आपदा में बिजनेस या आत्मनिर्भरता का सरकारी जुमला, सही प्रोत्साहन आखिर कब तक
कोरोना महामारी के बीच रहना सीखना है या अमिताभ का यह डायलाग – जब तक दवाई नहीं, कोरोना से ढिलाई नहीं ! यह सब विज्ञापन के बेहतरीन जिंगल तो हो सकते हैं, लेकिन हकीकत में विषम परिस्थिति में अपने पैरों पर खड़ा होना या परिवार के लिए रोटी कमाना आज इतना आसान नहीं है कि सरकारी जुमलेबाजी से परिवार पलने लग जाए।

अस्पतालों की हकीकत
पिछले दिनों उत्तराखंड की राजधानी के सभी प्रमुख अस्पताल जो कोरोना इलाज का बड़ा पैकेज वसूल रहे हैं – हेल्थ विभाग से कोरोना मृतकों का आंकड़ा छुपा गए। सरकार को एक दिन में 95 मौत की सूची जारी करनी पड़ी। तब भी इन अस्पतालों का तो कुछ नहीं बिगड़ा, लेकिन प्रदेश के स्वास्थ्य मंत्री व प्रशासन पर तमाम सवाल खड़े हो गए। निजी हस्पताल सरकारी आदेशों को कितनी लापरवाही से लेते हैं – यह सच भी बेशर्मी से उजागर हुआ। कोरोना बुलेटिन की लीपा पोती सार्वजनिक हो गई कि आंकड़ाबाजी का खेल आपदा को अवसर में बदलने के लिए सब तरफ हो रहा है।
पुलिस ने बनाया चालान का रिकॉर्ड
पुलिस ने भी कोरोना रोकने के नाम पर चालान किए और आपदा में राजस्व वसूलने का करोड़ों का रिकार्ड बना दिया। पूरे देश में किसी महामारी के दौरान प्रशासनिक कानून के तहद इतनी बड़ी रकम जुर्माने में जुटाना आपदा एक अवसर साबित हुआ है। होना यह चाहिए था कि पुलिस सड़क पर नागरिकों को सैनीटाइज करती, मास्क बांटती और बार बार लापरवाही बरतने वालों का एक माह के लिए लाइसेंस निरस्त कर समाज में कड़ी चेतावनी जारी करती।
रोजगार का सवाल
किसी भी पार्टी के लिए अब सरकारी रोजगार देना आकाश से तारे तोड़ना है, क्योंकि यहां तो मंत्री, एमएलए, सांसद, मेयर अपने परिजनों को ठेके की नौकरी दिलाने में ही सफल हो पाए हैं। भाजपा ने पहले विधान सभा चुनाव में स्वरोजगार को नारा दे दिया था, लेकिन अपनी सरकार आने पर स्वरोजगार के लिए आधार तैयार नहीं किया। वहीं, युवाओं में सरकारी नौकरी की मृगतृष्णा आज भी हिलौरे मार रही हैं।
हकीकत में नहीं सरकारी नौकरी
नेताओं ने कभी आरक्षण को बेरोजगारी से जोड़ा तो कभी विभिन्न वर्गो के लिए जातिगत आरक्षण को चुनावी वोट बैंक में बदलने के प्रयास किए। हकीकत में तो सरकारी नौकरी है ही नहीं। पिछले छह सालों में लोकसेवा आयोग के पदों में भारी कटौती हुई है। प्रदेश सरकार तो पिछले सालों में पीसीएस परीक्षा कराना ही भूल चुकी है।
सोशल मीडिया में रोजगार के दावे तो किए जाते हैं, लेकिन परीक्षा आयोजित कराना टेढ़ी खीर बना हुआ है। परीक्षा में धांधली का स्तर फोरेस्ट गार्ड की भर्ती तक आ चुका है। पुलिस सब इंस्पेक्टर तक की भरती में जांच बैठानी पड़ी हैं। यानि सरकार नौकरी देने की जगह, देती हुई दिखना चाहती है।
