डॉक्टर-डॉक्टर द्वारे द्वारे, दवा के लिए लगानी पड़ गई लंबी परिक्रमा, बच्चा बीमार और सुननी पड़ गई कहानी
जिसकी नकल उतारी जाती वह भी उनका बुरा नहीं मानता था। वह सबको हर दिन हंसाते रहते थे। शादी यो हा फिर कोई आयोजन। उनके बगैर तो अधूरा ही माना जाता था। वह गीत सुनाते।

खैर रामप्रकाश ने नौकरी की तलाश में कुछएक डॉक्टर व दृष्टिहीन व्यक्तियों के द्वार खटखटाए, लेकिन आज तो व्यक्ति कमाने के लिए नहीं, बल्कि जेब ढीली करने के लिए ही डॉक्टर के द्वारे जाता है। हल्की बीमारी में मेरा सीधा फंडा है कि पहले खुद ही दवा खाओ, जब रोग दो तीन दिन तक ठीक नहीं होता, तो डॉक्टर की शरण चले जाओ। वैसे मुझे पता है कि जिस तरह मोटर मैकेनिक स्कूटर खराब होने पर पहले प्लग देखता है। फिर पेट्रोल देखता है कि आगे जा रहा है या नहीं। यदि दोनो ही ठीक हों तो फिर इंजन खोलने की नौबत आती है। हम लोग भी कई बार प्लग साफ करने व बदलने का काम खुद ही कर लेते हैं। इसके बाद जब बड़ी खराबी हो तो मैकेनिक के पास ही जाते हैं।
इसी प्रकार हम बीमारी ठीक न होने पर इंसान के मिस्त्री डॉक्टर के पास जाते हैं। डॉक्टर भी पहले दो-तीन दिन की सिंपल दवा देता है। इसके बाद भी जब रोग नहीं कटता, तो एंटीबायोटिक्स देता है। यदि पांच दिन के भीतर इस दवा का असर नहीं होता, तो खून टैस्ट व अन्य परीक्षण शुरू हो जाते हैं। फिर भी मैं सलाह तो यही दूंगा कि यदि आप बीमार हों तो खुद डॉक्टर न बनें। क्योंकि कई बार दवाओं का उलट असर भी हो सकता है।
करीब नौ साल पहले की बात है। तब मेरा छोटा बेटा आर्यन करीब दस साल का था। उसे खांसी हो रही थी। दो-तीन दिन कफ सीरप देने के बाद भी जब खांसी कंट्रोल नही हुई तो मैने डॉक्टर को दिखाना ही उचित समझा। मेरे मोहल्ले में एक निजी चिकिस्क का क्लीनिक है। इस चिकित्सक के पास मैं अनमने मन से बच्चे को दिखाता हूं। कारण वह पर्चे में दवा कोड में लिखता है। साथ ही दवा भी रेपर फाड़कर लिफाफे में देता है। हालांकि डॉक्टर की फीस मामूली है। वह चाइल्ड स्पेशलिस्ट है। इस सिख चिकित्सक की खासियत ये भी है कि एक दिन की दवा लेने के बाद दोबारा उनके पास जाने की नौबत नहीं आती। वह फीस के साथ दवा भी देते हैं। अलग से खरीदने की जरूरत नहीं पड़ती।
इसके बाद दूसरे चाइल्ड स्पेशलिस्ट डॉक्टर का क्लीनिक घर से करीब चार किलोमीटर दूर देहरादून के रायपुर क्षेत्र में था। हालांकि वे मेरे मोहल्ले में रहते थे और बच्चों को हल्की दवा देते थे। वह मुझे कुछ ठीक लगते थे। वह मेरे मित्र भी हैं और कई बार मामूली फीस लेते थे। ऐसे में मैं उसके क्लीनिक मैं ही बेटे को ले गया। उन दिनों पूरी देहरादून में रायपुर रोड़ उधड़ी हुई थी। बारिश से उसमें कीचड़ भी जगह-जगह भरा था। फिर भी किसी तरह साहस कर मैं क्लीनिक पहुंचा, तो वहां ताला लगा मिला। क्लीनिक के शटर में नोटिस चस्पा था कि चार दिन तक क्लीनिक बंद रहेगा।
