आइए जानते हैं मसूरी के दर्शनीय स्थलों के बारे में, कब्रिस्तान में दफन हैं इनकी यादें, पहाड़ी लिए है ऊंट का आकार
पहाड़ों की रानी मसूरी को जहां देहरादून के माथे का ताज माना जाता है, वहीं, मसूरी का मौसम और वहां की मनोरम छटा हर एक को मंत्रमुग्ध कर देती है। मसूरी के चारों तरफ दर्शनीय स्थल हैं। जो हमेशा पर्यटकों की पसंद रहते हैं।आइए हम यहां मसूरी के पर्यटक स्थलों के बारे में बताते हैं।
कैंप्टीफाल
मसूरी-चकराता मार्ग पर मसूरी से तेरह किलोमीटर की दूरी पर स्थित यह प्राकृतिक दृश्यों से भरपूर जल प्रपात है। यह जल प्रपात 600 फीट की ऊँचाई से फव्वारे के रूप में गिरता है। मसूरी में आने वाले पर्यटकों के लिए यह एक आकर्षण का केन्द्र है। मई-जून की तपिश देती गरमी में प्रकृति की यह अनुपम सौगात राहत प्रदान करती है।
भट्टा फाल
मसूरी-देहरादून मार्ग पर भट्टा गाँव के निकट मोटर मार्ग से पैदल मात्र एक किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। भट्टा गाँव से नीचे पर्वतीय घाटी में यह झरना अत्यन्त मनोरम एवं प्राकृतिक सौन्दर्य से ओत-प्रोत है। दूध के समान बहता हुआ शीतल जल और सौम्य वातावरण बरबस ही पर्यटकों का मन मोह लेता है। इस प्रपात के जल स्त्रोतों पर सन् 1996 में केन्द्रीय मृदा एवं जल संरक्षण विभाग द्वारा विशेष शोध किया गया। इस शोध से यहाँ पर गन्धक युक्त पानी होने की पुष्टि की गयी।
वैज्ञानिक विश्लेषण की जाँच के आधार पर इस पानी के सेवन से आँतों के समस्त रोग, गठिया, वायु विकार व त्वचा के रोगों पर चिकित्सकीय प्रभाव छोड़ने की बात स्वीकार की गयी है। भट्टा फाल से गलोगी पावर हाउस के लिए जल की आपूर्ति भी की जाती है। इस पावर हाउस से आरम्भ में 450 किलोवाट तक विद्युत्त शक्ति उत्पादित की जाती थी, जो अब रख-रखाव के अभाव में घटकर मात्र 150 किलोवाट रह गयी है।
कम्पनी गार्डन
विश्व विख्यात भू-वैज्ञानिक डा0 एच.फाल्कनर द्वारा स्थापित किया गया बॉटनिकल गार्डन सन् 1842 में सुंदर उद्यान और वृक्षों की प्रयोगशाला में परिवर्तित हो चुका था। ईस्ट इंडिया कम्पनी के भू-वैज्ञानिक फाल्कनर द्वारा स्थापित करने के कारण बाद में इसे कम्पनी गार्डन का नाम दिया गया। यह स्थान मसूरी से पाँच किलोमीटर की पूरी पर है। यहाँ तक पैदल,कार, साइकिल रिक्शा व घोड़ा आदि से पहुँचा जा सकता है। यह एक आदर्श पर्यटन स्थल है।
लालटिब्बा
मसूरी का सबसे ऊँचा पर्यटन स्थल होने के कारण यह समुद्र तट से 7425 फीट की ऊँचाई पर स्थित है। यह लंढौर छावनी क्षेत्र के अन्तर्गत आता है। यहाँ से सम्पूर्ण मसूरी, देहरादून, टिहरी गढ़वाल व गगनचुम्बी हिमालय की हिमाच्छादित चोटियों के मनोहारी दृश्य दिखायी देते हैं। यहाँ पर टेलीविजन टावर भी है, जो देश-विदेश के टेलीविजन कार्यक्रमों को हमारे घरों तक पहुँचाता है।
पार्क एस्टेट