निजीकरण की तरफ बढ़ रहे कदम
बात सिर्फ भाजपा सरकार तक सीमित नहीं है, क्योंकि अब सरकार अपने बजट को वेतन और डीए में खर्च करने की जगह विकास कार्यों में सीधा लगाना चाहती है। देश विदेश के आर्थिक सुधार यही सलाह दे रहे हैं कि अब सरकारी कामकाज ठेके पर आउटसोर्स कराये जाने चाहिए। सब सरकारें उसी तरफ बढ़ रही हैं। जैसे प्रदेश में पानी का बिल एकत्रित करने में सरकार जितना खर्च करती है, उससे ज्यादा तो विभागीय कर्मचारियों के वेतन, भत्तों और सुविधाओं में खर्च हो रहा है। यही हाल सरकारी टैक्स वसूलने वाले विभागों का है।
स्वरोजगार का आधार सहकारिता पर राजनेताओं की काली छाया
स्वरोजगार का बढ़ा आधार पहले सहकारिता से निर्मित होता रहा है, लेकिन अब यह सरकारी समितियां राजनेताओं के संरक्षण में भ्रष्टाचार का पर्याय बनी हुई हैं। सो युवाओं को अपना स्वरोजगार जुटाने में उतने संसाधन उपलब्ध नहीं हो पा रहे हैं। डिग्री शिक्षा को लाखों करोड़ों के पैकेज से जोड़कर प्राइवेट यूनिवर्सिटी बेच रही हैं। वास्तव में इतना पैकेज तो दर्जन भर छात्रों को मिलता है और सैकड़ो छात्र अपने परिवार को लाखों के कर्ज में ला रहे हैं।
ये होना चाहिए था
होना यह चाहिए कि मंहगी शिक्षा की जगह तीन से छह माह में स्किल या कौशल बढ़ाने वाले संस्थानों को ब्लाक स्तर पर खोला जाये। आधार कार्ड का उपयोग बैंक से लेकर कौशल निर्माण के कोर्स दर्ज करने में अनिवार्य किया जाये। सरकार घोषणा करे कि पुलिस, फौज, डाक्टर और शिक्षा क्षेत्र में हर साल कितनी भरती की जायेगी। ताकि अंधाधुंध इंजीनियर और अनाप शनाप एमबीए कोर्सो पर परिवार लुटने से बचाये जा सके और यही पैसा इन युवाओं के स्वरोजगार में परिवार खर्च करे।
युवाओं और युवतियों का रुझान
उत्तराखंड में आज युवतियां घरों में अल्प संसाधनों से मशरूम उत्पादन को स्वरोजगार में ढाल चुकी हैं। बुटिक में सिलाई कढ़ाई और ड्रेस डिजाइनिंग, जूस, आचार कर फूड प्रोसेसिंग में हाथ आजमा रही हैं। युवाओं ने टूरिज्म और होटल इंडस्ट्री को स्वरोजगार के लिए अपनाया है। टैंट टूरिज्म, ट्रेकिंग गाइड, रेस्ट्रां, काफी हाउस, कैब ड्राइविंग, मुर्गी पालन में कुडकनाथ जैसे मंहगे चिकन, डेरी फार्मिंग में स्वरोजगार का आंकड़ा और भी बेहतर हो सकता है।
नारों को हकीकद में बदलना जरूरी
अब सरकार को अपने स्टार्ट अप इंडिया, आपदा में अवसर के नारों को हकीकत में बदलने के लिए स्वरोजगार में लगे युवाओं की बाधाओं को दूर करने के लिए विशेष प्रयास करने हैं। इन युवाओं को किसी भी किस्म के प्रमाणपत्र को उनके द्वार पर फ्री में मुहैया कराने के प्रयास से स्वरोजगार की यह मुहिम परवान चढ़ सकती है।
