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November 22, 2024

उत्तराखंड का खूबसूरत पर्यटन स्थल नैनीताल, जानिए कैसे हुई खोज, इसकी खासियत

उत्तराखंड राज्य का सुगम और देशी-विदेशी पर्यटकों का सर्वप्रिय नैनीताल, उत्तर रेलवे के अन्तिम स्टेशन काठगोदाम से 35 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। देश के सबसे सुन्दर राजपथों में इस मोटर मार्ग की गिनती है।

उत्तराखंड राज्य का सुगम और देशी-विदेशी पर्यटकों का सर्वप्रिय पर्यटन स्थल नैनीताल, उत्तर रेलवे के अन्तिम स्टेशन काठगोदाम से 35 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। देश के सबसे सुन्दर राजपथों में इस मोटर मार्ग की गिनती है। लगभग डेढ़ घंटे में यात्री काठगोदाम से मोटर के जरिये नैनीताल के सरोवर किनारे तल्लीताल नामक स्थान पर पहुँच जाते हैं। नैनीताल जिले के भौगोलिक क्षेत्रफल 4251 वर्ग किलोमीटर है। वर्ष 2011 की जनगणना के मुताबिक यहां की जनसंख्या 9,54,605 है।


ऐसे पड़ा नाम
नैनीताल का नाम किनारे पर स्थित ‘नैनी’ देवी के मंदिर और उस ताल से पड़ा है जो प्राचीन काल से पुराणों में त्रिऋषि सरोवर कहा गया है। ताल की समुद्रतल से ऊँचाई 6356 फीट है। ताल ऊँची श्रेणियों के मध्य में स्थित है, जो पूर्व से पश्चिम की ओर चली गयी है। उत्तर में चीना श्रेणी 8568 फीट की ऊँचाई पर समाप्त होती है। इसी चोटी का क्रम ‘शेर का डांडा’ पूर्व की ओर ताल पर आकर समाप्त होता है। पश्चिम में देवपथ की चोटी 8000 फीट तक चली गयी है और दक्षिण में अयाँरपाटा लगभग 7500 फीट की ऊँचाई पर जाकर पूर्व की ओर उतरती चली गयी है।
167 साल पूर्व था निर्जन स्थान
जिस नैनीताल में यात्रियों को गर्मियों में स्थान मिलना कठिन हो जाता है, वही लगभग 167 वर्ष पूर्व एक निर्जन तीर्थ स्थान था। 1.6 किलोमीटर लम्बे सरोवर के किनारे नैना देवी का मन्दिर था, जिसमें आस-पास के गाँवों के लोग वर्ष में केवल एक बार पूजा करने आते थे। तराई-भाबर के जंगली जानवर और कभी-कभी हाथी भी इस सरोवर
का आनन्द लेते थे। अत: अकेले किसी चरवाहे को भी इसके किनारे आने का साहस नहीं होता था।


