आत्मा के संस्कार के बिना सब शिक्षा बेकारः माधव सिंह नेगी
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किसी भी देश की शिक्षा व्यवस्था उस देश के सामाजिक एवं साँस्कृतिक दर्शन, पर्यावरण तथा उस समाज के मानव जीवधारियों के विषय में व्याप्त अवधारणाओं पर निर्भर करता है।
किसी भी देश की शिक्षा व्यवस्था उस देश के सामाजिक एवं साँस्कृतिक दर्शन, पर्यावरण तथा उस समाज के मानव जीवधारियों के विषय में व्याप्त अवधारणाओं पर निर्भर करता है। साथ ही साथ जीवन-यापन के लक्ष्यों को समाज किस क्रम एवं सापेक्षित महत्ता से देखता है। यह भी उस देश की शिक्षा नीति को प्रभावित करता है। आज समाज की आवश्यकताएँ बदल गयी हैं। तो शिक्षा व्यवस्थाएँ भी परिवर्तित हो चुकी हैं।
शिक्षा नीतियों में महत्वपूर्ण स्थान पर तकनीकी एवं प्रौद्योगिकी ने अपना वर्चस्व बना लिया है, लेकिन भारतीय संस्कृति में मानव की संकल्पना केवल उसके शरीर, उसके विकास तथा सम्बन्धित व्यापारों तक ही सीमित नहीं है। यहाँ के साहित्य, दर्शन एवं धर्म ग्रन्थों में बालक को एक आध्यात्मिक सत्ता के रूप में स्वीकार किया गया है। इस बात की सम्भावना में विश्वास व्यक्त किया है कि प्रत्येक व्यक्ति में चैत्य-पुरुष तथा अन्तरात्मा व्याप्त है। प्रत्येक व्यक्ति में महत्तर चेतना की सम्भावना मौजूद है, जिसकी सहायता से व्यक्ति उच्चत्तर और अधिक व्यापक जीवन व्यतीत कर सकते हैं। वस्तुतः यही चेतना सभी असाधारण व्यक्तियों के जीवन को शासित करती है।
भारतीय शिक्षा का दर्शन महर्षि अरविन्द ने पाँच आयामों में विभक्त किया है। उनके अनुसार -शारीरिक, प्राणिक, मानसिक, अन्तरामिक एवं आध्यात्मिक शिक्षा के मुख्य आयाम हैं। जहाँ पाश्चात्य शिक्षा दर्शन के व्यक्ति संवेदनात्मक, भावात्मक , संवेगात्मक, बौद्धिक, सामाजिक तथा शिक्षा के नैतिक आयामों पर बल देता है, वहाँ भारतीय शिक्षा दर्शन में ये सभी पक्ष उपरोक्त पाँच आयामों में समाविष्ट हैं। परन्तु शिक्षा के इन पक्षों के साथ भारतीय दर्शन में अन्तरात्मिक एवं आध्यात्मिक आयामों को महत्वपूर्ण स्थान दिया गया है।
भारतीय परिवेश में इन दोनों पक्षों के अभाव में शिक्षा का स्वरूप सीमित एवं एकपक्षीय रह जाता है।अतः शिक्षा के सर्वांगीण लक्ष्य की प्राप्ति हेतु विकास के क्रम में शिक्षा के स्तर के अनुरूप इस पक्ष को पुष्ट करने की नितान्त आवश्यकता है। आध्यात्मिक शिक्षा से पूर्व अन्तरात्मिक शिक्षा पर सूक्ष्म प्रकाश डालना चाहूँगा।
हमारे दर्शन के अनुसार जब व्यक्ति अपने आप को केवल शरीर न मानकर आत्मा के रूप में पहचानने लगता है तब उसमें अपने जीवन के लक्ष्य को खोजने की ललक पैदा होती है, और वह उसके प्रति समर्पित हो जाता है। अतः हम कह सकते हैं कि अन्तरात्मिक शिक्षा व्यक्ति को किसी ऐसे लक्ष्य की ओर अग्रसर करती है जो सार्वभौमिक, सर्वव्यापी एवं सतत् हो। अन्तरात्मिक जीवन एक ऐसा जीवन है जो अमर और अनन्त है, असीम है, तथा नित्य प्रगतिशील परिवर्तनयुक्त है।
आध्यात्मिक शिक्षा
आध्यात्मिक शिक्षा, अन्तरात्मिक शिक्षा का ही विकसित रूप है। जब व्यक्ति अपनी आत्मा को पहचान लेता है तथा अपने चैत्य रूप के सम्पर्क में आता है तो उसकी आध्यात्मिक शिक्षा प्रारम्भ हो जाती है। ऐसी स्थिति में व्यक्ति आध्यात्मिक चेतना की अनुभूति करता है। आध्यात्मिक विकास का क्षेत्र व्यक्तिगत साधना का क्षेत्र है। इस साधना के साथ-साथ ही उसमें परा शक्तियों का विकास होता है।
