गुरु ने दी प्रेरणा, रास्ते से उठाया फेंका लिफाफा, बना डाले कई रिकॉर्ड
क्या आपने कभी सोचा है कि रास्ते में फेंके गया खाली लिफाफा भी किसी को प्रसिद्धि दिला सकता है। ये बात कुछ अटपटी लगे, लेकिन यहां ऐसी ही कहानी बताई जा रही है। ऐसे करने वाले हैं, दिल्ली की दिलशाद कॉलोनी निवासी डॉ. जवाहर इसरानी की। जो मैकेनिक इंजीनियर हैं। नौकरी से सेवानिवृत्त हुए उन्हें बीस साल हो गए। इसके बावजूद उन्होंने अपने गुरु से मिली प्रेरणा को कभी नहीं ठुकराया। उन्हें शोक है, उनका जुनून है और उनकी हॉबी है डाक टिकटों का संग्रहण। अब तक उनके पास भारत और विदेश के करीब 52 हजार से अधिक डाक टिकटों का कलेक्शन है। इसके जरिये वह समाज में विभिन्न विषयों को लेकर जागरूकता अभियान भी चला रहे हैं। चलिए अब उनकी कहानी बताते हैं।
बंटवारे के दौरान पाकिस्तान से आए थे भारत
डॉ. जवाहर ईसरानी बताते हैं कि उनका जन्म पाकिस्तान के लारकाना सिंध में 22 अगस्त 1943 में हुआ। जब वह चार साल के थे तो सन 1947 में बंटवारे के दौरान परिवार भारत आ गया। यहां दिल्ली के पुराने किले में उन्हें रहने के लिए एक टेंट दिया गया। सब कुछ तबाह हो चुका था। परिवार के पास एक भी फूटी कौड़ी नहीं थी। नए सिरे से घर परिवार के लोगों ने जिंदगी की शुरुआत की।

गुरुजी ने दी प्रेरणा और बन गया शोक
वह बताते हैं कि लोधी रोड स्थित सरकारी सिंधी स्कूल में उनकी प्राथमिक शिक्षा हुई। यह स्कूल बाद में बंद हो गया। जब वह पांचवी कक्षा में थे तो उनके शिक्षक डॉ. मोतीलाल जोतवाणी ने बच्चों की हॉबी पूछी। तब तक हमें पता नहीं था कि हॉबी क्या होती है। उन्होंने कहा कि हर व्यक्ति की कोई न कोई हॉबी होती है। जैसे डाक टिकट का संग्रहण, की रिंग का संग्रहण, महिलाओं की हेयर पिन का संग्रहण, सिक्कों का संग्रहण आदि। तब सिक्के जमा करने में पैसों की समस्या थी।
स्कूल से घर जाते समय सड़क पर मिला लिफाफा
डॉ. इसरानी के मुताबिक उसी दिन जब वह स्कूल से घर जा रहे थे तो उन्हें सड़क पर फेंका हुआ लिफाफा मिला। गुरु की बात याद आई तो लिफाफा उठा लिया। उस पर डाक टिकट चिपका हुआ था। उसे पानी लगाकर लिफाफे से निकाला और हो गई टिकट संग्रहण की शुरूआत। फिर तो जहां भी लिफाफा मिलता तो उससे टिकट निकालते। एलबम में लगाते। यह शुरूआत ऐसी हुई कि अब तक 52 हजार टिकट जमा कर चुके हैं।
दूतावास में जाकर कूड़े में तलाशते थे टिकट
उन्होंने बताया कि उनका घर लौधी रोड पर था। वहां से दूतावास का आफिस निकट ही जोरबाग एरिया में था। टिकट से शोक के चलते वह वहां से फेंके गए लिफाफों से टिकट जमा करते थे। फिर एक दिन वह एंबेसडर से मिले। उन्हें अपने शोक के बारे में बताया। उन्होंने भी प्रोत्यासाहित किया। कहा कि हम डस्टबीन में लिफाफे रख देंगे। तुम सप्ताह में एक दिन आकर टिकट छंटनी कर लेना।
मैकेनिकल इंजीनियर हैं डॉ. जवाहर