ऐसे में परेशान होकर मैने डालनवाला क्षेत्र में सरकारी अस्पताल (कोरोनेशन) जाने की सोची। कोरोनेशन अस्पताल में पहुंचकर सरकारी व्यवस्थाओं का सच उजागर हो गया। मरीजों की भीड़ लगी थी और चाइल्ड स्पेशलिस्ट के कमरे में ताला। पूछने पर पता चला कि डॉक्टर साहब वीआइपी ड्यूटी पर हैं। उन्हे आने में दो घंटे भी लग सकते हैं और चार घंटे भी।
खांसी बढ़ती जा रही थी और मेरी परेशानी भी। लौटकर बुद्धू घर को आए वाली कहावत को चरितार्थ करते हुए मैं मोहल्ले के डॉक्टर के पास ही बेटे को ले गया। डॉक्टरों के चक्कर लगाते मेरा तीन घंटे से अधिक का समय बर्बाद हो चुका था। मोहल्ले का डॉक्टर सिख हैं। उम्र बढ़ने के साथ ही उसके बाल भी सफेद हो चुके हैं। उन्हें मैने कभी हंसते हुए नहीं देखा। जब मैं पहुंचा तो वह फुर्सत में थे और उस दिन मैने उन्हें पहली बार हंसते हुए भी देखा।
हमसे पहले जब एक महिला मरीज उनसे दवा लेकर चली गई, तो अपने तीन कर्मचारियों (एक कंपाउंडर व दो नर्स) को पहले आई मरीज के घर परिवार के बारे में बताने लगा। फिर उन्हें चूहा घूमता नजर आया। इस पर उसने अपने कर्मचारियों को चूहेदानी तलाशने को कहा। एक नर्स व कंपाउंडर ने चूहेदानी तलाशने में काफी देर लगने की बात कही। बताया कि काफी दिन से इस्तेमाल नहीं हुई और अब खोजने में वक्त लगेगा, लेकिन उन्हीं दिनों रखी गई नई नर्स ने कहा कि उसने देखी है। वह चूहे दानी लेने दवाखाने की तरफ चली गई। इस बीच दोनों कर्मचारियों ने डॉक्टर के कान भरने शुरू कर दिए कि अभी इसे आए तीन दिन भी नहीं हुए और इसने क्लीनिक का चप्पा-चप्पा छान मारा।
तभी चूहेदानी लेकर नर्स आ गई। उसे सभी संदेह की दृष्टि से देख रहे थे। आखिरकार डॉक्टर ने उससे पूछ लिया कि चूहेदानी कैसे मिली। उसने सीधा सा जवाब दिया कि कल दवा तलाशते हुए उसके पैर में कहीं से गिरी थी, उसने उठाकर दूसरे स्थान पर रख दी थी। बच्चा खांस रहा था, लेकिन इसकी चिंता न करते हुए डॉक्टर साहब अब एक बंदर की कहानी सुनाने लगे।
वह बता रहे था कि टेलीविजन में उन्होंने एक बंदर को मोटरसाइकिल से पेट्रोल निकालकर पीते हुए देखा। मुझे देर होती जा रही थी और मन ही मन गुस्सा भी आ रहा था। मैने सोचा कि वह एक दिन की दवा देते हैं, कल फिर थकाएंगे, ऐसे में मैने तीन दिन की दवा देने को कहा। डॉक्टर ने दवा दी और फीस भी तीन गुनी ली। जो डॉक्टर मामूली फीस लेता है, उसकी फीस सुनकर मैं भी चौंक गया। फिर यही ख्याल आया कि जब पेट्रोल, सब्जी, राशन-पानी आदि सभी की कीमत बढ़ गई है तो डॉक्टर भी फीस क्यों नहीं बढ़ाएगा।
भानु बंगवाल
Bhanu Bangwal
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भानु बंगवाल, देहरादून, उत्तराखंड।