मसूरी से दस किलोमीटर दूर, हाथी पाँव के समीप 200 एकड़ क्षेत्रफल में फैला पार्क एस्टेट, भारत के प्रथम महासर्वेक्षक जॉर्ज एवरेस्ट के आवास व कार्यशाला के रूप में एक लम्बे अन्तराल तक चर्चा के रूप में रहा था। सन् 1832 में जार्ज एवरेस्ट पार्क एस्टेट में आये और मध्य हिमालय के पाँच सौ वृहत चाप लाये। 1836 में उन्होंने उस काल की चोटी संख्या 15 की ऊँचाई मापी। यह चोटी उस समय सागर माथा’ ‘गौरीशंकर’ के नाम से जानी जाती थी।
जार्ज एवरेस्ट की मृत्यु के पश्चात् कर्नल एण्ड्यू वॉ और उनके सहयोगी कर्नल हेनरी लुथियार ने इस चोटी संख्या 15 की ऊंचाई नापी। यह चोटी उस समय सागर माथा गौरीशंकर के नाम से जानी जाती थी। जार्ज एवरेस्ट की मृत्यु के पश्चात कर्नल एंड्रयू वॉ और उनके सहयोगी कर्नल हेनरी लुथियार ने इस चोटी का नामकरण जॉर्ज एवरेस्ट के नाम पर किया। परिणामतः सम्पूर्ण दुनियाँ ने चोटी को एवरेस्ट के नाम से जाना और पहचाना।
झड़ी पानी
ब्रिटिश कालीन पैदल मार्ग जो राजपुर से मसूरी पहुँचता है उसी के मध्य में स्थित है झड़ी पानी। सन् 1826 से लेकर 1930 तक मसूरी व समीपस्थ टिहरी रियासत के गाँवों तक पहुँचने का यही एक मार्ग था। उस काल में प्रतिदिन एक सौ खच्चर व नेपाली मजदूर इस मार्ग से सामान व यात्रियों को लाने व ले जाने का कार्य किया करते थे। ब्रिटिश अधिकारी ही एकमात्र घोड़ों पर बैठकर आते थे। उन दिनों झड़ीपानी में बड़ी चहल-पहल रहती थी। एक रूपये का 17 सैर आटा, 25 पैसे किलो चीनी, एक रूपये में चार भेली गुड़ जो वजन में लगभग प्रति भेली ढाई किलो की होती थी। मासिक आमदनी प्रति मजदूर तीन रूपये से छ: रूपये तक होती थी।
ऐसे पड़ा झड़ीपानी नाम
यहाँ का नाम झड़ीपानी इसलिए पड़ा कि ओकग्रोव स्कूल द्वार के समीप एक विशाल वृक्ष की जड़ों से पानी का स्त्रोत बहता था, जिसे जड़ी पानी कहते थे। जो धीरे-धीरे साधारण बोलचाल में झड़ी पानी में बदल गया। झड़ी पानी में भरा-पूरा बाजार था, होटल था। यह होटल प्राय: अंग्रेजों के लिए आरक्षित रहता था। सन् 1971 में यह होटल आग की भेंट चढ़ गया। आज झड़ी पानी अगर प्रचलित है तो रेलवे के ओकग्रोव स्कूल के कारण।
मॉंसीफाल
मसूरी से 3-2 किलोमीटर के अन्तर पर बार्लोगंज के मरी विला क्षेत्र में जल प्रपातों का समूह माँसी फाल कहलाता है। पर्यटकों के लिए यह एक आकर्षक पिकनिक स्पाट है। ब्रिटिश काल में देहरादून शहर के लिए पीने के पानी का प्रबन्ध इसी मॉसी फाल से किया गया था।
धनोल्टी
रमणीक स्थल धनोल्टी, मसूरी-चम्बा मार्ग पर लगभग 4 किलोमीटर की दूरी पर स्थित, पर्वतों की वास्तविक गरिमा की परिचायक है। धनोल्टी में जहाँ एक और सुन्दर सौढ़ीनुमा लहलहाते खेतों को देखकर आनन्द प्राप्त होता है, वहीं दूसरी ओर हिमाच्छादित पर्वत श्रृंखलाओं का भी स्पष्ट दृश्यावलोकन होता है। यह स्थान फलों के सुन्दर बाग-बगीचों और सघन देवदार के सुन्दर पेड़ों से घिरा होने के कारण अत्यन्त मनोहारी प्रतीत होता है।
धनोल्टी से लगभग दस किलोमीटर आगे कद्खाल नामक स्थान है, जहाँ एक ऊँची चोटी पर सुरकण्डा देवी का मन्दिर है। समुद्र तल से दस हजार फीट की ऊँचाई पर स्थित इस सुरम्य मन्दिर के प्रांगण से उत्तर-पूर्व की ओर बदरी केदार, यमुनोत्री गंगोत्री, तुंगनाथ, दृश्यों का अवलोकन किया जा सकता है। यह स्थल जहां एक ओर दर्शनीय एवं रमणीय है, वहीं दूसरी ओर धर्मिक दृष्टि से सिद्ध पीठ के रूप में भी ख्याति प्राप्त है।
