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December 12, 2024

जानिए देहरादून स्थित वन अनुसंधान संस्थान के बारे में, क्या है इतिहास व वर्तमान स्थिति

विश्व का वानिकी ज्ञान-विज्ञान जिसका अव्यक्त मूल है, डॉ. डी. ब्रान्डिस का पुण्य संकल्प जिसका बीज है। अनेक यशस्वी वन-विशेषज्ञ प्राचार्य जिसके स्कन्ध हैं तथा तप और मेधा से संयुक्त ज्ञानार्थी छात्र जिसके पर्ण हैं। ऐसा देहरादून स्थित वन अनुसंधान संस्थान है। यह वन शोध संस्थान रूपी महान वृक्ष इस समय पूर्ण समूह के साथ दिदिगन्त को व्याप्त करके स्थित है।
भारत में अंग्रेजी नौ सेना और रेलों आदि की आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए वनों का वैज्ञानिक तथा उचित प्रबन्ध आवश्यक है। इस तथ्य को सन् 1855 में तत्कालीन वायसराय लार्ड डलहौजी ने अनुभव कर लिया था। उसी वर्ष उन्होंने एक ज्ञापन जारी कर डा. डी. ब्रान्डिस को भारत का प्रथम वन महानिरीक्षक नियुक्त किया। वन अधिकारियों और कर्मचारियों की पूर्ति के लिए सर्वप्रथम फ्रांस और जर्मनी तथा बाद में इंग्लैण्ड में प्रशिक्षण देना आरम्भ किया गया।
हिमालय श्रृंखला की तलहटी में स्थित देहरादून में सन् 1878 में वानिकी में प्रशिक्षित करने के लिए रेंजर्स कॉलेज की स्थापना की गई। 1884 में केन्द्र सरकार ने इसे अपने हाथों में लेकर इसका नाम ‘इम्पीरियल पारेस्ट स्कूल’ रख दिया। 1906 में जब इस विद्यालय में छ: अनुसंधान विभाग जोड़े गये तब इसका नामकरण ‘सीरियल-फारेस्ट रिसर्च इन्स्टीट्यूट एण्ड कालेज’ पड़ा और इसके सर्वेसर्वा की संज्ञा ‘प्रेसीडेंट’ हुई।
ऐसे हुआ भवन का निर्माण
सात एकड़ का प्लिंथ क्षेत्रफल और तीन सौ पचास गज लम्बाई वाले वर्तमान भव्य भवन का अभिकल्प सी.जी. ब्लोमफील्ड ने तैयार किया। विशाल भवन का निर्माण सरदार रन्जीत सिंह के तत्वावधान में किया गया। निर्माण कार्य अपने नियत समय से पूर्व मात्र सात वर्ष में तथा नब्बे लाख की लागत से पूर्णता को प्राप्त हुआ। इस भवन में प्रयोगशाला तथा कार्यालय तिरसठ हजार वर्ग फीट में तथा विशाल म्यूजियम छब्बीस हजार वर्ग फीट में निर्मित किये गये। 7 नवम्बर 1929 को भारत को तत्कालीन वायसराय लार्ड इर्विन ने भवन का उद्घाटन किया।


