समाज सुधारक और लोक संस्कृति के संवाहक रहे इन्द्रमणि बड़ोनी (24 दिसंबर जन्मदिवस पर विशेष)
आप सभी को उत्तराखंड राज्य लोक संस्कृति दिवस की हार्दिक बधाई ! यह दिवस हमारे राज्य में उत्तराखंड के गाँधी कहलाये जाने वाले स्वर्गीय इन्द्रमणि बड़ोनी के जन्म दिवस के रूप में मनाया जाता है। जिन्होंने उत्तराखण्ड पृथक राज्य आंदोलन का अहिंसात्मक नेतृत्व किया और अलग राज्य के लिए आन्दोलित उत्तराखंडियों को आज दो अभी दो के नारे के साथ अपने करिश्माई व्यक्तित्व से एक सूत्र में बांध कर रखा। इन्द्रमणि बड़ोनी सामाजिक और राजनैतिक जीवन में पदार्पण से पहले गाँवों में आयोजित रामलीलाओं और नाटकों में खूब सक्रिय रहे। अपनी सामाजिक और राजनैतिक प्रतिबद्धताओं के बाद भी उन्होंने रंगमंच से स्वयं को जोड़े रखा। लोक वाद्य, लोक साहित्य, लोक भाषा, लोक शिल्प और लोक संस्कृति के संरक्षण, संवर्द्धन और हस्तान्तरण के लिए वे सदैव प्रयत्नशील रहे। पुराने लोग उनका जिक्र आने पर उनकी दाढ़ी, उनकी आवाज, उनकी सादगी, उनकी फकीरी, लोक भोज्य पदार्थों के प्रति उनकी चाह और लोक पहनावे में उनकी सजीला छवि का वर्णन करते नहीं अघाते। (खबर जारी, अगले पैरे में देखिए)
लोक संस्कृति के प्रति इन्द्रमणि बड़ोनी जी के प्रेम और इस दिशा में उनके द्वारा किए गए बुनियादी और सार्थक प्रयासों को देखते हुए उत्तराखंड सरकार ने उनके जन्म दिवस 24 दिसम्बर को सम्पूर्ण राज्य में उत्तराखण्ड राज्य लोक संस्कृति दिवस के रूप में मनाये जाने की राजाज्ञा जारी की थी। उत्तराखण्ड पृथक राज्य आंदोलन के ध्वजवाहक, पहाड़ पुत्र, उत्तराखंड के गाँधी स्वर्गीय इन्द्रमणि बड़ोनी का जन्म दिवस पूरे राज्य में हर्षोल्लास के साथ उत्तखण्ड राज्य लोक संस्कृति दिवस के रूप में मनाया जाना अत्यधिक हर्ष का विषय है। उत्तराखंड पृथक राज्य आन्दोलन के पुरोधा,स्वर्गीय इन्द्रमणि बड़ोनी जी को उनके 97 वें जन्म दिवस पर हार्दिक श्रद्धाञ्जलि और कोटि- कोटि नमन ! (खबर जारी, अगले पैरे में देखिए)
जीवन परिचय: लोक संस्कृति के प्रति उनका लगाव
स्वर्गीय इन्द्रमणि बड़ोनी का जन्म टिहरी गढ़वाल जिले के अखोड़ी गाँव ( घनसाली ) में 24 दिसम्बर 1925 को हुआ था इनके पिताजी का नाम श्री सुरेशानन्द बड़ोनी तथा माँ का नाम श्रीमती कालू देवी था। यह एक बहुत ही गरीब परिवार था पिता सुरेशानन्द बहुत ही सरल व्यक्ति थे। पुरोहित कार्य करते थे, जो कि उस समय आजीविका का आज के समय जैसा कार्य नहीं था। दक्षिणा में ठीक – ठाक आर्थिक स्थिति वाले यजमान ही उस समय के हिसाब से मात्र चव्वनी ही दे पाते थे अन्न का उत्पादन भी कम था जौ और आलू ही ज्यादा मात्रा में पैदा होते थे। ऐसी स्थिति में बड़े परिवार क़ी आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु उनके पिताजी साल में कुछ समय के लिए रोजगार के लिए नैनीताल जाते थे। (खबर जारी, अगले पैरे में देखिए)
शिक्षा दीक्षा
