अलविदा 2021, 2022 का स्वागत, अब नहीं रही वो बात, जमाना बदलने से पहले खुद बदलो-व्यंग्य
बीते साल को अलविदा और नए साल का स्वागत। पिछली दुख भरी बातों को भूलकर नई उमंग व तरंग के साथ नए साल का हर दिन बिताने का संकल्प। कुछ नया करने, कुछ नया जानने, कुछ नया दिखाने का प्रयास।
हर साल हम कहते हैं कि इस साल कुछ ज्यादा ही हो रहा है। पिछली बातों से नई बातों की तुलना करते हैं। चाहे वह कोई भी गतिविधि हो। मौसम का मिजाज हो, या किसी व्यक्ति विशेष की आदत हो। पिछली बातों से नई की तुलना करना व्यक्ति की आदत है। हम यह देखते हैं कि नए साल का स्वागत जैसे हो रहा है, वैसे पहले कभी नहीं देखा गया। रात को दारू पीने के बाद सड़क पर हुड़दंग मचाते युवक व युवतियां। मोटे पेट वालों के घर में पार्टियां, जिसमें बाप-बेटा साथ-साथ बैठकर पैग चढ़ा रहे हैं। कुछ ऐसे ही अंदाज में नए साल का स्वागत किया जाने लगा है। यदि मैं फ्लैशबैक में जाऊं तो पहले भी नए साल का स्वागत होता था। दारू पीने वाले शायद पीते होंगे, लेकिन उनका किसी को पता नहीं चलता था।
देहरादून की राजपुर रोड पर राष्ट्रीय दृष्टिबाधितार्थ संस्थान में मेरा बचपन कटा था। वहां पिताजी नौकरी करते थे। सन 1973 में जब मैं काफी छोटा था, तो उस बार भी 31 दिसंबर के कार्यक्रम का मुझे बेसब्री से इंतजार था। उस जमाने में कर्मचारी पचास पैसे या फिर एक रुपये चंदा एकत्र करते थे। जमा पैसों की रेबड़ी व मूंगफली मंगाई जाती थी। साथ ही चाय बनाने का इंतजाम किया जाता था। कुछ लकड़ी खरीदी जाती। एक छोटे से मैदान में शाम आठ बजे लकड़ी जमा कर अलाव जलाया जाता। उसके चारों तरफ दरी में लोग बैठते।
एक किनारे खुले आसमान के नीचे छोटा सा स्टेज बनता। शायद अब जिसे ओपन स्टेज कहा जाता है। स्थानीय लोग संगीत, नृत्य का आयोजन करते। तबले की धुन, हारमोनियम के सुर के साथ ही मोहल्ले के उभरते कलाकार अपनी कला प्रदर्शित करते। कुछ युवक सलवार व साड़ी पहनकर लड़की बनकर नृत्य करते। इनमें पप्पू नाम के एक कर्मी का डांस तो देखते ही नहीं बनता था। तब सीधे लड़कियों का नृत्य काफी कम ही नजर आता था। लड़कियों को घर की देहरी में ही कैद करके रखा जाता। वे स्कूल भी जाती, लेकिन शायद ही किसी को सार्वजनिक तौर पर नृत्य का मौका मिलता हो। मौका सिर्फ स्कूल के कार्यक्रमों में जरूर मिल जाता था।
शादी के मौके पर ही लड़कियां लेडीज संगीत पर ही डांस करती, वो भी महिलाओं के बीच में। तब लेडीज संगीत के नाम पर दारू पार्टी नहीं होती थी। लेडीज संगीत भी शादी से एक सप्ताह पहले शुरू हो जाता था। कभी दिन में तो कभी शाम को। इसमें मुन्नी नाम की एक दृष्टिहीन महिला का डांस देखने को सब आतुर रहते थे। उसके स्टैप ऐसे थे कि सबको हंसी आती थी। फिर चाहे ढोलक बजाने वाली महिला यो या फिर मंजीरा बजाने वाली। सभी गाना गाने के साथ ठहाके लगाती थीं। जितनी जोर से ढहाके और मुन्नी का उतनी जोर से उछलना कूदना होता था। फिर भी मुन्नी गजब का डांस करती थी। कोई दूर से देख कर ये कह नहीं सकता था कि महिलाओं के गोले के भीतर कमरे में नाचने वाली मुन्नी दृष्टिहीन है।