ग्रीक-रोमन और पूर्वी देशों की तर्ज पर हुआ भवन निर्माण
ग्रीक-रोमन और पूर्वी देशों को भवन निर्माण कला पर आधारित, यह भवन एशिया में निर्माण कला में अपनी विशेषता रखता है। 2.5 हेक्टेयर में निर्मित भवन 210 ‘पिलर’ व ‘आर्च’ पर आधारित है। इसकी ईंटें सोलर पद्धति से पकाकर तैयार की गई है। यही कारण है कि उन पर आज तक अम्लीय वर्षा का प्रभाव भी दृष्टिगत नहीं होता।
द्वितीय महायुद्ध काल में इसकी उपयोगिता का पुनः मूल्यांकन कर क्रमश: 1950,1953, और 1957 में कुछ और शाखायें जोड़ी गई। इस समय वन अनुसंधान संस्थान एवं महाविद्यालयों के अन्तर्गत चार महाविद्यालय और उन्नीस अनुसंधान केन्द्र कार्यरत हैं। संस्थान का कार्य मुख्यत: चार निदेशालयों- वन शिक्षा निदेशालय, जैविकीय अनुसंधान निदेशालय, वानिकी अनुसंधान और वनोपज अनुसंधान निदेशालय में विभाजित है।
वन सेवा के अधिकारियों को दिया जाता है प्रशिक्षण
देहरादून स्थित भारतीय वन महाविद्यालय (अब इन्दिरा गांधी फारेस्ट कालेज) का कार्य भारतीय वन सेवा के अधिकारियों को समूचे देश के लिए प्रशिक्षित करना है । 1951 में संयुक्त राष्ट्र के खाद्य एवं कृषि संगठन ने संस्थान को दक्षिण-पूर्व एशिया में वानिकी व तकनीकी प्रशिक्षण के केन्द्र के रूप में मान्यता प्रदान की। कागज के लिए बांस की लुग्दी बनाने की क्रिया विधि खोज निकालने में संस्थान ने स्वतन्त्रता पूर्व काल में कीर्ति अर्जित की। लुग्दी का आयात घटाने तथा देश में कागज के कारखाने स्थापित करने में यह खोज बहुत सहायक सिद्ध हुई। कागज निर्माण के लिए नये कच्चे माल की खोज के प्रयास चलते रहे और विगत वर्षों संस्थान में मिश्रित कठोर काष्ठों से कागज बनाने की प्रक्रिया विकसित की गयी।
कागज प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में वन संस्थान अभ्रक कागज, मक्खन लपेटने का कागज तथा दैनिक उपयोग के पठन-पाठन का कागज जैसे विशिष्ट कागज निर्माण में सफल हुआ। कैरेबियन पाइन (चीड़) और युक्लिप्टिस से लुग्दी बन सकने के गुणों का भी पता लगाया गया। लकड़ी की मांग जिस प्रकार बढ़ रही है उसके अनुपात में केवल सागौन, साल, शीशम और देवदार आदि
पारम्परिक लकड़ियों पर निर्भर रहना सम्भव नहीं है। अत: लगभग 125 प्रकाष्ठों के सामर्थ्य व गुणों का अध्ययन किया गया। दूसरे स्तर के अथवा अपराम्परिक काष्ठों की गुणवत्ता सुधारने या उन्नत करने के लिए अनुसंधान कार्य किया गया। कम गुण वाले काष्ठों को संरचनात्मक कार्यों के लिए उपयोगी बनाया गया। इस तरह भवन निर्माण में सौ से अधिक काष्ठ उपयुक्त सिद्ध किये गये।
विकसित की प्लई बनाने की विधि
संस्थान ने चिप बोर्ड, बुरादे के बोर्ड और प्लाई लकड़ी बनाने की प्रक्रियायें विकसित की हैं। अनेक जड़ी-बूटियों, औषधीय पौधे तथा सुगंध तेलदायी पौधों की खेती करने और सुगंध तेल निकालने की रीतियों पर इस संस्थान में कार्य किया गया है। वन उगाने और भूमि कीटों से उनकी रक्षा करने तथा वनों के संरक्षण की दिशा में चीड़, युक्लिप्टिस और पाम्पुलर लगाने से उल्लेखनीय उपलब्धियां हुई हैं। चीड़ के वृक्ष से लीसा निकालने हेतु विशिष्ट विधियों की खोज कर उन्हें विकसित किया गया। इन विधियों के कारण लीसा निकाले गये वृक्षों को हानि नहीं पहुंचती साथ ही प्राप्त लीसा की मात्रा भी दोगुनी होती है।
वनों की काट-छाँट के लिए ऐसे उन्नत औजारों का विकास किया गया, जिससे काष्ठ की बरबादी बहुत कम होती है और उसको जंगल से बाहर निकालना भी सुविधाजनक होता है। संस्थान के कई केन्द्र देश भर में कार्य कर रहे हैं। वन अनुसंधान संस्थान में इन्दिरा गांधी राष्ट्रीय वन अकादमी के माध्यम से वन अधिकारियों और रेंजरों के प्रशिक्षण की सुविधा भी उपलब्ध है।
1988 में देश में वानिकी सम्बन्धी अनुसंधान कार्यक्रम के पुनर्गठन और भारतीय वानिकी अनुसंधान और शिक्षा परिषद के गठन से प्रशिक्षण और अनुसंधान केन्द्रों को स्वतंत्र दर्जा दिया गया है। परिषद केन्द्रीय पर्यावरण और वन मंत्रालय के अंतर्गत का करती है। दिसम्बर 1991 में विश्वविद्यालय अनुदान आयोग की संस्तुति पर वन अनुसंधान संस्थान की विश्वविद्यालय के समकक्ष मान्यता वाली संस्था (डीम्ड यूनिवर्सिटी) का दर्जा दिया गया।
इस विश्वविद्यालय समान मान्यता वाली संस्था का उद्देश्य वानिकी ओर पर्यावराण से सम्बन्धित विभिन्न विषयों में शिक्षा उपलब्ध कराने के साथ-साथ वानिकी प्रसार कार्यक्रमों के माध्यम से जनता में पर्यावरण और वनों के बारे में जागरूकता बढ़ाना है। संस्थान का शान्त और स्वच्छ वातावरण अनुसंधान करने वालों के लिए अत्यन्त अनुकूल है। संस्थान के तेरह अनुसंधान प्रभाग और संकाय हैं, जिनमें वन परिस्थितिकी और पर्यावरण, वन रोग विज्ञान, वन विभिन्न उत्पादों को ध्यान में रखते हुए अनुसंधान करता है। इसके अनेक अनुसंधान कार्यक्रमों में श्रेष्ठ किस्म के बीज और पौध उत्पादन, सामाजिक वानिकी, औषधीय व सुगन्धित पौधे तथा वनों को बीमारियों और कीड़े-मकोड़ों बचाना आदि सम्मिलित हैं।
प्रयोगशाला और संग्राहलय
संस्थान में प्रयोगशालाओं, कम्प्यूटर व सूचना केन्द्र, पुस्तकालय, हर्बेरियम, नर्सरियों, आर्बोरेटा और प्रशिक्षण व अनुसंधान के लिए पेड़-पौधे उगाने के खेत आदि के रूप में सुविकसित आधारभूत ढांचा विद्यमान है। यहां पांच संग्रहालय भी हैं जिनके नाम हैं – सामाजिक वानिकी संग्रहालय, रोग विज्ञान संग्रहालय, वन विज्ञान संग्रहालय, इमारती लकड़ी संग्रहालय, एन.डब्ल्यू.एफ.पी संग्रहालय और कीट विज्ञान संग्रहालय।


