विश्व का पहला ऐसा स्मारक, जिसे शत्रु की वीरता से प्रभावित होकर बनाया अंग्रेजों ने, जानिए विस्तार से
लेखक-देवकी नंदन पांडे
देहरादून में खलंगा स्मारक विश्व में शायद पहला स्मारक है, जिसमें विजयी अंग्रेज सेना ने अपने शत्रु गोरखों की वीरता से प्रभावित होकर इसे निर्मित किया है। यह स्मारक विजयी और पराजित दोनों की शौर्य गाथा को एक ही आधार के दो भिन्न स्तम्भों में दर्शाता है। यह स्मारक सहस्त्रधारा
मार्ग पर देहरादून मुख्यालय से 4 किलोमीटर की दूरी पर सड़क के किनारे स्थित है।
इस स्मारक में 1814 के गोरखा-अंग्रेज युद्ध के अंग्रेज सेनापति मेजर जनरल जिलेस्पी तथा उनके सैन्य अधिकारियों एवं गोरखा सेनापति बलभद्र व सहयोगियों के साहस और वीरता का उल्लेख किया गया है। नेपाल नरेश की लम्बे समय से इच्छा थी कि गढ़वाल जैसे सम्पन्न राज्य को अधीनस्थ कर शासन चलाये।

सन् 1800 ईसवी से पूर्व नरेश की यह प्रबल इच्छा प्रयासों के बावजूद साकार न हो सकी। सन 1803 में गढ़वाल राज्य जब भूकम्प से त्रस्त था, नेपाल शासकों ने विवशता का लाभ उठाते हुए समय को अपने अनुकूल जानकर गढ़वाल में प्रवेश किया। उस समय उपजे प्रकृति के तांडव से गढ़वाल के शासक प्रद्युम्न शाह गोरखों की सेना के विरोध हेतु समुचित तैयारी के बिना श्रीनगर से देहरादून पलायन कर गये। गोरखा सेना मोहण्ड दर्रे से आगे बढ़ते हुए जनवरी 1804 में देहरादून में प्रवेश कर गयी।
खुड़बुड़ा में हुए युद्ध में गढ़वाल राजा प्रद्युम्न शाह हुए शहीद
देहरादून के खुड़बुड़ा क्षेत्र में गढ़वाल राजा प्रद्युम्न शाह और गोरखों के मध्य युद्ध हुआ। युद्ध में प्रद्युम्न शहीद हो गये। तदुपरान्त नेतृत्व विहीन गढ़वाल रियासत की सेना युद्ध मैदान से हट गयी। अब गोरखा सेनापति अमर सिंह थापा व उसके सैनिकों का सम्पूर्ण देहरादून क्षेत्र में शासन कायम हो गया। यह शासन 1814 तक बना रहा।
राजा सुदर्शन शाह ने अंग्रेजों से मांगी सहायता
देहरादून से गोरखा शासन समाप्त कराने के लिये गढ़वाल राजा सुदर्शन शाह ने अंग्रेजों से सहायता मांगी। अंग्रेजों ने गोरखा शासन को देहरादून से समाप्त करने का दायित्व 70 वर्षीय मेजर जनरल जिलेस्पी को सौंपा। अंग्रेजों ने सुदर्शन शाह को सैन्य मदद देने के बदले में गढ़वाल रियासत के कुछ क्षेत्रों की मांग की। सुदर्शन शाह अपने राज्य को वापिस प्राप्त करना चाहते थे, अत: उन्होंने अंग्रेजों की शर्त को मानते हुए अपना व जनता का सहयोग देने का वायदा निभाया।
अंग्रेजों के आगमन पर गोरखा सेना ने प्राचीन किले में बनाया मोर्चा