मुझे 31 दिसंबर का कार्यक्रम काफी अच्छा लगता। फिर समय में बदलाव आया और कुछ लोग ऐसे कार्यक्रम में शराब की रंगत में नजर आने लगे। जो पीते नहीं थे, वे कार्यक्रम में जाने के साथ ही चंदा देने से कतराने लगे। उन्हें लगता कि उनके चंदे की रकम से ही पीने वाले दारू का खर्च उठा रहे हैं। पुराने साल के कार्यक्रम से नए की तुलना होने लगी। कुछ नया न दिखने पर लोग इससे विमुख होने लगे। धीरे-धीरे टेलीविजन ने देहरादून में भी पैंठ बनानी शुरू कर दी। 31 दिसंबर को दूरदर्शन पर फिर वही हंगामा नाम से कार्यक्रम आने लगा और स्थानीय कलाकारों के स्टेज गायब हो गए।
घर में टेलीविजन था नहीं, ऐसे में मैं भी तब दो साल 31 दिसंबर की रात टेलीविजन देखने अपने पिताजी के एक मामाजी यानी मेरे बुडाजी के घर गया। उनका घर हमारे घर से दो किलोमीटर दूर था। सो रात को सोने का कार्यक्रम भी उनके (बुडाजी के) घर होता। ये क्रम तब तक चलता रहा, जब तक मेरे घर में टेलीविजन का गृह प्रवेश नहीं हुआ। अब भी शायद दूरदर्शन में वो पिछले दौर की तरह कार्यक्रम होते होंगे। क्योंकि चैनलों की बाढ़ इतनी ज्यादा है कि दूरदर्शन तो लोगों की सूची से गायब ही है। हां फिर भी इस रात एक बार मैं दूरदर्शन जरूर लगाता हूं। उसके कार्यक्रमों में भी वो बात नहीं रही। हां ये जरूर है कि अक्सर ऐसे कार्यक्रमों में उषा उथुप के गाने सुनने को जरूर मिल जाते हैं और बचपन की याद ताजा हो जाती है।
हर बार 31 दिसंबर की रात को हम नए साल का स्वागत तो अपने-अपने अंदाज से करते हैं, लेकिन हम ऐसा क्यों कर रहे ये हमें पता भी नहीं होता। होना यह चाहिए कि हम नए साल में अपनी एक कमजोरी को छोड़ने का संकल्प लें। तभी हमारे लिए नया साल नई उम्मीदों वाला होगा। पिछले एक साल से तो कोरोना के खौफ ने नए साल का जश्न तक फीका कर रखा है।
वहीं, उत्तराखंड, यूपी सहित पांच राज्यों के चुनाव के चलते इस साल नए साल का जश्न तो नाइट कर्फ्यू की भेंट चढ़ रहा है, लेकिन राजनीतिक दलों की रैलियां जरूर हो रही हैं। गांव गांव और शहर पोस्टरों और होर्डिंग से अट रहे हैं। लोगों के सिर पर टोपियां लगी हैं। एक टोपी दूसरी टोपी की दुश्मन है। हर कोई देश में भ्रष्टाचार उखाड़ने की बात कर रहा है। नफरती भाषण चरम पर हैं। पर रोजगार, गरीबी का मुद्दा हाशिए पर है। आरोप प्रत्यारोप हो रहे हैं। 80 करोड़ जनता कोरोना के बहाने गरीब हो गई है। क्योंकि सरकारी आंकड़ों के मुताबिक 80 करो़ड़ को मुफ्त राशन बांटा जा रहा है। यानी लोगों का जीवन स्तर नीचे गिरा है। हालांकि ये भी रिसर्च होना चाहिए कि मुझ जैसा गरीब जब सरकारी राशन नहीं लेता, तो वह किसे बंट रहा है।
टोपी पहनो या ना पहनों इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। पर, नफरत न फैलाओ। बच्चों को एक डॉक्टर, इंजीनियर बनाने की बजाय उसे हथियार उठाने के लिए मत उकसाओ। क्योंकि खादी पहनने से कोई महात्मा गांधी नहीं बन जाता। भ्रष्टाचार के लिए किसी दूसरे पर लगाम लगाने से पहले खुद में ही बदलाव लाना होगा, कि हम गलत रास्ते पर नहीं चलें। हमें सही व गलत का ज्ञान हो। हमें ही यह तय करना होगा कि क्या सही है या फिर क्या गलत। यदि हम खुद को बदलने का संकल्प लेंगे तो निश्चित ही यह तानाबाना बदलेगा। फिर जमाना बदलने में भी देर नहीं लगेगी।
भानु बंगवाल
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भानु बंगवाल, देहरादून, उत्तराखंड।