डॉ. पुष्पा खण्डूरी की कविता-अलग नहीं तुमसे हूँ मैं

अलग नहीं तुमसे हूँ मैं
दो भले सबको लगें हम,
पर अलग नहीं तुमसे हूँ मैं ।
साज तुम जो भी बजो ,
पर तुम्हारी रागिनी हूँ मैं ॥
कविता हो तुम वेशक हमारी ,
पर उस का भावार्थ हूँ मैं ।
चाँद हो तुम भले गगन के,
पर उसकी चाँदनी हूँ मैं।।
ख्वाब जिन आँखों का हो तुम,
वो जागती आँखें भी मैं ।
धड़कती जो दिल में तुम्हारे ,
वो दिल की धड़कन हूँ मैं ॥
दो भले सबको लगें हम ,
पर अलग नहीं तुमसे हूँ मैं ॥
मूरत हो तुम जिस मंदिर की,
,वहाँ की भक्तिन हूँ मैं ।
पानी हो तुम जिस नदी का,
उसकी बहती रवानगी हूँ मैं ॥
जिस नूर से रोशन हो तुम,
वो पिघलती शमा हूँ मैं ।
मेरी हर पहचान है तुमसे ,
पर तुम्हारा तो वजूद हूँ मैं ॥
दो भले सबको लगें हम,
पर अलग नहीं तुमसे हूँ मैं ॥
मेरी सारी उपलब्धियाँ हो तुम ,
पर तेरी मुश्किलों का हल हूँ मैं ॥
अच्छा समय तेरा ही भले हो,
पर उसका पल – पल हूँ मैं ।
कदम भले ही तेरे हों वो ,
पर उनकी आहट हूँ मैं ॥
शौक भले ही हो तेरा वो,
पर पूरा करता हूँ मैं ॥
वादा भले किया हो तूने,
पर उसको निभाता हूँ मैं ॥
मुकद्दर भले ही तेरा ही हो,
पर उसका सिकन्दर हूँ मैं ।
दो भले सबको लगे हम ,
पर नहीं अलग तुमसे हूँ मैं ॥
कवयित्री का परिचय
डॉ पुष्पा खण्डूरी
डी.लिट, एसोसिएट प्रोफेसर एवं विभागाध्यक्ष हिन्दी विभाग
डीएवी (पीजी ) कालेज देहरादून, उत्तराखंड