ऐसी पारिवारिक परिस्थितियों में स्वर्गीय इन्द्रमणि बड़ोनी जी ने कक्षा चार की शिक्षा अपने गाँव अखोड़ी से प्राप्त की तथा मिडिल ( कक्षा 7) उन्होंने रोड धार से उत्तीर्ण की उसके बाद वे आगे की पढाई के लिए टिहरी मसूरी और देहरादून गए।
बचपन
बचपन में इन्होंने अपने साथियों के साथ गाय, भैंस चराने का काम भी खूब किया। पिताजी की जल्दी मौत हो जाने के कारण घर की जिम्मेदारी आ गई। कुछ समय के लिए वे बॉम्बे भी गए। वहाँ से वापस आकर बकरियाँ और भैंस पालकर परिवार चलाया। बहुत मेहनत से अपने दोनों छोटे भाइयों श्री महीधर प्रसाद और श्री मेधनी धर को उच्च शिक्षा दिलाई। (खबर जारी, अगले पैरे में देखिए)
सामाजिक जीवन
अपने गाँव से ही उन्होंने अपने सामाजिक जीवन को विस्तार देना आरम्भ किया, पर्यावरण संरक्षण के लिए उन्होंने गाँव में अपने साथियों की मदद से कार्य किये। उन्होंने जगह जगह स्कूल खोले। उनके द्वारा आरम्भ किये गए स्कूल आज खूब फल – फूल रहे हैं। इनमें से कई विद्यालयों का प्रान्तीयकरण एवं उच्चीकरण भी हो चुका है।
खेल
इनकी खेलों में भी रुचि थी। बॉलीबाल के अच्छे खिलाड़ी थे और गाँव के सभी नौजवानों के साथ बॉलीबाल खेलते थे। क्रिकेट मैच टीवी पर बड़े शौक से देखते थे। (खबर जारी, अगले पैरे में देखिए)
सांस्कृतिक कार्यक्रम नियोजन
श्री इन्द्रमणि बड़ोनी जी रंगमंच के बहुत ही उम्दा कलाकार थे, गाँव में उन्होंने सांस्कृतिक कार्यक्रमों के साथ ही छोटी – छोटी टोलियाँ बनाकर स्वछता अभियान चलाये। अपनी बात को बहुत ही आसानी से सम्प्रेषित करने की कला उनमें थी।
निर्देशन
उनमें निर्देशन क़ी विधा कूट – कूट कर भरी थी। माधो सिंह भंडारी नाटिका का मंचन उन्होंने जगह-जगह किया। साथ ही उनका प्रबन्धन और नियोजन शानदार था. उन्होंने अपने गाँव अखोड़ी के साथ-साथ अन्य गांवों में भी रामलीला का मंचन कराया। (खबर जारी, अगले पैरे में देखिए)
प्रबन्ध
टिहरी प्रदर्शनी मैदान में आयोजित कार्यक्रमों में बड़ोनी जी ने सांस्कृतिक कार्यक्रमों के साथ साथ विभिन प्रकार के स्टाल भी लगवाए। उनके साहित्य, संगीत, सामाजिक जागरूकता से जुड़े इन कार्यक्रमों का फलक बहुत व्यापक रहा।
सामाजिक दायित्व
उन्होंने जगह -जगह स्कूल खोले। उनके द्वारा आरम्भ किये गए स्कूल आज खूब फल फूल रहे हैं …कई विद्यालय प्रान्तीयकृत भी हो चुके हैं। रंगमंच की टीम, नृत्य नाटिका, सांस्कृतिक गतिविधियों से प्राप्त धनराशि को विद्यालयों की मूल जरूरतों एवं मान्यता प्राप्त कराने आदि पर खर्च किया गया। (खबर जारी, अगले पैरे में देखिए)
संगीत साहित्य
वे गीत भी लिखते थे। हारमोनियम और तबला भी बजाते थे। उनका हारमोनियम आज भी उनके घर अखोड़ी में सुरक्षित है। संगीत में उनके गुरु लाहौर से संगीत की शिक्षा प्राप्त जबर सिंह नेगी ( हडियाना हिंदाव टिहरी ) थे। जबर सिंह अखोड़ी में एक माह रहे और अन्य लोगों को भी संगीत की शिक्षा दी।
दिल्ली में गणतंत्र दिवस
