उत्तराखंड की नियतिः जंगल में आग और गांवों में बाघ- सुरेश भाई

प्राणियों को जिंदा रहने के लिये जल और प्राणवायु के साथ कई प्राकृतिक उपहार जंगल भेंट कर रहे है। इसके बावजूद भी यह कैसी विडंबना है कि जंगल ही जंगल की आग में समा रहे है। इसके लिये जिम्मेदार तन्त्र कुछ कहने को तैयार नही है। आग लगी हुई है, जंगल जलते जा रहे है। कहीं कोई सुग- बुगाहट भी नहीं है कि जंगल में किसने आग लगाई ? इसमें इतना जरूर है कि कोई वन रक्षक या गांव के लोग आग बुझाते कहीं झुलस गये या इसकी चपेट मे आकर जान गवां गये तो, इससे आगे की चर्चा पर विराम लग जाता है।
व्यापक अध्ययन की जरूरत
आग हर वर्ष किन कारणो से लग रही है। इसको जानने के लिये व्यापक अध्ययन व शोध करने की आवश्यकता भी महसूस नहीं की जा रही है। पिछले चार दषकों से इसी तरह जंगल लगातार जल रहे है। हजारों हैक्टेयर प्राकृतिक जंगल के अलावा वे छोटे-छोटे पौधे भी राख बन जाते है, जिन्हे उसी साल वृक्षारोपण कार्यक्रम के द्वारा रोपा गया था।
फोटो तक ही सीमित वृक्षारोपण
वृक्षारोपण की फोटो जितने चमकीले ढंग से प्रकाशित की जाती है। इसके बाद जब वहां आग लग गयी तो कोई खेद प्रकट भी नहीं करता हैं। सच्चाई ये है कि फिर अगले साल उसी स्थान पर वृक्षारोपण के लिये कई परियोजनाओं में बजट आवंटित किया जायेगा। फिर उसी स्थान पर अगले वर्ष वृक्षारोपण कार्यक्रम होता है। जिसके तुरन्त बाद वहां आग लगने का अंतहीन सिलसिला कभी थमता नहीं है। क्या यही आधुनिक विकास का रूप है जो प्राकृतिक संसाधनो के पोषण पर टिका है ? जलवायु नियन्त्रण की भी यही कोशिश मानी जायेगी ?
वन निगम भी नहीं निभा रहा भूमिका
पेड पौधो के प्रति इतनी लापरवाही है कि आग और आंधी के कारण जंगल में सूखी लकडियां और बडे-बडे वृक्ष गिरे रहते है। जिसको इस्तेमाल में लाना चाहिये। लेकिन यहां भी दूसरी समस्या देखने को मिलती है कि सूखी लकडियों को जंगल से ले जाने के नाम पर हरे पेडों की निर्मम कटाई होने लगती है। वन निगम हर साल लाखो की कमाई इसी आधार पर करता आया है। कहते है कि वन विभाग के पास अपने स्टाफ की बहुत कमी है। जिसके कारण न तो वे जंगल में लगी आग को नियन्त्रित कर पा रहे है और न ही हरे पेडों की कटाई का निरीक्षण सही वक्त पर कर सकते है।
शीतकाल में भी सुलग रहे जंगल
हिमालय क्षेत्र के जंगलो में ऐसी विषम परिस्थिति पैदा हो गयी है कि शीतकाल के समय भी कंप कंपाती ठंड में आग लगी हुई है । फूलो की घाटी के आसपास के जंगल भी जल रहे है। उॅंचाई की वन संपदा धू-धू कर जल रही है। जिसे बीच-बीच में होने वाली बारिश ही बुझा सकती है। जनवरी 2021 में बारिश और बर्फ हिमालय के निचले इलाकों तक नहीं पहुंची है, जिसके कारण जंगल की आग फैलती जा रही है। उत्तराखंड के अल्मोडा जिले में दो महिलाये आग से झुलसी हैं। उत्तराखंड समेत कई हिमालय राज्यों में स्थिति यह है कि चारों ओर पहाडो पर धुआं ही धुआं नजर आ रहा है और मैदानो की ओर देखें तो प्रदूषण का कोहरा पर्यावरण के लिये संकट पैदा कर रहौ है।
बढ़ रहा भूस्खलन का खतरा
वनाग्नि और वन कटान दोनों उत्तराखंड के जंगलों में आजकल चरम सीमा पर है। आगे आने वाली वर्षात में भारी भूस्खलन की संभावना से इन्कार नहीं किया जा सकता है। क्योंकि आग व कटान के प्रभाव से जंगल की मिटटी कमजोर पड़ रही है। अनेक घटनाओं से पता चलता है कि हर बार उॅंचाई के जंगल से आग सुलगती है, जो विकराल रूप लेकर गांव तक पहॅुच जाती है। दूसरी ओर लोगों पर भी आरोप लगते है कि वे अपने खेतों की सूखी झाडियों को जलाते हैं। इससे जंगल में आग पहॅुंचती है। अभी तक घटनाओं को छोड़कर वन रक्षकों के पास इसके जो प्रमाण होते है, उस पर सख्त सजा क्या हो सकती है, इसका प्रचार लोगों के बीच में हों।
गांव वालों को सजा, निगम की जांच नहीं
यह चिन्ता का विषय है कोई हरा पेड काटने पर गांव वालो को तो सजा मिल जाती है, लेकिन वन निगम जब पेड़ काट देता है, तो उसकी जांचने की फुर्सत किसी के पास नहीं होती। ऐसे में वनों को आग से भी कैसे बचाया जा सकता है ?