डॉ. जवाहर ने बताया कि वह मैकेनिकल इंजीनियर हैं। वह भारतीय पेट्रोलियम संस्थान में नौकरी करते थे। इस दौरान भी उन्होंने अपने शोक को जारी रखा। वर्ष 63 से 70 के बीच वह देहरादून भी नौकरी के कारण रहे। वर्ष 2020 में सेवानिवृत्ति के बाद उन्होंने निजी कंपनी में नौकरी कर ली।
टिकटों की हर एलबम में होती है एक थीम उनकी टिकटों की एलबम में इस तरह का कलेक्शन किया जाता है कि एक थीम तैयार हो। बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ, ट्रेफिक रूल, ट्रेफिक सेफ्टी सहित ढेरों थीम को लेकर उन्होंने एलबम बनाई है।
ऐसे मिली डॉक्टर की उपाधी
डॉ. जवाहर इसरानी के मुताबिक वह स्कूलों, फैक्ट्रियों, सरकारी कार्यालयों में जाकर सामाजिक बुराइयों के खिलाफ लोगों को जागरुक करते हैं। साथ ही टिकटों की एलबम के जरिये उनका जागरूकता कार्यक्रम चलता है। इस कार्य के चलते उन्हें वर्ष 2019 में मालदीव यूनिवर्सिटी ने डॉ. की मानद उपाधी से सम्मानित किया। महाराष्ट्र की संस्था होप इंटरनेशनल वर्ल्ड रिकॉर्ड ने सम्मानित किया। यह सम्मान जनवरी 2020 को दिया गया। 24 अक्टूबर को उन्हें महाराष्ट्र की संस्था ने महात्मा गांधी रत्न अवार्ड से स्म्मानित किया। इसी दिन उन्हें महाष्ट्र की संस्था ने राष्ट्रीय स्तरीय प्रतिभा सम्मान गोल्डर पीकॉक अवार्ड से सम्मानित किया। 25 अक्टूबर 2020 को हरियाणा की संस्था ने इंटरनेशनल अचीवमेंट इंडिया अवार्ड से सम्मानित किया। इसके साथ ही कई संस्थाओं के रिकॉर्ड में उनका नाम दर्ज है। इसकी लंबी लिस्ट है।
अब तक 450 स्थानों पर कर चुके हैं प्रदर्शन
उन्होंने बताया कि स्कूल, फैक्ट्री, सरकारी कार्यालयों आदि में वह अलग-अलग थीम के डाक टिकटों के साथ लोगों को जागरूक करने का प्रयास करते हैं। अब तक 450 स्थानों पर वह ऐसे कार्यक्रम आयोजित कर चुके हैं। इसके अलावा ट्रेन, बस, प्लेन में सफर के दौरान भी वह लोगों को अपनी इस हॉबी से अवगत कराकर उन्हें एलबम दिखाते हैं। करीब डेढ़ लाख लोगों को वह अब तक टिकटों का कलेक्शन दिखा चुके हैं।
कई बार अजीबोगरीब सवालों से होता है सामना
उन्होंने बताया कि उनकी इस हॉबी को जानने के बाद सबसे पहले लोग यही सवाल पूछते हैं कि इससे आपको क्या फायदा मिलता है। कितनी आय होती है। कितना खर्च करते हो। उन्होंने कहा कि मेरा सिर्फ यही जवाब होता है कि इससे मुझे आत्म संतुष्टि मिलती है। लोगों को जागरूक करने के जो प्रयास करता हूं, उससे बढ़कर कुछ नहीं। पान, बीड़ी, सिगरेट, शराब की हॉबी से ये हाबी बेहतर है।
पत्नी का रहता है सहयोग
डॉ. जवाहर के मुताबिक उनके इस काम में पत्नी माया इसरानी का पूरा सहयोग रहता है। उनका एक बेटा और बेटी है। जो अपने परिवार के साथ खुश हैं। पत्नी पहले डिफेंस में जोब करती थी। वह उनके टिकट कलेक्शन और एलबम बनाने में पूरा सहयोग करती हैं। उन्होंने बताया कि वह एलबम के लिए कागज भी ऐसे इस्तेमाल करते हैं जो अक्सर लोग फेंक देते हैं। मसलन कलेंडर का पिछला हिस्सा, बिलबुक आदि।
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भानु बंगवाल, देहरादून, उत्तराखंड।
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