ये हैं पाठ्यक्रम
वर्तमान में वन अनुसंधान संस्थान में दो-दो साल अवधि के तीन एम.एस.सी. पाठ्यक्रम संचालित किये जाते हैं। एम.एससी. वानिकी (अर्थशास्त्र और प्रबन्धन) पाठयक्रम में वन उगाने, वनों की परिस्थितिकी प्रणाली और पर्यावरण संरक्षण, बीमारियां व महामारियां और वन उत्पादों के उपयोग का अध्ययन कराया जाता है। इस पाठ्यक्रम के लिए न्यूनतम शैक्षिक योग्यता वनस्पति विज्ञान, रसायन विज्ञान, भूगर्भ विज्ञान, गणित, भौतिक विज्ञान और जंतु विज्ञान में कम से कम एक विषय के साथ बी.एस.सी., बी.एससी. (एजी) अथवा बी.एस.सी. वानिकी है। एम.एस. सी. काष्ठ विज्ञान और टैक्नोलॉजी पाठयक्रम के अन्तर्गत उद्योगों में लकड़ी के उपयोग के सैद्धान्तिक और व्यवहारिक पहलुओं के साथ-साथ काष्ठ विज्ञान और टैक्नोलॉजी का अध्ययन कराया जाता है। इस पाठ्यक्रम में औद्योगिक संगठन की किसी भी समस्या पर चार माह के भीतर एक लघु शोध प्रबन्ध भी लिखना आवश्यक है। इस पाठ्यक्रम के लिए शैक्षिक योग्यता भौतिक विज्ञान, रसायन विज्ञान और गणित के साथ बी.एस.सी. या वानिकी में बी.एस.सी. डिग्री है।
पर्यावरण प्रबन्धन में एम.एस.सी. पाठ्यक्रम में विद्यार्थियों को पर्यावरण प्रबन्धन के आर्थिक और
परिस्थितिकीय पहलुओं की सैद्धान्तिक और व्यवहारिक जानकारी दी जाती है। इस पाठ्यक्रम में वनस्पति विज्ञान, जंतु विज्ञान व पर्यावरण विषय में से किसी एक विषय के साथ बी.एस.सी. डिग्री या वानिकी अथवा कृषि में स्नातक डिग्री या पर्यावरण विज्ञान में बी.ई. डिग्री वाले छात्रों को प्रवेश दिया जाता है। संस्थान, बागान टैक्नोलॉजी, लुग्दी और कागज टैक्नोलॉजी और जैव विविधता संरक्षण में एक-एक साल अवधि के तीन डिप्लोमा पाठयक्रम भी संचालित करता है। इन पाठयक्रमों में प्रवेश अखिल भारतीय प्रवेश परीक्षा के आधार पर किया जाता है। वनों से सम्बन्धित विषयों में 15 अल्पावधि प्रशिक्षण पाठ्यक्रम भी संचालित किये जाते हैं। डाक्टरेट के लिए अनुसंधान पाठ्यक्रमों के अन्तर्गत संस्थान डीम्ड विश्वविद्यालय और इसके विभिन्न अनुसंधान केन्द्र वनों से सम्बन्धित अनेक क्षेत्रों में पी.एच. डी.डिग्री प्रदान करते हैं।
इसलिए है संस्थान की उपयोगिता
देहरादून नगर शिव के ललाट पर प्रतिष्ठित अर्धचन्द्र की भांति है। अर्ध चन्द्राकार वन अनुसंधान संस्थान, इस तथ्य को प्रतिबिम्बित करते हुए नगर की आधारभूत भावना से जुड़ जाता है। इस महान संस्थान की उपलब्धियों को लेख में बांधा नहीं जा सकता है। अब यह अनुभव किया जाने लगा है कि परिस्थिति और पर्यावरण के लिए वनों की भूमिका अत्यन्त महत्व की है। ऐसी स्थिति में संस्थान की उपयोगिता और भी बढ़ जाती है। आकार और प्रकार दोनों में ही वन अनुसंधान संस्थान की प्रतिष्ठा है। इसका भव्य विशाल भवन विश्व की कुछ गिनी-चुनी इमारतों में है। किसी समय आई.एन.ए. के संस्थापक महान क्रान्तिकारी श्री रास बिहारी बोस इस संस्थान के कर्मचारी थे। अपने वैज्ञानिक उपयोग के साथ ही, देश-विदेश के पर्यटकों के लिए यह सुरूचि व ज्ञान का संगम स्थल है।
दून में अन्य महत्वपू्र्ण संस्थान