जैसे संवेदनाओं के अतिरिक्त प्रत्यक्षीकरण तथा टैलीपैथी आदि। यद्यपि इस प्रकार की शिक्षा ग्रहण करना प्रत्येक व्यक्ति के लिए अनिवार्य नहीं है। परन्तु इस ओर अग्रसर होने की क्षमता के विकास की अपेक्षा भारतीय दर्शन प्रत्येक नागरिक से करता है, क्योंकि इसी क्षमता के विकास से जीवन को कल्याणकारी बनाने का मार्ग प्रशस्त किया जा सकता है।
अतः शिक्षा की दृष्टि से आज हमारी आवश्यकता है पाश्चात्य शिक्षा दर्शन, उसकी तकनीकियों एवं उनके प्रयोगों के परिणामों का पूर्ण लाभ उठाते हुए शिक्षा को अपनी साँस्कृतिक एवं आध्यात्मिक आधार शिला से संयुक्त करने की, जिससे मानव का वह स्वरूप विकसित हो सके जो हमारी साँस्कृतिक अवधारणाओं के अनुरूप हो सके। पारिवारिक जीवन में साँस्कृतिक व आध्यात्मिक पक्ष को प्रबल बनाने का प्रयास किया जाना चाहिए।
विद्यालय एवं कक्षाओं के वातावरण को यथा सम्भव सजीव व संस्कारक्षम बनाने का प्रयास किया जाना चाहिए, तथा यह ध्यान रखा जाना चाहिए कि वाँछनीय प्रवृत्तियों, अभिप्ररणाओं एवं आचार की प्रबलता को सशक्त दिशा मिल सके, छात्रों में लक्ष्यों की चेतना जाग्रत हो सके वह चुने वह लक्ष्यों की ओर प्रगति की अनुभूति कर सकें। उनमें स्वच्छता, अनुशासन, सौन्दर्य एवं साज-सज्जा के प्रति लगाव के साथ सहकारी भावना उदित हो सकें। अपेक्षा की जाती है कि इन स्थितियों की ओर धीरे-धीरे प्रगति करने से कक्षाएँ एवं विद्यालय अपने आप में सजीव जीवन का एक ही रूप बन जायेंगे।
धार्मिक, आध्यात्मिक, ऐतिहासिक एवं प्राकृतिक स्थलों की भ्रमण की योजनाओं को यदि दक्षतापूर्वक क्रियान्वित किया जाये तो छात्रों में सामाजिक संवेदनशीलता, सहकारिता एवं तादात्म्य-भाव के साथ-साथ पथ-प्रदर्शन की योग्यता, योजनाओं को संगठित करने की क्षमता एवं अन्तःप्रेरणा से कार्य करने की क्षमता आदि अनेक गुण विकसित किये जा सकते हैं।
अध्यापन कार्य के समय यह ध्यान रखने योग्य बातें हैं कि हमें छात्रों को केवल जानकारी मात्र नहीं देनी है बल्कि,इस जानकारी के साथ उनमें चिन्तन एवं समस्याओं के हल ढॅूढने की क्षमता, सत्य के प्रति निष्ठा, राष्ट्रीय गौरव की चेतना एवं सर्वव्यापी सत्ता के अस्तित्व में विश्वास जागृत करना है।
आत्मा का विकास ही चरित्र निर्माण है। यह व्यक्ति को ज्ञान प्राप्त करने योग्य तथा आत्म-साक्षात्कार के योग्य भी बनाता है। मेरा यह विश्वास है कि यह बच्चों की शिक्षा का मुख्य भाग है। आत्मा के संस्कार के बिना सब शिक्षा बेकार ही नहीं, अपितु घातक भी है। यह आध्यात्मिक शिक्षा से ही सम्भव हो सकता है।
अतः हम कह सकते हैं कि अपने देश के शैक्षिक चिंतन का मुख्य आधार आध्यात्मिकता ही रहा है। नैतिकता, आध्यात्मिक एवं धार्मिकता लगभग समान भाव वाले शब्द हैं। नैतिक शिक्षा हमारी शिक्षा व्यवस्था की प्रमुख अंग है। इसी के द्वारा बच्चों के आध्यात्मिक पक्ष को मजबूत किया जा सकता है।
लेखक का परिचय
माधव सिंह नेगी
प्रधानाध्यापक, राजकीय प्राथमिक विद्यालय जैली सिलगढ़, विकासखंड जखोली, जिला रुद्रप्रयाग, उत्तराखंड।
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भानु बंगवाल, देहरादून, उत्तराखंड।