गढ़वाल नरेश सुदर्शन शाह और अंग्रेजों के मध्य हुई वार्ता के बाद अंग्रेज सेना देहरादून की ओर अग्रसर हुई। लेफ्टिनेंट कर्नल कारपेन्द्र ने कालसी पर अधिकार किया। कर्नल मोवी 20 अक्टूबर 1814 को मोहण्ड दर्रा पार कर खुडबुड़ा के मैदान में आ डटा। अंग्रेजी सेना के आगमन की सूचना पाते ही गोरखा सेना नालापानी पहाड़ी पर 3 हजार फीट ऊँचाई पर बने प्राचीन किला खलंगा में चली गयी। गोरखा सैनिकों ने किले के बाहर बचाव के लिए पत्थर, पेड़ व मिट्टी आदि से चौकी का निर्माण कर डाला। खलंगा किले में 400 गोरखा सैनिक व उनके परिवार सदस्य थे।
अंग्रेजों की सेना ने की घेराबंदी
गोरखा सेना के नेतृत्व का भार अमर सिंह थापा के पौत्र बलभद्र के सुपुर्द था। अंग्रेज सेना ने बलभद्र थापा को समर्पण के लिए पत्र भेजा। बलभद्र ने समर्पण की बात ठुकरा कर पत्र को फाड़कर अंग्रेजी सेना को युद्ध का न्यौता दे डाला। अंग्रेजी सेना ने किले की पहाड़ी को चारों ओर से घेर जनरल जिलेस्पी के नेतृतव में 24 अक्टूबर को युद्ध का बिगुल बजा दिया। युद्ध के प्रत्युत्तर में गोरखा सैनिक, बच्चों व महिलाओं ने भी भरपूर सहयोग दिया। परिणामस्वरूप अंग्रेजी सेना को चुप्पी साध लेनी पड़ी।
लगातार हमलों के बाद अंग्रेंजों ने जीता किला
31 अक्टूबर को दूसरे हमले में जनरल जिलेस्पी ने पश्चिमी दिशा से किले पर आक्रमण किया। अंग्रेज सेना तीन अन्य दिशाओं में विभक्त होने के कारण जिलेस्पी को गोली का शिकार होना पड़ा। इस युद्ध में जिलेस्पी के अतिरिक्त लेफ्टिनेंट ओहरा, कैप्टन वायर्स तथा कई अन्य सैनिक भी दिवंगत हुए। जिलेस्पी की मृत्यु के पश्चात कर्नल मोबी ने कमान संभाल तोपों के साथ किले पर धावा बोला। 25 नवम्बर के इस युद्ध में बल के साथ छल का भी प्रयोग किया गया।
किले की ओर जाने वाले पानी स्रोत को तोड़ दिया गया। तोप के गोलों की मार से किले की दीवार कई स्थानों से टूट गई। दूसरी ओर पीने के पानी के अभाव में गोरखा सैनिक त्रस्त हो चुके थे। अत: बलभद्र थापा शेष सत्तर साथियों के साथ किला छोड़ भाग खड़ा हुआ। युद्ध विजय के उपरान्त अंग्रेजों ने रिस्पना नदी के तट पर जनरल जिलेस्पी, अन्य अंग्रेज सैन्य अधिकारी व बलभद्र थापा की वीरता की स्मृति में एक स्मारक खड़ा किया। यही स्मारक खलंगा कहलाया।
ब्रिटिश कालोनी विकसित करने का प्रयास
ब्रिटिश सेना द्वारा देहरादून को गोरखा सैनिकों के अधिकार से मुक्त कराने के पश्चात् 17 नवम्बर सन् 1815 को अंग्रेज सरकार ने एक आदेश के अन्तर्गत देहरादून को अपने अधिकार में ले लिया तथा सहारनपुर के तत्कालीन कलेक्टर बिन्डल ने अपने सहायक के रूप में कालवरी को प्रशासकीय कार्यों की देखरेख के लिए नियुक्त कर दिया। कुछ वर्षों के उपरान्ना संयुका मजिस्ट्रेट के रूप में कार्यरत एफ. जे. शोर को सन् 1822 में देहरादून का अधीक्षक बना दिया गया। तब एफ जे.शोर सिरमौर रायफल्स के कमाण्डर कैप्टन यंग के आदेशों के परिपालन में जुट गये।