सुरक्षित टूरिज्म की जरूरत
इंफ्रास्ट्रक्चर के नाम पर केदारनाथ में रोप वे जैसी योजनाओं को ठंडे बस्ते से बाहर लाकर तुरंत पूरा करना जरूरी है। ताकि चार धाम बंद होने के बाद भी बर्फबारी देखने के लिए शीत पर्यटन के लिए हमारा प्रदेश आदर्श सर्किट बनकर उभरे और स्वरोजगार के अवसर बने। कुछ हैली कंपनियों से सांठगांठ करके केदारनाथ जैसी रोप वे योजनायें जानबूझकर उपेक्षित है। पूरे विश्व में सुरक्षित टूरिज्म के लिए पहाड़ों पर टूरिस्ट ट्रैफिक बढ़ाने के लिए रोप वे या केबिल कार परियोजनायें चलायी जा रही हैं।
स्वरोजगार से जुड़ने वालों पर गिद्ध नजर
सिक्किम में होम स्टे और टूरिज्म से जुड़े वाहनों को विशेष प्रोत्साहन मिलने से युवाओं ने बर्फीली सर्दियों में भी स्वरोजगार को भरपूर लाभ में बदल लिया है। पौड़ी में एक परिवार बंबई से लौट कर जूस और आचार का स्वरोजगार कर रहा है। इन की आय पर सरकारी कर्मचारी गिद्ध दृष्टि रखने लगे हैं। सरकारी जंगलों में बुरांस के फूल बिखरकर नष्ट हो जाते हैं, लेकिन वन विभाग इस परिवार को बुरांस के फूल चुनने के लिए अनावश्यक बाधा बना हुआ है। बुरांस के पेय को लोकप्रिय बनाने और रोजगारपरक बनाने के लिए सरकार को पहल करनी है। अन्यथा नेताओं के जुमले रोजगार का सृजन करने में नाकाफी हैं।
शराब तक ही सीमित है सरकार
उत्तराखंड सरकार का सबसे लोकप्रिय शराब उद्योग पांच छह सौ ठेकों तक सीमित है और तीन हजार से ज्यादा का राजस्व सरकार हासिल करती है। इस धंधे से जुड़े खिलाड़ी करोड़ों का वारा न्यारा कर लेते हैं। स्वरोजगार के लिए पूरे प्रदेश में स्थानीय युवाओं को गोवा प्रदेश की तर्ज पर दुकानों का लाइसेंस जारी किये जा सकते हैं। ताकि कुछ दर्जन लोगों की मोनोपोली टूटे और हजारों युवाओं को स्वरोजगार हासिल हो।
आजादी से पहले से है आत्मनिर्भर का मंत्र
आत्मनिर्भर होने का मंत्र आजादी से पहले नागरिकों में प्रचलित है। तमाम निजी कार्य कलाप और छोटे स्तर पर कलाकृतियों का निर्माण, फोटोग्राफी, लोकगीत, संगीत, आदिवासी समाज आदि तमाम क्षेत्रों में बिना सरकारी संरक्षण के भी लोग सदियों से अपना जीवन यापन करते आ रहे हैं। हिमाचल में बागवानी और टूरिज्म रोजगार के अवसर बढ़ाने में सफल हुए हैं। इन राज्यों में सरकारी नौकरी का मोहजाल छूट रहा है।
लेखक का परिचय
भूपत सिंह बिष्ट
स्वतंत्र पत्रकार, देहरादून, उत्तराखंड।
लोकसाक्ष्य पोर्टल पाठकों के सहयोग से चलाया जा रहा है। इसमें लेख, रचनाएं आमंत्रित हैं। शर्त है कि आपकी भेजी सामग्री पहले किसी सोशल मीडिया में न लगी हो। आप विज्ञापन व अन्य आर्थिक सहयोग भी कर सकते हैं।
वाट्सएप नंबर-9412055165
मेल आईडी-bhanubangwal@gmail.com
भानु बंगवाल, देहरादून, उत्तराखंड।