भदराज मन्दिर
देहरादून के पूर्वोत्तर छोर पर शिवालिक पर्वत श्रृंखला में सबसे ऊँचे शिखर पर भदराज मन्दिर स्थित है। इसकी समुद्रतल से ऊँचाई 7400 फीट है। मसूरी से लगभग 18 किलोमीटर तथा देहरादून से टीक उत्तर दिशा में किलोमीटर का मार्ग तय कर यहाँ पहुँचा जा सकता है। यह मन्दिर महाभारतकालीन संस्कृति की जानकारी देता है। इस मन्दिर के नामकरण के बारे में अनेक मत हैं। नाम के अनुसार सम्भव है यहाँ की सुरम्य चोटी पर भारद्वाज नाम के ऋषि का निवास स्थान रहा होगा जो समय चक्र के साथ बाद में अपभ्रंश रूप में भदराज के नाम से प्रचलित हो गया।
प्रकृति की अलौकिक छटा लिए हुए मन्दिर के गर्भगृह में स्थित तीन मूर्तियों में से एक प्रतिमा नागराज की है। जो आयताकार शिलाखंड पर उत्कीर्ण है दूसरी प्रतिमा महर्षि भारद्वाज की प्रतीत होती है। जो पुराणों में महत्वपूर्ण स्थान रखते हैं। योगी भारद्वाज द्वारा अपनी यौगिक क्रियाओं के लिए चयनित इस स्थान का वर्णन केदारखण्ड में मिलता है।
तलहटी में प्रवाहित नदी सुहारणा का नाम सम्मवतः स्वर्ण नदी रहा होगा। यह प्रतिमा योग की पद्भावस्था में है। मुंडा हुआ सिर तथा दाढ़ी-मूंछ विहीन मुख ब्रह्मचर्य व्रत का सूचक है। समाधि की पूर्ण अवस्था पर बनी यह प्रतिमा निश्चय ही उस काल के विकसित योगशास्त्र की प्रतीक है।
मंदिर में तीसरी प्रतिमा पद्मासन लगाये ध्यान मग्न योगी की है, जिसमें योगी के हाथ पद्मासनस्थ पाँवों पर हैं। सिर पर केशराशि का समूह है तथा यह प्रतिमा गहन शान्ति का संदेश देती हुई एक आदर्श ब्रह्मचर्य व्रत की स्थिति दर्शाती है। मुखाकृति व सीधी बनी हुई आकृति मथुरा शैली पर निर्मित गौतम बुद्ध की प्रतिमा से मेल खाती है। यह मंदिर उत्साही पर्वतारोहियों के लिए पर्वतारोहण के स्थान के रूप में विकसित हो रहा है। प्रत्येक वर्ष अगस्त माह में पूर्णिमा के दिन यहाँ मेला आयोजित किया जाता है।
कैमल्स बैक कब्रिस्तान
कैमल्स बैक कब्रिस्तान में मसूरी की प्राकृतिक सुन्दरता से अगाध स्नेह रखने वाले अनेक अंग्रेज व्यवसायी व अधिकारी दफन हैं। इनमें कुछ प्रमुख यहाँ वर्णित हैं। जॉन मैकिनान का नाम मसूरी वासियों के लिए प्रतिष्ठित एवम् परिचित नाम है। मैकिनॉन आयरलैण्ड के एलगिन क्षेत्र में 12 जनवरी सन् 1806 को पैदा हुए थे और लगभग 23 वर्ष की आयु में मसूरी चले आये थे। उनके द्वारा मसूरी के विकास के लिए किये गये कार्यों के कारण ही आधुनिक मसूरी ने स्वरूप धारण किया। मसूरी के समीपवर्ती गाँववासी उनके प्रति विशेष लगाव रखते थे और प्रेम से उन्हें ‘मक्खन साहब’ कहते थे। मसूरी के लिए पूर्णतया समर्पित मैकिनॉन ने सम्पूर्ण जीवन यहीं व्यतीत किया। 29 जून 1970 को उन्होंने यहाँ जीवन की अंतिम सांस ली। आज भी उनकी समाधि पर मसूरी वासियों द्वारा बिखेरे गये स्नेह पुष्प यदा-कदा दिखते हैं।
