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November 12, 2025

दारा सिंह मैं आ रहा हूं, तेरे हाथ पांव तोड़ दूंगा, कुछ ऐसा नजारा दिखा उस बार

दारा सिंह, मैं आ रहा हूं, तेरे हाथ-पांव तोड़ दूंगा। अस्सी के दशक में देहरादून की हर सड़क, गली व मोहल्ले में कुछ इस तरह की चर्चा थी कि अब दारा सिंह का क्या होगा।

दारा सिंह, मैं आ रहा हूं, तेरे हाथ-पांव तोड़ दूंगा। अस्सी के दशक में देहरादून की हर सड़क, गली व मोहल्ले में कुछ इस तरह की चर्चा थी कि अब दारा सिंह का क्या होगा। यह बात करीब सन 75 की है। वास्तविक साल मुझे याद नहीं आ रहा है। बच्चों से लेकर बूढ़ों तक में इस बात की चर्चा थी। सभी आशंकित थे कि इस बार दारा सिंह को तगड़ा पहलवान चैलेंज कर चुका है। फिर जो हुआ भी भी बड़ी रोचक कहानी है।
पूरे भारत में तब दारा सिंह की तूती बोलती थी। दारा सिंह की कुश्ती के चर्चे लोगों की जुबां पर रहते थे। तब समाचार पत्र भले ही हर घर में ना पहुंचे, हर घर में रेडियो भले ही ना हो, टेलीविजन भले ही किसी ने नहीं देखा हो, लेकिन लोग एक दूसरे को ताजा खबरों का ज्ञान करा देते थे। जब मैं छोटा था, तब के बच्चों ने भले ही दारा सिंह को फोटो या फिल्म में नहीं देखा हो, लेकिन नाम जरूर सुना था।
तब टेलीविजन थे नहीं। ऐसे मुझे भी यह पता नहीं था कि जिस पहलवान की तरह सभी बच्चे बनना चाहते हैं, दिखने में वह कैसा होगा। मोहल्लों में भी कोई भी खेल खेलने के बाद एक बार कुश्ती जरूर होती थी। शाम को मोहल्ले में खेल के दौरान बड़ी उम्र के लोग बच्चों की कुश्ती भी कराते थे। जो जीत गया उसे कहा जाता कि तू दारा सिंह बनेगा। मैं भी अपनी उम्र के बच्चों से कुश्ती लड़ता, लेकिन शरीर से कमजोर होने के कारण अक्सर हार जाया करता था। फिर भी मेरे मन में दारा सिंह की तरह फौलादी बनने की इच्छा जरूर थी।
बड़े बुजुर्ग दारा सिंह की कुश्ती के किस्से सुनाते और बच्चे बड़ी दिलचस्पी से सुनते थे। कोई कहता कि दारा सिंह नाश्ते में तीन-चार सौ से अधिक अंडे खाता है, तो कोई कहता कि दोपहर के खाने वह पूरा बकरा चट कर जाता है। मैं और मेरी तरह अन्य बच्चे आंखे फाड़-फाड़कर ऐसे किस्से सुनते। ऐसी बातों पर तब विश्वास होने लगता था। क्योंकि बुजुर्गों के प्रति सभी को सम्मान रहता था। उनकी बातों को भी बच्चे ज्ञान के रूप में स्वीकार करते थे।
तब हांगकांग के पहलवान माइटी मंगोल ने दारा सिंह को चैलेंज किया। दून की सड़कों पर जितने भी तांगे दौड़ते, उनमें अधिकांश को कुश्ती के प्रचार के लिए इस्तेमाल किया गया। तांगों के तीन तरफ बड़े-बड़े पोस्टर सजाए गए थे। पोस्टर में एक तरफ माइटी मंगोल की फोटो लगाई गई। उसके नीचे लिखा गया कि अब हांगकांग से चल पड़ा माइटी मंगोल। दारा सिंह मैं आ रहा हूं, तेरे हाथ-पांव तोड़ दूंगा। माइटी मंगोल की तस्वीर भी ऐसे एक्शन में लगी थी, जैसे वह अपने पंजों से दारा सिंह को नौंचने जा रहा हो। पोस्टर में दूसरी तरफ दारा सिंह की फोटो के साथ लिखा गया था कि- माइटी मैं तेरे चैलेंज को स्वीकार करता हूं। कौन किसे हराएगा, इसका फैसला देहरादून के पवेलियन मैदान में होगा। जब तांगा सड़क पर दौड़ता, तो उसमें ढोल भी बजता था। जहां भीड़ होती, तो लाउडस्पीकर से एक व्यक्ति माइटी व दारा सिंह के डायलॉग सुनाता और कुश्ती की नियत तिथि व समय की जानकारी देता। साथ ही कुश्ती के प्रोग्राम के पर्चे भी बांटता। जिसमें कुश्ती का दिन, समय और स्थान के साथ ही टिकटों की दर लिखी होती थी।
मेरी माताजी भी मुझे दारा सिंह की कुश्ती के बारे में बताती थी। पिताजी ने माताजी को भी कुश्तियां दिखाई थी और उसे दारा सिंह की कुश्ती देखने का सौभाग्य मिल चुका था। वह बताती कि दारा सिंह कैसे कुश्ती लड़ा था। मेरी इच्छा दारा सिंह की माइटी से मुकाबले को देखने की हुई, लेकिन टिकट तब के हिसाब से काफी महंगा दस रुपये का था। इस राशि में पूरा परिवार सिनेमा देख सकता था। ऐसे में मुझे कौन कुश्ती देखने को दस रुपये देता।
