सीएसडीएस-लोकनीति का सर्वे बढ़ाएगा बीजेपी की टेंशन, राममंदिर और भ्रष्टाचार की बजाय लोगों के बड़े मुद्दे हैं दूसरे
जैसे जैसे लोकसभा के चुनाव निकट आ रहे हैं, वैसे वैसे मीडिया में विभिन्न सर्वे के माध्यम से एकतरफा माहौल बनाने की कोशिश जारी है। न्यूज चैनलों में हिंदू, मुस्लिम, राम मंदिर आदि मसलों को लेकर डिबेट तो होती है, लेकिन नौकरी, रोजगार, महंगाई, विकास को लेकर कोई कार्यक्रम आयोजित नहीं किया जाता है। वहीं, बीजेपी का घोषणा पत्र भले ही जनता के बीच नहीं आया हो, लेकिन बीजेपी ने कांग्रेस के घोषणा पत्र को लेकर मीन मेख निकालने शुरू कर दिए। वैसे बीजेपी के लिए कहा जा रहा है कि वह घोषणा पत्र में अबकी बार क्या लिखेगी। क्योंकि जनता तो पिछले दो बार के चुनावों में किए गए वायदों को ही पूछ रही है कि उनमें कितने पूरे हुए। (खबर जारी, अगले पैरे में देखिए)
चुनाव पूर्व सर्वे ने दिए चौंकाने वाले नतीजों के संकेत
चुनाव पूर्व सर्वेक्षण ने चौंकाने वाले नतीजे आने के संकेत दिए हैं। राम मंदिर, भ्रष्टाचार जैसे मुद्दे अब मतदाताओं के बीच बड़े मुद्दे नहीं रहे हैं। सीएसडीएस-लोकनीति ने द हिंदू के साथ मिलकर चुनावी सर्वे किया तो उसमें मतदाताओं की सबसे बड़ी तीन चिंताएं- रोज़गार, महंगाई और विकास उभरी हैं। सर्वेक्षण के अनुसार नौकरियों और महंगाई की चिंताओं के लिए केंद्र और राज्य सरकार दोनों को जिम्मेदार ठहराया गया है। इस सर्वे ने एक बड़ा सवाल खड़ा कर दिया है कि इसका नुकसान किसे ज्यादा होगा। राज्यों या मौजूदा सांसदों को इसका नुकसान होगा या फिर सीधे सीधे बीजेपी को ही इसका खामियाजा उठाना पड़ेगा। ऐसे में बीजेपी की जनसभाओं में रोजगार के मुद्दे की बजाय ध्यान भटकाने के लिए दूसरे दलों का भ्रष्टाचार, या फिर धर्म के मुद्दे उछालने की कोशिश हो रही है। (खबर जारी, अगले पैरे में देखिए)
मुद्दों को भटका रहे हैं बीजेपी नेता
इन सबके बीज महंगाई, रोजगार, गरीबी के साथ ही किसानों के मुद्दों को लेकर बीजेपी का प्रचार नहीं हो रहा है। चुनाव प्रचार में धर्म का इस्तेमाल नहीं किया जा सकता है, लेकिन पीएम मोदी हों या अमित शाह। सभी राम मंदिर से लेकर तमाम ऐसे मुद्दे उछाल रहे हैं, जिससे लोगों की धार्मिक भावनाओं से खेला जा सके और लोग मूल मुद्दों को भूल जाएं। वहीं, चुनाव आयोग ने भी ऐसे भाषणों को सुनने और कार्रवाई करने पर चुप्पी साध ली है। किसान लगातार आंदोलन कर रहे हैं, उनका आरोप है कि उनकी मांगों को लेकर सरकार ने धोखा दिया है। (खबर जारी, अगले पैरे में देखिए)
चुनाव प्रचार में फैलाया जा रहा है झूठ
चुनाव प्रचार के दौरान जब मुद्दा नहीं मिला तो झूठ फैलाने का काम भी तेज हो गया है। पीएम नरेंद्र मोदी कहते हैं कि कांग्रेस का घोषणापत्र में आजादी से पहले मुस्लिम लीग के घोषणापत्र की छाप है। वहीं, हकीकत ये है कि घोषणा पत्र में संविधान की बात की जा रही है। सच तो से है कि जिन्ना की मुस्लिम लीग के साथ बीजेपी के पूर्वज मिले हुए थे। श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने बंगाल और सिंध में मुस्लिम लीग के साथ सरकार चलाई थी। भारत छोड़ो आंदोलन के खिलाफ मुस्लिम लीग और आरएसएस या उससे जुड़ी संस्थाएं हिंदू महासभा आदि थे। सावरकर भी इसके खिलाफ थे। सावरकर तो सुभाष चंद्र बोस की इंडियन नेशनल आर्मी के भी खिलाफ थे। वे तो अंग्रेजों की सेना में लोगों से भर्ती होने की अपील कर रहे थे। ताकि सुभाष चंद्र बोस की सेना का मुकाबला किया जा सके। आज देशभक्ति का ठेका यदि ऐसे संगठन लें तो बात गले नहीं उतरती है। मुस्लिम लीग की तरह ही सावरकर भी दो देश के सिद्धांत की बात करते थे। (खबर जारी, अगले पैरे में देखिए)
बेरोजगारी को लेकर चिंता