मसूरी में इनका रहा योगदान
सगौली सन्धि के उपरान्त (सन् 1815) मसूरी बसाने में सर्वाधिक योगदान बंगाल आर्मी इंजीनियरिंग ग्रुप का रहा है। इस ग्रुप के लैटिनेंट कर्नल एच.फिशर मसूरी में निवास करने वाले प्रमुख व्यक्तियों में से एक थे। जब वह मसूरी आये तो बंगाल आर्मी इंजीनियरिंग ग्रुप के कैप्टन थे। मसूरी के लिए उनके द्वारा किये गये विकास कार्य अविस्मरणीय हैं। 12 अगस्त 1859 को उनका यहीं देहान्त हुआ और यहाँ कैमल्स बैक कब्रिस्तान में दफन कर दिए गये। मेजर ई.बिरे, बंगाल आर्मी के वरिष्ठ एवं लोकप्रिय अधिकारी थे। 27 फरवरी 1854 को उनका यहाँ देहांत
हुआ। बंगाल आर्मी के सहायक सर्जन डॉ. एमबी लेम्ब ने अपने अनूठे कौशल एवं योग्यता के आधार पर लाइलाज रोगियों को जीवनदान दिया। चिकित्सा कार्यों की व्यस्तता ने इन्हें कुछ इस तरह रोगग्रस्त किया कि 33 वर्ष की अल्पायु में 21 जून 1860 को स्वर्ग सिधार गये।
विलियम फ्रेडरिक एक ऐसे शिक्षा शास्त्री थे जिन्होंने 1830 के उपरान्त मसूरी व समीपवर्ती गढ़वाल क्षेत्र के गाँवों में सरकारी स्कूल स्थापित करने में भरपूर योगदान दिया था। इन्स्पेक्टर आफ स्कूल्स के पद पर कार्य करते हुए 11 अक्टूबर सन् 1876 को मसूरी में स्वर्ग सिधार गये। प्रेम का प्रतीक है कब्रिस्तान
सर्वप्रथम पहाड़ी नदियों व फलों के बागों को व्यवसायिक रूप में विकसित करने वाले विख्यात शिकारी, टिहरी राज्य की गंगा घाटी में पहाड़ी विल्सन के नाम से प्रसिद्ध फ्रेडरिक विल्सन अपनी पहाड़ी पत्नी गुलाबी के साथ जीवन के अंतिम वर्षों में मसूरी में ही रहे। जब 21 जुलाई 1883 को विल्सन का देहान्त हुआ तो उनकी इच्छानुसार उन्हें उनकी पत्नी को कब्र के समीप ही दफना दिया गया। विल्सन व उनको पत्नी की कब्र सच्चे प्रेम की द्योतक तो है ही साथ ही वह हुआछूत, ऊँच-नीच एवं सकीर्ण मानसिकता से अलग हटकर एक स्मारक का रूप भी है।
जर्मन साहित्यकार एवं दार्शनिक युवा कार्ल बर्न होल्ड हिमालय क्लब के माध्यम से अंग्रेजों को जीवन के उद्देश्य एवं अर्थों से परिचय कराता हुआ 16 अगस्त 1883 को ईश्वर प्रिय हो गया। नार्थ इन्जीनियरिंग के संस्थापक सी.एफ. कोलिन्स का 28 फरवरी 1896 को मसूरी में देहांत हुआ। कोलिन्स के मित्र और बंगाल नेटिव इन्फैन्ट्री के प्रमुख संस्थापक एफ.एच. केनेडी अपने मित्र की मृत्यु को सहन नहीं कर पाये और ठीक तीसरे दिन 2 मार्च 1896 को उनकी भी मृत्यु हो गयी। दोनों गहरे मित्र होने के बाद भी उन दोनों की समाधियाँ एक दूसरे से अन्तर पर निर्मित हैं।
इनकी भी हैं यादें
बंगाल आर्मी के विख्यात सर्जन मेजर चार्ल्स बी०ओ०मेथ्यू 7 सितम्बर 1896 को मसूरी में ही मृत्यु को प्राप्त हुए। मसूरी की धरती एवं घाटियों से अपार स्नेह रखने वाला केए हेजेन्स 13 मई सन् 1896 को इसी शहर में पैदा हुआ तथा 1 अगस्त 1933 को हेजेन्स की मृत्यु भी यहीं हुई। डम्बेरनी स्कूल में कार्यरत स्टेट्म को मसूरी से विशेष लगाव था। द्वितीय विश्व युद्ध के उपरांत जब यह चर्चा फैली कि अंग्रेजों को भारत छोड़ना पड़ सकता है तो वह उदास हो