लगभग सोलह वर्षों के पश्चात् अंग्रेज वरिष्ठ अधिकारियों ने सन् 1836 में दून घाटी में ब्रिटिश परिवारों को चलाने का निर्णय लिया। इस निर्णय के तहत ब्रिटिश सैन्य अधिकारी, व्यापारी व नागरिकों को समान अधिकारों के साथ ग्रांट के रूप में कृषि योग्य भूमि सशर्त सुपूर्द की गयी। ग्रान्ट में दी गयी भूमि, अटिका या अटिक फार्म, आर्केडिया, मरखम, इन्सिफाइल, एल्डीवर, होपटाउन, कार्गी बघौत, भारूवाला व नागल आदि नामों से थी।
कुछ वर्ष उपरान्त जब ऑकलैन्ड तत्कालीन गवर्नर जनरल देहरादून पधारे तो उन्होंने ग्रान्ट में आवंटित भूमि का अवलोकन किया। भूमि पर उत्पादित गने व धान की लहलहाती फसल को देखकर प्रसन्नता प्रकट की। लेकिन यह प्रशंसा ग्रांट्स में काबिज अंग्रेज अधिकारियों को राहत न दे पाई। ऑकलैन्ड को जब भूमि दस्तावेजों का निरीक्षण करने से ज्ञीत हुआ कि ग्रान्ट भूमि, जिन अंग्रेज परिवारों के लिए वर्गीकृत की गयी थी, उन्हें आवंटित न कर वरिष्ठ अंग्रेज प्रशासकीय अधिकारियों ने अपने अधिकार में लेकर पद का दुरूपयोग किया है।
इस प र आकलैन्ड ने तत्काल आदेश पारित कर ग्रान्ट में कावित समस्त अंग्रेज अधिकारियों को 1 जनवरी 1845 तक था तो नौकरी छोड़ने या फिर ग्रान्ट्स की भूमि छोड़ने का विकल्प दिया। परिणामत: ग्रान्ट्स की भूमि पर काबिज सिरमौर राइफल्स के कमांडर यंग व मजिस्ट्रेट फिशर, लेफ्टिनेंट शिर्के, सहायक सर्जन डा0 गे आदि ने आदेश का परिपालन करते हुए अपने-अपने
भू-स्वामित्व का परित्याग कर दिया।
इस तरह विपरीत परिस्थितियों के कारण अंग्रेजों को देहरादून में ब्रिटिश कालोनी विकसित करने की योजना अधूरी रह गयी। कालागार में अंग्रेज अधिकारियों को लगन व प्रशासकीय सूझ-बूझ ने दून घाटी को सम्पन्नता की ओर अग्रसर किया। सड़कों व नहरों के निर्माण से भूमि की उपजाऊ शक्ति ने असर दिखलाया। धान की उत्तम किस्म व गन्ने की पैदावार ने सम्पन्नता के द्वार खोले। सन् 1900 में रेल लाइन को हरिद्वार से देहरादून तक जोड़ने से सेवानिवृत्त ब्रिटिश अधिकारी, एंग्लो इण्डियन्स व भारतीयों की एक बड़ी संख्या देहरादून व मसूरी आकर बसने लगी। इस तरह देहरादून में विकास के अध्याय की शुरूआत हुई।
लेखक का परिचय
लेखक देवकी नंदन पांडे जाने माने इतिहासकार हैं। वह देहरादून में टैगोर कालोनी में रहते हैं। उनकी इतिहास से संबंधित जानकारी की करीब 17 किताबें प्रकाशित हो चुकी हैं। मूल रूप से कुमाऊं के निवासी पांडे लंबे समय से देहरादून में रह रहे हैं।
Bhanu Bangwal
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भानु बंगवाल, देहरादून, उत्तराखंड।