भव्य रूप देने का श्रेय अंग्रेज यात्री को
नैनीताल को एक भव्य नगरी का रूप देने का सारा श्रेय पी बैरन नामक अंग्रेज यात्री को है। वह स्वयं को ‘पिलग्रिम’ नाम से पुकारता था। पहाड़ों में, विशेषतः हिमालय की कन्दराओं में भ्रमण करने का उसे बड़ा शौक था। वह सन् 1843 के लगभग जोशीमठ-बदरीनाथ होते हुए कुमाऊँ में पर्वतों के मध्य इस ताल की खोज में पहुँचा। पवित्र सरोवर के अपवित्र हो जाने की आशंका से पहले तो चरवाहों ने उसे यह कह कर लौटा देना चाहा कि ऐसा कोई ताल इन पर्वतों के मध्य है ही नहीं। उनको किसी न किसी प्रकार समझा-बुझाकर बैरन ने ताल के दर्शन कर ही लिये। शीघ्र ही ताल का वर्णन तत्कालीन अंग्रेजी पत्र ‘आगरा अखबार हिल्स’ तथा ‘देहली गजट’ में प्रकाशित हुआ।
वास्तविकता कुछ अलग
आमतौर पर सभी इतिहासकार यह बात मानते हैं कि पी बैरन नाम के अंग्रेज ने ही नैनीताल की खोज की, परन्तु वास्तविकता इसके विपरीत है कि बैरन पहला अंग्रेज था, जो नैनीताल पहुंचा था। सन् 1815 में कुमाऊँ पर ब्रिटिश राज्य का अधिकार हो जाने के पश्चात 3 मई 1815 को ई. गार्डनर को कुमाऊं का कमिश्नर नियुक्त किया गया। 8
जुलाई 1875 को उसके सहायक के रूप में जी डब्ल्यू ट्रेल की नियुक्ति की गई। शीघ्र ही ट्रेल ने कमिश्नर का पद संभाला लिया।
सन् 1817 में ट्रेल ने कुमाऊँ में दूसरा बन्दोबस्त कराया। इसी अवधि में उसे नैनीताल का पता लगा। ट्रेल चूँकि पर्वतीय लोगों के विश्वास और परम्पराओं का बहुत आदर करता था और नैनीताल की पवित्रता को आँच नहीं आने देना चाहता था, उसने नैनीताल की अपनी यात्रा का प्रचार नहीं किया। इसके बावजूद नैनीताल जैसी सुन्दर जगह जो मैदानी क्षेत्रों के बहुत निकट थी और वातावरण व प्राकृतिक सौन्दर्य की दृष्टि से अपूर्व थी, अधिक दिन तक अछूती न बच सकी।
उत्तर पश्चिमी प्रदेश की ग्रीष्मकालीन राजधानी घोषित
धीरे-धीरे स्वास्थ्य लाभ के दृष्टिकोण से विकसित होने लगी। 1850 तक यह नगर इतना बस चुका था कि इसे नगरपालिका का दर्जा दे दिया गया और 1860 में इसे उत्तर पश्चिमी प्रदेश की ग्रीष्मकालीन राजधानी घोषित कर दिया गया। परिणामस्वरूप नैनीताल का विकास द्रुत गति से होने लगा। 28 अप्रैल 1936 को सत्तर हजार रुपयों की लागत से मालरोड पर तारकोल बिछाया गया। सन् 1882 में काठगोदाम के रेलवे लाइन से जुड़ जाने और 1901 में नैनीताल को जिला घोषित किये जाने से नगर के विकास को और भी गति मिली।


भारतीयों में सबसे पहले मोतीराम शाह ने बनााय भवन
भारतीयों में सबसे पहले लाल मोतीराम शाह ने यहाँ भवन बनाया। उस समय बारह आना एकड़ जमीन का मूल्य था। प्रान्तीय लाट यहाँ सन् 1857 के पश्चात् रहने लगे। सन 1862 में रामजे अस्पताल के समीप उनको कोठी बनी। बाद में सन 1879 से 1895 तक लाट साहब की कोठी सेन्ट लू में रही। सन 1895 में दरारें पड़ने से कोठी
खतरनाक समझकर लाटसाहब को शेरवुड में स्थानान्तरित कर दिया गया। 1900 में नया विशाल भवन निर्मित किया गया। लाटों में सबसे पहले यहाँ ड्रमंड साहब आये। नवाब सर सैयद अहमद खाँ (नवाब छतारी) इस प्रांत के भारतवासियों में एकमात्र लाट थे जो चार माह तक सर म्यूडी मैन के मरने पर सन 1933 में लाट के पद पर रहे।
150 सेमी से अधिक बारिश ने किया नुकसान
पहला असेम्बली भवन सन् 1880 में पहाड़ सिखाकने से दब गया। तदुपरान्त दूसरा असेम्बली भवन (नाचघर) सन 1987 में बना। सन 1930 में आग से जल जाने के कारण नया असेम्बली भवन 1932 में अठारह लाख आठ हजार की लागत से बना। रामजे अस्पताल 1892 में तथा कौस्वेट अस्पताल 1896 में चंदा एकत्र कर निर्मित
किये गये। सन 1880 में वहाँ 150 सेमी. से भी अधिक वर्षा हुई, जिससे जान-माल की अत्याधिक हानि हुई।
1922 में हुई बिजली की व्यवस्था
चुंगी बोर्ड सन 1845 से आरम्भ हुआ, तब आमदनी लगभग नौ सौ रूपये वार्षिक थी, जो 1932 में बढ़कर पाँच हजार एक सौ बत्तीस रूपये तक हुई। सन 1979 में जब प्रान्त के अधिकतर नगरों में मिट्टी के तेल के लैम्प जल रहे थे। तब नैनीताल ने विद्युत परियोजना हाथ में ली और 1922 में ही बिजली के प्रकाश ने सरोवर नगरी को जगमगा दिया।
भाप के इंजन से टंकी में पहुंचाया जाता था पानी
नैनीताल शहर में जल वितरण कार्य अप्रैल 1999 से आरम्भ हो गया था। पहले पहल भाप के इंजन से पानी पहाड़ों के ऊपर स्थित टंकी में पहुँचाया जाता था। जहाँ से नगर के विभिन्न क्षेत्रों में इसका वितरण होता था। 1922 में विद्युत व्यवस्था हो जाने पर भाप के इंजन हटाकर नये विद्युत चलित पम्प लगाये गये और जल वितरण व्यवस्था को सुव्यवस्थित किया गया।