गया। इस तरह 17 दिसम्बर 1943 को उसे यहीं दफना दिया गया।
समाधियां दिलाती हैं इनकी याद
मसूरी का आज का व्यस्ततम मालरोड, जब कभी बांज के वृक्षों से आच्छादित था, उस समय हेकमन जैसा भव्य होटल बनाने वाला अंग्रेज एस. हेकमन 27 अगस्त 1932 को मसूरी में ही चल बसा। जूनियर हेनरी जेम्स पूर्वी भारतीय रेलवे में सहायक इंजीनियर था। इसने प्रयास कर एक वर्ष के काल में लक्सर तक रेलवे लाइन बिछवायी। मात्र 23 वर्ष की अल्पायु में 2 अक्टूबर 1896 को मसूरी में चल बसा। उत्तर भारत और मसूरी में टेलीग्राफी के लिए कार्य करने वाला चार्ल्स अगस्टम, असिस्टेन्ट सुपरिन्टेन्डेन्ट, टेलीग्राफिक पद से सेवानिवृत्त होकर मसूरी में ही रहा और 22 जून सन् 1898 को इस संसार से विदा ले ली। मार्गेट एलिजाबेथ एक हसीन महिला थी। उस समय के प्रसिद्ध चार्लविल होटल में उसके साथ नृत्य करने को बड़े अंग्रेज
अधिकारी आतुर रहते थे। उसकी बहुत बड़ी मित्र मंडली थी। 29 सितम्बर 1899 को वह सबको निराश कर इस संसार से चल दी। आज भी उसकी समाधि बरबस ही बीते दिनों की याद ताजा कर देती है।
केमल्स बैक रोड
केमल्स बैक रोड जहाँ अपने शान्त वातावरण के लिए पर्यटकों का मन मोहती है वहीं, वहाँ स्थित कब्रिस्तान, चिर निद्रा में सोये अंग्रेजों को आज भी वही वातावरण प्रदान कर रहा है जिसके लिए वे मसूरी आकर बसे थे। इस स्थान की खासियत है कि नीचे जमीन से ऊपर पहाड़ी को देखने से ऊंट की आकृति नजर आती है। इसीलिए इस स्थान को केमल्स बैक रोड कहते हैं।
मसूरी में हिमपात, कभी गिरती थी पांच से सात फीट बर्फ
सन् 1830 में पाँच या छ: फीट बर्फ गिरी। जॉन मैकिनॉन ने सन् 1853 में पॉच फीट से अधिक बर्फ गिरने की सूचना कम्पनी सरकार को दी थी। भारी बर्फ के कारण बार्लोगंज स्थित क्राउन ब्रुअरी में शराब निर्मित के लिए आने वाला अनाज कई दिनों तक पहुँच नहीं पाया। अनाज से लदी बैलगाड़ियाँ राजपुर में ही खड़ी रही। सन् 1905 में मसूरी में पुनः छ: फीट हिमपात हुआ। 10 जनवरी सन् 1945 को मसूरी में शताब्दी का भयंकरतम हिमपात हुआ। यह हिमपात 7.8 फीट रिकार्ड किया गया।
इस हिमपात से सम्पूर्ण क्षेत्र में भारी नुकसान हुआ। स्वतंत्रता के उपरांत सन् 1962 में 4-5 फीट बर्फ गिरी, जिस कारण कई दिनों तक बिजली-पानी की आपूर्ति नहीं हो सकी। परिणामत: मसूरी निवासियों ने बर्फ गलाकर खाना बनाने एवं पीने के लिए पानी प्राप्त किया। 1980 से पूर्व मसूरी में दो फीट से अधिक हिमपात होता था। 1982 के मार्च माह में इसकी पुनरावृत्ति हुई और डेढ़ फीट हिमपात दर्ज किया गया। वर्षों बाद सन् 1994-95 में अच्छे हिमपात से मसूरी वासियों में एक आशा बँधी कि शायद भविष्य में फिर 1853 जैसे हिमपात की पुनरावृत्ति हो सकेगी।
लेखक का परिचय
लेखक देवकी नंदन पांडे जाने माने इतिहासकार हैं। वह देहरादून में टैगोर कालोनी में रहते हैं। उनकी इतिहास से संबंधित जानकारी की करीब 17 किताबें प्रकाशित हो चुकी हैं। मूल रूप से कुमाऊं के निवासी पांडे लंबे समय से देहरादून में रह रहे हैं।