चुनाव पूर्व इस सर्वेक्षण से पता चला है कि बेरोजगारी और महंगाई सर्वे किए गए लोगों में से क़रीब आधे मतदाताओं की प्रमुख चिंताएं हैं। सर्वेक्षण में शामिल लोगों में से लगभग दो तिहाई यानी क़रीब 62% ने कहा है कि नौकरियां पाना अधिक मुश्किल हो गया है। ऐसा मानने वाले शहरों में 65% हैं। गाँवों में 62% और कस्बों में 59% लोग ऐसा मानते हैं। 59% महिलाओं की तुलना में 65% पुरुषों ने ऐसी ही राय रखी है। केवल 12% ने कहा कि नौकरी पाना आसान हो गया है। (खबर जारी, अगले पैरे में देखिए)
जाति के आधार पर आई ऐसी राय
सर्वे के अनुसार मुसलमानों में यह चिंता सबसे अधिक थी कि नौकरी पाना मुश्किल है। 67% ने कहा कि नौकरी पाना मुश्किल हो गया है। यह संख्या अन्य पिछड़ा वर्ग और अनुसूचित जाति के हिंदुओं में 63% है और अनुसूचित जनजाति में 59% है। हिंदू उच्च जातियों के 17% लोगों ने कहा कि यह आसान है। यहाँ तक कि उनमें से 57% ने महसूस किया कि नौकरियाँ पाना अधिक मुश्किल हो गया है। (खबर जारी, अगले पैरे में देखिए)
महंगाई को माना बड़ा मुद्दा
महंगाई के मामले में भी मतदाताओं की चिंताएँ बेहद गंभीर हैं। उन्होंने बेरोज़गारी की तरह ही महंगाई को बड़ा मुद्दा माना है। संपर्क किए गए लोगों में से 71% ने कहा कि महंगाई बढ़ी है। गरीबों में यह संख्या बढ़कर 76%, मुसलमानों और अनुसूचित जातियों में 76% और 75% हो गई है। (खबर जारी, अगले पैरे में देखिए)
19 राज्यों में 10 हजार लोगों की ली गई राय
सर्वे में 19 राज्यों में क़रीब 10 हज़ार लोगों की राय ली गई है। इस ताज़ा सर्वेक्षण के निष्कर्षों से संकेत मिलता है कि अर्थव्यवस्था से जुड़ा संकट मतदाताओं के लिए गंभीर चिंता का विषय है। सार्थक रोजगार के अवसर सुरक्षित न कर पाने का डर, महंगाई की वास्तविकता, जीवन और आजीविका पर इसका प्रभाव और ग्रामीण संकट का तथ्य कुछ ऐसा है जो उत्तरदाताओं के दिमाग में है। रिपोर्ट में कहा गया है कि ऐसा लगता है कि आर्थिक रूप से कम संपन्न लोग इस संकट को अधिक तीव्रता से अनुभव कर रहे हैं। संपन्न लोगों पर इसका कोई असर नहीं है। (खबर जारी, अगले पैरे में देखिए)
नौकरी के अवसर कम करने में केंद्र और राज्य दोनों जिम्मेदार
द हिंदू की रिपोर्ट के अनुसार सीएसडीएस-लोकनीति के सर्वे में इन दोनों मुद्दों पर अधिकतर मतदाता अर्थव्यवस्था की स्थिति के बारे में चिंतित थे। सर्वेक्षण से यह भी पता चला कि 17 फीसदी लोग राज्य सरकारों को, 21 फीसदी लोग केंद्र को और 57 फीसदी लोग केंद्र व राज्य दोनों को नौकरी के अवसरों को कम करने के लिए जिम्मेदार मानते हैं। (खबर जारी, अगले पैरे में देखिए)
जीवन स्तर को लेकर लोगों की राय
सर्वे के अनुसार क़रीब 48% ने संकेत दिया कि उनके जीवन की गुणवत्ता बहुत या कुछ हद तक बेहतर हुई, जबकि 14% ने कहा कि यह वैसी ही रही और 35% ने कहा कि पिछले पांच वर्षों में यह बदतर स्थिति में है। केवल 22% ने कहा कि वे अपनी ज़रूरतों को पूरा कर सकते हैं और अपनी घरेलू आय से पैसे बचा सकते हैं। उन लोगों के विपरीत 36 फीसदी ऐसे हैं, जो बचत नहीं कर सकते, लेकिन अपनी जरूरतों को पूरा कर सकते हैं। 23% ने कहा कि कुछ कठिनाइयों का सामना करना पड़ा और 12% ने कहा कि जरूरतों को पूरा करने में बिल्कुल भी सक्षम नहीं हैं। (खबर जारी, अगले पैरे में देखिए)
भ्रष्टाचार को लेकर राय
सर्वे में 55% ने कहा कि भ्रष्टाचार बढ़ गया है, केवल 19% ने कहा कि इसमें कमी आई है। 2019 के लोकनीति प्री-पोल सर्वेक्षण में 40% ने कहा था कि भ्रष्टाचार बढ़ा है, 2019 में भ्रष्टाचार में गिरावट आने की बात करने वाले 37% थे। भ्रष्टाचार के लिए 25% लोगों ने केंद्र को, 16% ने राज्यों को, जबकि 56% ने भ्रष्टाचार के लिए उन दोनों को दोषी ठहराया। इन चिंताओं के बावजूद सर्वेक्षण में शामिल लगभग आधे लोगों ने कहा कि पिछले पांच वर्षों में विकास समावेशी रहा है।
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भानु बंगवाल
मेल आईडी-bhanubangwal@gmail.com
भानु बंगवाल, देहरादून, उत्तराखंड।