सुविधाएं बढ़ी तो पर्यटक हुए आकर्षित
भौतिक सुविधाओं के बढ़ने के साथ ही पर्यटक नैनीताल की ओर आकर्षित होते चले गये। जिस समय पर्यटन एक लाभप्रद व्यवसाय के रूप में उभर रहा था, प्रसिद्ध शिकारी जिम कार्बेट की माँ मेरी जेरी नैनीताल की प्रथम ‘सम्पति एवेन्ट’ बनी। वह ग्रीष्मकाल में भवन किराये पर दिया करती थीं। सन 1899 मैं काठगोदाम के रेल से जुड़ने का सर्वाधिक लाभ विकास पथ पर अग्रसरित नैनीताल को हुआ।
नैनीताल शहर के तल्लीताल तक प्रस्तावित थी रेल योजना
काठमोदाम से नैनीताल तक की यात्रा को अधिक आरामदेह बनाने हेतु पहाड़ी विद्युत रेल’ योजना 1989 में ही प्रस्तावित कर दी गयी थी। मेजर जनरल सीएस थामसन की इस पहाड़ी रेल का प्रस्तावित मार्ग काठगोदाम से रानीबाग, दो धारा, गजारी कोट, ज्यूलीकोट, बेलुवाखाना और मनोरा के निकट से होते हुए तल्लीताल पहुंचना था। इस ट्रेन की अपेक्षित न्यूनतम क्षमता प्रतिदिन पचास टन सामान, तीस प्रथम तथा डेढ़ सौ तृतीय श्रेणी के यात्री थे।
इसलिए सफल नहीं हो सकी योजना
प्रस्तावक द्वारा अधिक सुविधाओं की माँग व कमजोर भूगर्भीय बनावट के कारण शिमला व दार्जिलिंग को भौति नैनीताल तक ट्रेन पहुँचाना सम्भव न हो सका।
सन् 1887 में रोपवे की योजना भी बनायी गयी। इसी वर्ष ‘नैनीताल रोपवे कम्पनी’ की स्थापना हुई और इस कार्य के लिए लाला दुर्गा साह ने वीरभट्टी में भूखंड भी खरीदा परन्तु यह कम्पनी कार्य आरम्भ न कर सकी, फलतः योजना समाप्त कर दी गयी।
ऐसे बढ़े सैलानी
सन 1960 में उत्तर प्रदेश सरकार ने निर्णय लिया कि गर्मियों में सचिवालय नैनीताल स्थानान्तरित नहीं किया जायेगा। प्रारम्भिक चरण में इसके विकास को इस निर्णय से आघात पहुँचा, लेकिन 1965 तथा 1971 के भारत-पाक युद्ध के कारण सैलानियों का कश्मीर न जाकर नैनीताल आने के कारण पर्यटन उद्योग को अकस्मात बढ़ावा मिला। 1972 तक नैनीताल एक सुविख्यात पर्यटन स्थल के रूप में विकसित हो चुका था।


यहां से हिमालय के होते हैं दर्शन
नैनीताल के चतुर्दिक पहाड़ी श्रेणियों पर वन बिहार के लिए अनेक सुन्दर स्थान हैं। चीना पीक पर चढ़ने के लिए प्रतिदिन कई साहसी दर्शक पैदल ही प्रात:काल चल दिया करते थे, परन्तु अब रोपवे स्थापित होने से चीना पीक पर चढ़ना और उतरना मात्र टहलने के समान हो गया है। चीना पीक से हिमालय का सुन्दर दृश्य दृष्टिगोचर होता है। आकाश को छूती हुई हिम श्रेणियाँ कतार बाँधे खड़ी अपनी विशाल निकटता से दर्शक को विस्मय में डाल देती हैं।


