यहां 12 साल में एक बार मनाया जाता है कंडाली पर्व, महिलाएं करती हैं नेतृत्व

उत्तराखंड के पिथौरागढ़ जिले में चौदांस घाटी अपनी अलग ही पहचान लिए हुए है। यहां औषधीय वनस्पतियां बहुत हैं। साथ ही यहां से कैलाश मानसरोवर यात्रा का रास्ता भी है। यहां के लोग आर्थिक, सामाजिक व सांस्कृतिक रूप से काफी समृद्ध हैं। यहां महिलाओं का सम्मान होता है। यहां का प्रमुख त्योहार कंडाली महोत्सव में भी महिलाएं ही नेतृत्व करती हैं। यहां चौदांस घाटी की ऐसी ही रोचक जानकारी दी जा रही है।
चौदांस घाटी
पिथौरागढ़ जिले की धारचूला तहसील में यह घाटी, काली और धौली नदियों के मध्य स्थित है। इस घाटी में शिव के चौदह अवतार हैं, इसी कारण इस घाट को चौदांस कहते हैं। यहाँ पर न्यवे धारा, शिबू तथा पंचचूली से तीन धारायें निकलती हैं, जो धौली गंगा का रूप लेती है। यहाँ के प्रमुख ग्राम देवता गबीला, छिपुला व हरद्योग हैं। ज्येष्ठ व कार्तिक-भादो माह में तीन बार इनकी पूजा होती है। यहाँ सिर्फ खरीफ की फसल होती है। रबी के समय सम्पूर्ण भूमि बर्फ से ढकी रहती है। इस क्षेत्र की नदियों के किनारे की मिट्टी को धोने से कहीं-कहीं सोना प्राप्त होता है। इस क्षेत्र में ग्रन्द्रायणी आदि औषधि वनस्पतियाँ बहुत होती है। यहीं से कैलाश मानसरोवर का रास्ता भी है। इस घाटी में प्रवेश के लिए विदेशियों को भारत सरकार व पर्यटकों को स्थानीय प्रशासन से अनुमति पत्र लेना आवश्यक है।
12 साल में खिलता है कंडाली का फूल
चौदांस घाटी में प्रत्येक बारह वर्ष में एक विशेष फूल कन्डाली (स्ट्रोबिलेन्थस वालिची) खिलता है। इस फूल के खिलने से सम्पूर्ण घाटी में एक विशेष महक व मधुमक्खियों के गुंजन की ध्वनि सुनायी देने लगती है। जिस तरह बुरांश के खिलने से पहाड़ी घाटियाँ लाल रंग ओढ़ लेती हैं। ठीक उसी तरह कन्डाली के खिलने से घाटी नीलिमा आभा से दमक उठती है।
चौदांस घाटी के निवासियों में चटकीले रंगों के वस्त्रों को पहनने का विशेष प्रचलन है। इन निवासियों की शारीरिक बनावट मंगोलों से अधिक मेल खाती है। इनकी पोशाकों में तिब्बती संस्कृति का प्रभाव झलकता है। कुमाऊँवासियों की तरह ही इनके रीति-रिवाज भी हैं। बीते दिनों में तिब्बत से व्यापार व लेन देन के कारण इनकी गिनती आज भी प्रगतिशील लोगों में होती है।
1962 में भारत-चीन युद्ध के कारण भले ही इनका व्यापार तिब्बतवासियों से बन्द हो गया है, परन्तु आज भी सम्पन्नता इनके मकानों की बनावट में झलकती है। सफल व्यवसायी होने के साथ-साथ प्रदेश व केन्द्र सरकार की सेवाओं में भी यहाँ के निवासी प्रमुख पदों पर विराजमान हैं।
कंडाली त्योहार
उत्तराखंड के कुमाऊं क्षेत्र में मनाए जाने वाले त्योहारों का अपना आकर्षण और आकर्षण है। ऐसे ही एक त्यौहार की बात कर रहे हैं जो पिथौरागढ़ जिले में मनाया जाता है। यह त्यौहार अगस्त और अक्टूबर के महीनों के बीच आता है और कांगडाली संयंत्र के खिलने के साथ-साथ हर 12 साल में चंडास घाटी में मनाया जाता है। जो लोग इस शुभ त्योहार के लिए सबसे अधिक आशा रखते हैं, वे पिथौरागढ़ जिले के रूंग आदिवासी हैं। यह स्थानीय उत्सव पिछली बार 2011 में आयोजित किया गया था, जहाँ जनजातियों ने जोरावर सिंह की सेना की हार का स्मरण किया, जिसने 19 वीं शताब्दी के अंत में इस क्षेत्र पर हमला किया था।
महिलाओं ने घुसपैठियों से किया था मुकाबला