डिफेंस इलैक्ट्रोनिक्त एप्लिकेशन लेबोरेट्री, आर्डनेन्स फैक्ट्री, आर्केलोजिकल सर्वे ऑफ इण्डिया (वैज्ञानिक प्रयोगशाला), भारतीय वनस्पति सर्वेक्षण विभाग, भारतीय प्राणी सर्वेक्षण विभाग, यंत्र अनुसंधान एवं विकास संस्थान, एन्थ्रोपोलोजिकल सर्वे ऑफ इण्डिया, केन्द्रीय भूमि जल संरक्षण अनुसंधान और प्रशिक्षण केन्द्र, भारतीय वन्य जीव संस्थान, रेशमकीट पाल केन्द्र, इण्डियन ब्यूरो ऑफ माइन्स, गढ़वाल मंडल विकास निगम आदि।


लेखक का परिचय
लेखक देवकी नंदन पांडे जाने माने इतिहासकार हैं। वह देहरादून में टैगोर कालोनी में रहते हैं। उनकी इतिहास से संबंधित जानकारी की करीब 17 किताबें प्रकाशित हो चुकी हैं। मूल रूप से कुमाऊं के निवासी पांडे लंबे समय से देहरादून में रह रहे हैं।

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भानु बंगवाल, देहरादून, उत्तराखंड।

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