यहां से पूरे नैनीताल का होता है दीदार
अयारपाँटा के एक छोर पर ‘शेरवुड’ के पास एक श्रेणी पर ‘टिफिन टॉप’ नाम का टीला है। यह अंग्रेजों के पिकनिक का सर्वप्रिय स्थान था। यहाँ से समस्त नैनीताल के एक दृष्टि से दर्शन हो जाते हैं। चट्टान के सिरे पर एक चबूतरा सा बना है। जिस पर खड़े होकर ऐसा जान पड़ता है कि मानो बादलों के मध्य हों। टिफिन टॉप से कुछ नीचे उतरकर प्लेटो स्थान मिलता है। जिस पर गवर्नमेन्ट हाउस की सुन्दर इमारत है। यह स्थान अपने पुष्प उद्यान तथा गोल्फ के मैदान के लिए प्रसिद्ध है। यह उत्तराखंड के राज्यपाल का ग्रीष्णाकालीन निवास है। प्रत्येक रविवार को इसके सुन्दर पुष्प उद्यान का अवलोकन करने के लिए पर्यटकों के समूह आते रहते हैं।
इस टीले से दिखता है खूबसूरत नजारा
इसी स्थान के निकट झंडोधार नामक ऊँचा टीला है। जिस पर गर्वनर का झंडा फहराया जाता है। यहाँ से लगभग 48 किलोमीटर की परिधि में फैले तराई के खेत, दौड़ती हुई रेल और पहाड़ से नीचे उतरती हुई चक्करदार मोटर सड़क का दृश्य बड़ा ही चित्ताकर्षक लगता है।


आकर्षण का केंद्र है मैदान
नैनी झील यानी ताल, जिसकी लम्बाई 1.6 किलोमीटर, चौड़ाई 800 मीटर तथा गहराई लगभग 30 मीटर है। इसके एक कोने पर विशाल मैदान है, जहाँ उत्सव, मेला, राजनेताओं के भाषण व विभिन्न खेल प्रतियोगितायें आयोजित की जाती है। यहां फुटबाल टूर्नामेंट भी काफी लोकप्रिय है।
सबसे ऊंची झील
नैनीताल झील विश्व की वह सबसे ऊँची झील मानी जाती है। जिसमें नौकायें तैरती है। यहाँ नौकाओं का संचालन नैनीताल बाट क्लब’ करता है। यहां पालदार नौकाओं से भारत का परिचय अंग्रेजों ने कराया। उन्होंने वर्ष 1846 में यहाँ का पहला ‘याट क्लब’ गठित किया। क्लब का नाम ‘रायल बाम्बे याट क्लब’ और इसका मुख्यालय बंबई (मुंबई) में बनाया गया। नैनीताल में ताल नौकायन प्रारम्भ वर्ष 1880 में हुआ। यहाँ नौकायन को प्रोत्साहित करने के लिए अंग्रेजों ने एक क्लब गठित किया, लेकिन यह अधिक दिन तक चल नहीं सका। वर्ष 1890 में कैरे बन्धुओं की पहल पर नैनीताल क्लब गठित हुआ। यह क्लब तब अंग्रेजों द्वारा अंग्रेजों के लिए बनाये गये, नैनीताल क्लब लिमिटेड का ही एक हिस्सा था। यद्यपि इसका पंजीकरण 1891 में ब्रिटेन की याट रेसिंग एसोसियेशन’ से सम्बद्ध करते हुए किया गया। स्वतंत्रता प्राप्ति के दो माह पश्चात यानी अक्टूबर 1947 में सरकार ने नैनीताल क्लब लिमिटेड भंग कर दिया था और उसकी परिसम्पत्ति जब्त कर ली।


तब से नैनीताल क्लब 9 नवम्बर 2000 तक उत्तर प्रदेश सरकार की और तदुपरान्त उत्तराखण्ड सरकार की सम्पत्ति है। अब इसे सरकारी आवास के रूप में प्रयोग में लाया जाता है। नैनीताल क्लब के भंग होने के उपरान्त नैनीताल याट क्लब का अस्तित्व भी समाप्त हो गया। कमोवेश इसी कारण यहाँ पाल नौकायन भी बन्द हो गया। 1990 में तत्कालीन पालिकाध्यक्ष की पहल पर यहाँ पाल नौकायन को पुनर्जीवित करने की इच्छा से ‘बोट हाउस क्लब’ बनाया गया। नौकायन के क्षेत्र में पाल नौकायन को प्रोत्साहित करने के लिए बोट हाउस क्लब का यह एक प्रभावी प्रयास है।

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लेखक का परिचय
लेखक देवकी नंदन पांडे जाने माने इतिहासकार हैं। वह देहरादून में टैगोर कालोनी में रहते हैं। उनकी इतिहास से संबंधित जानकारी की करीब 17 किताबें प्रकाशित हो चुकी हैं। मूल रूप से कुमाऊं के निवासी पांडे लंबे समय से देहरादून में रह रहे हैं।

सभी फोटोः साभार सोशल मीडिया

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