कन्डाली त्यौहार मनाने के पीछे रोचक वृतान्त है। इस त्यौहार का नेतृत्व महिलाएं करती हैं। स्थानीय लोगों के अनुसार चौदांस घाटी में एक बार उस समय बाहरी घुसपैठियों ने आक्रमण किया जब उनका पुरूष वर्ग व्यापार के लिए बाहर गया हुआ था। बहादुर महिलाओं ने घुसपैठियों का डटकर मुकाबला किया। स्वयं को परास्त होता देख आक्रमणकारी पहाड़ में कण्डाली झाड़ियों में छिप गये, परन्तु महिलाओं ने उन्हें वहाँ भी न छोड़ा। तब से महिलाओं के साहस व वीरता का द्योतक कण्डाली उत्सव बन गया है।
ये भी है कथा
दूसरी प्रचलित कथा यह भी है कि एक विधवा, जिसका कि एक ही पुत्र था, कन्डाली की झाड़ियों में उलझकर मृत्यु को प्राप्त हो गया था। तब से घाटी की महिला व पुरूषों ने समाज को कण्डाली झाड़ियों से सचेत रहने के उद्देश्य से उत्सव के रूप में बारह वर्ष में एक बार फूल खिलने पर झाड़ियों को काटना आरम्भ कर दिया।
कण्डाली की झाड़ियाँ जहरीली नहीं होती है। अत: इसकी पत्तियाँ भेड़-बकरियों के लिए चारे के रूप में तथा लकड़ी जलाने के लिए उपयोग में लायी जाती है। जिस वर्ष कन्डाली झाड़ी में फूल खिलते हैं। उसी वर्ष इसका उपयोग जलाने व चारे के रूप में नहीं किया जाता है।
एक सप्ताह तक चलता है त्योहार
बारह वर्ष के अन्तर में खिलने वाली कन्डाली अगस्त से अक्टूबर माह के मध्य तक हो फूल देती है। कन्डाली का यह त्योहार एक सप्ताह तक चलता है तथा सम्पूर्ण घाटी में एक ही तिथि को प्रारम्भ किया जाता है। घाटी के प्रत्येक गाँव में आटे और जौ के मिश्रण से शिवलिंग बनाकर पूजा की जाती है। पूजा के बर्तन चाँदी, कांसा या ताँमा धातु से निर्मित होते हैं। प्रत्येक घर के आँगन के एक कोने को मंदिर का रूप देकर पूजा आरम्भ की जाती है। यहाँ शिवलिंग के अतिरिक्त सभी हिन्दू देवी-देवताओं को पूजा स्थल पर उचित सम्मान दिया जाता है।
पूजा के स्थान को मदिरा, दूध, घी, गो-मूत्र, पानी और चावल से पूजा जाता है, तत्पश्चात् देवताओं का यशोगान किया जाता है तथा चावल आकाश को ओर छिटके जाते हैं। ठीक इसी समय पूजा में सम्मिलित अन्य लोग चाकू को तांबे के बरतन के साथ रगड़कर एक विशेष प्रकार की आवाज भी उत्पन्न करते रहते हैं। यह शायद बुरी आत्माओं को दूर रखने के उद्देश्य से किया जाता है। इस अवसर पर घाटीवासी देवतओं से समृद्धि का निदवेदन करते हैं। पूजा अवसर पर पूरी बिरादरी को अन्नादि का भोजन भी कराया जाता है।
पूजा के उपरान्त सम्पूर्ण ग्रामवासी पारम्परिक वेशभूषा तथा सोने-चांदी के जेवरों को पहन देवभूमि के समक्ष खड़े वृक्ष के चारों ओर एकत्रित होते हैं। हाथ से चुने हुए सफेद कपड़े के टुकड़े को पेड़ से बाँध एक पारम्परिक ध्वज भी वहाँ खड़ा किया जाता है। इस तरह नगाड़े और ढोल को आवाजों के मध्य ग्राम देवता का आह्वान किया जाता है।
सामूहिक नृत्य के नेतृत्व करती हैं महिलाएं
तदुपरान्त पारम्परिक ध्वज को हाथ में उठा, महिलायें समूह का नेतृत्व करती हुई पुरूषों को साथ ले कन्डाली झाड़ियों की दिशा पकड़ती हैं। इस समय महिलाओं के हाथ मे हथकरघे का रील व पुरूषों के हाथ में तलवार व ढाल होती है।
गाँव की वृद्ध महिला व पुरूष को ही नेतृत्व सौंपा जाता है। इस उत्सव रूपी समूह में स्त्री-पुरूष नाचते-गाते कण्डाली फूल को तोड़ने के लिए निकल पड़ते हैं। सामूहिक नाच-गान की प्रतिध्वनि से सम्पूर्ण घाटी गुंजायमान हो जाती है।
