व प्राचीन वास्तुकला का एक अद्भुत नमूना है। पैगोडा आकार के मंदिर में छ: फुट मोटे व पच्चीस फुट लम्बे देवदार के शहतीरे जोड़े गये हैं। इसका छत्र भी देवदार की लकड़ी से ही निर्मित है।
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लेखक का परिचय
लेखक देवकी नंदन पांडे जाने माने इतिहासकार हैं। वह देहरादून में टैगोर कालोनी में रहते हैं। उनकी इतिहास से संबंधित जानकारी की करीब 17 किताबें प्रकाशित हो चुकी हैं। मूल रूप से कुमाऊं के निवासी पांडे लंबे समय से देहरादून में रह रहे हैं।
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भानु बंगवाल, देहरादून, उत्तराखंड।