आखिर कुश्ती का दिन आ ही गया। मैं दोपहर तीन बजे से ही पिताजी के ऑफिस पहुंच गया और उनसे कुश्ती दिखाने का अनुरोध करता रहा। शायद पिताजी की इच्छा भी कुश्ती देखने की थी, लेकिन दस रुपये खर्च करने का साहस उन्हें भी नहीं हो रहा था। शाम साढ़े चार बजे पिताजी की छुट्टी हुई और सिटी बस पकड़कर दोनों पवेलियन मैदान पहुंच गए। आखिरकार पिताजी ने टिकट लिया और हम मैदान में पहुंच गए। पवेलियन मैदान खचाखच भरा था। इससे पहले इतनी भीड़ मैने फुटबाल मैच में देखी थी।
एक नजारा ऐसा था कि जो हर बार पवैलियन मैदान में टिकटों वाले आयोजन के दौरान देखा जाता था। मैदान के एक छोर पर सिटी बस अड्डा था। इसमें बसों की छतों और दुकानों की छतों वह वे लोग खड़े थे, जो टिकट नहीं खरीद सके। दूसरी ओर दीवार की तरफ गांधी पार्क था। वहां ऊंचे ऊंचे पेड़ थे। इन पेड़ों पर भी लोग ऐसे चढ़े हुए थे, जैसे कोई गिद्ध बैठा हो। गिद्ध की निगाह शिकार की तरफ होती है, वहीं लोगों की निगाह रिंग की तरफ थी। कई साहसी लोग पेड़ से लटककर पवेलियन की दीवार तक पहुंच रहे थे। फिर दीवार पर लगी तारबाड़ से छिरककर पवैलियन तक पहुंचने की जुगत लगा रहे थे। वॉलिंटियरों की नजर यदि उन पर पड़ती तो धुनाई होती, जो नजर बचाकर आ गया तो समझो उसने जंग जीत ली। ऐसे लोग कुछ देर तक एक ही स्थान पर दुबके रहे कि कहीं कोई उन्हें देख न ले। फिर जैसे ही रोमांच बढ़ा तो कई को अपनी जगह पसंत नहीं आई और दूसरे स्थान पर सरक गए।
जैसे जैसे शाम ढलती जा रही थी, भीड़ बढ़ती जा रही थी। शुरुआत में कई स्थानीय व राष्ट्रीय स्तर के पहवानों की कुश्ती कराई गई। फिर अंधेरा छा गया और जमीन से करीब पांच फुट ऊंचाई पर बने कुश्ती का रिंग तेज प्रकाश से नहाने लगा। फिर नाम पुकारा गया और माइटी मंगोल हाथ लहराता हुआ रिंग तक पहुंचा। फिर पीले वस्त्रों में दारा सिंह। दारा सिंह ने अपनी चैंपियन बेल्ट खोली और अपनी ड्रेस उतारनी शुरू की। तभी माइटी ने आव देखा न ताव और दारा सिंह से भिड़ गया। तब दारा सिंह कुश्ती की तैयारी ही कर रहा था। इस अप्रत्याशित हमले की उन्हें भी कोई उम्मीद नहीं रही होगी। रैफरी ने माइटी से दारा को छुड़ाया।
फिर कुश्ती शुरू हुई तो दारा सिंह ने माइटी के थप्पड़ जड़ दिया। तब मुझे पता चला कि फ्री स्टाइल कुश्ती में लात-घूंसे, थप्पड़ आदि सब चलते हैं। माइटी ने थप्पड़ मारने पर एतराज जताया। फिर उसे कुश्ती के नियम समझाए गए। इस पर उसने एक हाथ से दारा सिंह के बाल पकड़ लिए। दूसरे हाथ की दो अंगुली दारा सिंह के नथुनो में घुसा दी और हथेली से मुंह दबा दिया। फिर रैफरी ने माइटी को दुलत्ती मारकर कब्जे से दारा सिंह को छुड़ाया। कुश्ती का रोमांच बढ़ रहा था। शोर भी चारों ओर गूंज रहा था।
सिटी बस अड्डे की दुकानों की छत, गांधी पार्क के ऊंचे पेड़ पर चढ़कर फ्री में कुश्ती देखने वालों की संख्या भी कम नहीं थी। दारा सिंह ने अचानक माइटी को पटखनी दी और उसकी ऐड़ी पर उछलकर कूद गया। बस यही कुश्ती का टर्निंग प्वाइंट था। शायद माइटी की टांग टूट गई। वह खड़ा होता और दारा सिंह उसकी पिटाई कर गिरा देता। आखिरकार वही हुआ, जो होना था। दारा सिंह विजयी घोषित हुए। वह हाथ लहराकर रिंग से ड्रैसिंग रूम की तरफ चले गए। माइटी का वजन काफी था। वह उठ नहीं सका और रिंग पर ही लेटा रहा।
उसे उठाने का दो पहलवानों ने प्रयास किया, लेकिन उठा नहीं सके। इस पर दारा सिंह स्वयं आए और उसे कंधे पर उठाकर ड्रैसिंग रूम की तरफ ले गए। दुनियां भर के पहलवानो को धूल चटाने वाला यह फौलाद अब भले ही इस दुनिया में नहीं हैं, लेकिन इस फौलाद की यादें मेरे जेहन में हमेशा ताजा रहेंगी। साथ ही देहरादून के पवेलियन मैदान में आयोजित होने वाले ऐसे आयोजन, जो हर देखने वाले के लिए रोमांच से कम नहीं थे।
भानु बंगवाल

Bhanu Bangwal

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भानु बंगवाल, देहरादून, उत्तराखंड।

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