कंडाली की झाड़ियों के समीप पहुंचने पर महिला व पुरुष का समूह आक्रमक मुद्रा में आ जाता है। वाद्य यन्त्र भी युद्ध संगीत के सुर में बजने लगते हैं। सर्वप्रथम महिलाएं करघे की रील से झाड़ियों पर टूट पड़ती हैं तत्पश्चात् उनकी सहायता के लिए पुरूष आते हैं और झाड़ी को उखाड़ने में सहायता करते हैं। महिलाएँ युद्ध में विजयी होने के संकेत स्वरूप झाड़ियों को पास के मैदान में एकत्रित कर घुसपैठिए मानव का स्वरूप देती हैं। तदुपरान्त पुरूष तलवार और ढाल का प्रदर्शन करते हुए झाड़ियों से निर्मित पुतले पर आक्रमण कर दुश्मन को धाराशायी करने का स्वांग रचते हैं। विजय की ध्वनि वाद्य यन्त्रों से गूंज उठती है। अब आरम्भ होता है महिलाओं द्वारा आकाश की ओर चावल फेंकने का उपक्रम तथा विजय का यशोगान।
कुरीतियों से दूर, महिलाओं का सम्मान
इस तरह महिलाओं पुरूषों का समूह गाँव लौटने पर एक सभा में परिवर्तित हो जाता है, जिसे एक धूमो-सभा कहते हैं। यहाँ मिठाई, फल व मदिरा वितरित की जाती है। साथ ही लाये गये कण्डाली फूलों से देवताओं का पुनः पूजन आरम्भ होता है। इस प्रकार नृत्य व संगीत, देवताओं की स्मृति में सम्पूर्ण रात्रि तक चलता रहता है।
चौदांस घाटी के निवासी सामाजिक कुरीतियों से दूर रहते हैं। इनके यहाँ पुनर्विवाह, विधवा विवाह मान्य है। दहेज प्रथा को ये लोग मान्यता नहीं देते हैं। महिला को पुरूष से अधिक सम्मान दिया जाना तथा विवाह और मृत्यु पर एक दूसरे की मदद के लिए एकजुट होना, इनके संस्कारों में सम्मिलित है।
ब्यांस (व्यों)
इस पट्टी की सरहद तिब्बत के तकलाखाल से मिली हुई है। इसकी सीमा पर स्थित पर्वत – लिपिधुरा, सिमें लिपीश नामक महादेव का निवास है। ताराधुरा, जिसमें तारकालय शिव हैं। इन पर्वतों के उत्तर दिशा की ओर हरताल, सुहागा व नमक की खानें हैं। यह खाने तिब्बत में है। तारा पर्वत के नीचे काली पानी गाँव है। इस गाँव में श्यामाकुण्ड है, जिससे काली नदी निकलती है। इसी कुंड के किनारे व्यास ऋषि ने तपस्या की थी। इसी कारण इस घाटी का नाम व्यांस पड़ा। व्यांस व दारमा के मध्य ज्योलंका पर्वत है तथा उसके ऊपर लिपुधुरा है। व्यांसी लोगों का विश्वास है कि
जब उनके क्षेत्र में वर्षा नहीं होती, तो वे श्यामा कुंड में सत्तू डाल देते हैं, उस सत्तू को जूठा समझकर, देवता वर्षा कर देते हैं ताकि सत्तू बह जाये।
दारमा
पिथौरागढ़ जिले का सीमावर्ती क्षेत्र है। इसकी सीमा इस प्रकार है – पूर्व की ओर काली गंगा, तिंकर गाँव के पहाड़, पलमजुंग, छम्बागुरूवकाली पानी। तिंकर पर्वत इस क्षेत्रको नेपाल से अलग करता है। दक्षिण में अस्कोटव इलंगगाड़ पश्चिम में इसके जौहार क्षेत्र हैं। उत्तर की ओर न्वे डांडावलिपुडांडा इसे तिब्बत से अलग करते हैं। दारमा में एक ही स्थान से दो धारायें निकलती हैं। एक धारा में गरम व दूसरे में ठंडा जल, पर्यटकों को विशेष रूप से लुभाता है। देश की सीमा के समीप होने से दारमा में प्रवेश के लिए प्रशासन से अनुमति पत्र लेना अनिवार्य है।
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लेखक का परिचय
लेखक देवकी नंदन पांडे जाने माने इतिहासकार हैं। वह देहरादून में टैगोर कालोनी में रहते हैं। उनकी इतिहास से संबंधित जानकारी की करीब 17 किताबें प्रकाशित हो चुकी हैं। मूल रूप से कुमाऊं के निवासी पांडे लंबे समय से देहरादून में रह रहे हैं।
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भानु बंगवाल, देहरादून, उत्तराखंड।