जनवरों पर भी प्रभाव
जंगल पर इस दोहरी मार का दुस्प्रभाव व जंगली जानवरों पर पड़ रहा है। बाघ ने जंगल में पर्याप्त भोजन न मिलने से गांव की तरफ उसने रूख कर दिया है। हर दिन आखबारों में समाचार आता है कि बाघ ने गांव में बच्चों, महिलाओं व पुरूषो को अपना निवाला बना दिया हैं।
झुलस कर मर रहे हैं वन्य जीव
उत्तरकाशी में जंगल के निकट बसे हुये गांव दिलसौड, चामकोट, अठाली, लोदाडा, चैदियाट गांव, कमद, अलेथ, मानपुर आदि गांव के लोग बताते है कि आग लगने से हिरन, जंगली सुअर, बारहसिंघा आदि झुलस कर मर रहे हैं। इस प्रजाति के जानवर जंगल में अब दूर-दूर तक पहॅुंचने पर भी देखने को नही मिलते हैं। इसके कारण गांव में मवेषियों और लोगों को खाने के लिये बाघ पहॅुंच गया है।
बाघ की संख्या पर जोर, लेकिन भोजन पर ध्यान नहीं
काबिलेगौर है कि अधिकांश पर्वतीय गांव में बाघ लोगों की नजर से बिल्कुल ओझल रहकर उसकी आंखे कहीं छिपे हुये स्थान से बंदूक के निशाने की तरह लोगों पर तनी हुई हैं। मौका आने वह बच्चों को तो सीधे उठाकर ले जाता है। जिसकी आधी लाश गांव से दूर कहीं पर मिलती है। देश में बाघो की संख्या पर हर साल जोर दिया जा रहा है, किन्तु बाघ के भोजन की व्यवस्था जंगल में हो, इस पर भी विचार करने की आवश्यकता है। इसलिये जंगल के राजा के इस आतंक के साथ-साथ मध्य हिमालय में चैडी पती की अनेकों वन प्रजातियां जैसे बांझ, बुरांश आदि के जंगल आग से समाप्त हो रहे है।
बारिश की बूंदों का रहता है इंतजार
चीड की सूखी पत्तियां जंगल में आग फैलाने के लिये अधिक संवेदनशील हैं, लेकिन षंकुधारी चीड के ऊंचे पेड़ों को कम ही नुकसान पहॅुंचता है। आजकल तो इसी की इन्तजारी हैं कि शीतकाल में कब वारिश की बूंद गिरेगी और तभी आग बुझ पायेगी। जंगलो में आग की घटनाएं मार्च-अप्रैल, जिसे फायर सीजन कहते हैं, फिर शुरू हो जायेगी। ऐसे में आग और बाघ का डर समाप्त नहीं हो सकता।
लेखक का परिचय
नाम-सुरेश भाई
लेखक रक्षासूत्र आन्दोलन के प्रेरक है। वह सामाजिक कार्यकर्ता व पर्यावरणविद हैं। वह उत्तराखंड नदी बचाओ आंदोलन से भी जुड़े हैं। सुरेश भाई उत्तराखंड सर्वोदय मंडल के अध्यक्ष भी हैं। वर्तमान में वह उत्तरकाशी के हिमालय भागीरथी आश्रम में रहते हैं।
लोकसाक्ष्य पोर्टल पाठकों के सहयोग से चलाया जा रहा है। इसमें लेख, रचनाएं आमंत्रित हैं। शर्त है कि आपकी भेजी सामग्री पहले किसी सोशल मीडिया में न लगी हो। आप विज्ञापन व अन्य आर्थिक सहयोग भी कर सकते हैं।
वाट्सएप नंबर-9412055165
मेल आईडी-bhanubangwal@gmail.com
भानु बंगवाल, देहरादून, उत्तराखंड।