इनके जीवन में एक महत्वपूर्ण पड़ाव वह भी आया, जब उन्होंने 1956 में लोकल कलाकारों के साथ दिल्ली में गणतंत्र दिवस से पहले तत्कालीन प्रधान मंत्री नेहरु जी के सामने केदार नृत्य प्रस्तुत किया। इस नृत्य को सरो, चवरा आदि नामों से भी जाना जाता है। यदि आप कभी अखोड़ी जायेंगे तो इस दल के कुछ लोगों से आपकी भेंट हो जायेगी। (खबर जारी, अगले पैरे में देखिए)
राजनीतिक कार्यकाल
इन्द्रमणि बड़ोनी 1956 में जखोली विकासखंड के पहले ब्लॉक प्रमुख बने। इससे पहले वे गाँव के प्रधान थे। 1967 में निर्दलीय प्रत्याशी के तौर पर विजयी होकर देवप्रयाग विधानसभा सीट से उत्तरप्रदेश विधानसभा के सदस्य बने। 1969 में अखिल भारतीय कांग्रेस के चुनाव चिह्न दो बैलों की जोड़ी से वे दूसरी बार इसी सीट से विजयी हुए। तब प्रचार में ” बैल देश कु बड़ू भारी किसान, जोंका कंधो माँ च देश की आन ” ये पंक्तिया गाते थे। 1974 में वे ओल्ड कांग्रेस के प्रत्याशी के रूप में गोविन्द प्रसाद गैरोला जी से चुनाव हार गए। 1977 में एक बार फिर निर्दलीय के रूप में जीतकर तीसरी बार देवप्रयाग सीट से विधान सभा पहुंचे। 1980 में मध्यावधि चुनाव हुए पर वे चुनाव नहीं लड़े। 1989 में ब्रह्मदत्त जी के साथ सांसद का चुनाव वे हार गए थे। (खबर जारी, अगले पैरे में देखिए)
उत्तराखण्ड आन्दोलन
1979 से ही वे उत्तराखंड अलग राज्य निर्माण के लिए सक्रिय हो गए थे। वे पर्वतीय विकास परिषद के उपाध्यक्ष भी रहे। समय- समय पर वे पृथक राज्य के लिए अलख जगाते रहे। 1994 में पौड़ी में उन्होंने आमरण अनशन किया। सरकार की ओर से साम, दाम, भेद के बाद दंड की नीति अपनाते हुए उन्हें मुज्जफरनगर जेल में डाल दिया गया। उसके बाद 2 सितम्बर और 2 अक्टूबर का काला इतिहास आप सभी भली भांति जानते हैं। इस दिन दिल्ली रैली में भाग लेने जा रहे उत्तराखंड आंदोलनकारियों पर मुजफ्फरनगर में पुलिस ने गोलियां चलाई। कई आंदोलनकारी शहीद हुए। (खबर जारी, अगले पैरे में देखिए)
उत्तराखंड के गाँधी
उत्तराखण्ड आन्दोलन के दौरान कई मोड़ आये। इस पूरे आन्दोलन में वे केन्द्रीय भूमिका में रहे। इस आन्दोलन में उनके करिश्माई नेतृत्व, सहज सरल व्यक्तित्व, अटूट लगन, निस्वार्थ भावना, और लोगों से जुड़ने की गजब क्षमता के कारण ही बीबीसी और वाशिंगटन पोस्ट ने उन्हें पर्वतीय गाँधी की संज्ञा दी।
उत्तराखण्ड राज्य
9 नवम्बर 2000 को उत्तराखंड राज्य भारतवर्ष के नक्शे पर अलग राज्य के रूप में अस्तित्व में आया। पहाड़ी जन मानस की पीड़ा को समझने वाला, जन-नायक, इस आन्दोलन का ध्वजवाहक, महान संत, उत्तराखंड राज्य का सपना आँखों में संजोये इससे पहले ही 18 अगस्त 1999 को अपने निवास बिट्ठल आश्रम ऋषिकेश में चिर निंद्रा में सो गया।
“जिन्हें हासिल है तेरा कुर्ब खुशकिस्मत सही लेकिन तेरी हसरत लिए मर जाने वाले और होते हैं।
नाम- गिरीश बडोनी
प्रधानाध्यापक, राआप्रावि खलियाण, ब्लॉक जखोली, जिला रुद्रप्रयाग, उत्तराखंड।
रा०आ०प्रा०वि० खलियाण,
ब्लॉक – जखोली,
जनपद – रुद्रप्रयाग
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भानु बंगवाल, देहरादून, उत्तराखंड।