एक शब्द मां, जिस पर लिखना भी मुश्किल, यादों में बसा है प्यार भरे सुख का अहसास
आज का दिन यानी कि 13 अप्रैल। इसे मैं कैसे भूल सकता हूं। कभी नहीं भूल सकता हूं। क्योंकि इस दिन की मेरी याद मां के साथ जुड़ी हैं। मां यानी एक शब्द। जिसे पुकारना आसान है, लेकिन उस पर लिखना उतना ही मुश्किल।
आज का दिन यानी कि 13 अप्रैल। इसे मैं कैसे भूल सकता हूं। कभी नहीं भूल सकता हूं। क्योंकि इस दिन की मेरी याद मां के साथ जुड़ी हैं। मां यानी एक शब्द। जिसे पुकारना आसान है, लेकिन उस पर लिखना उतना ही मुश्किल। ये शब्द इतना सरल है कि गाय भी जब बच्चे को जनती है, तो बच्चा भी पहली बार मां शब्द की तरह उच्चारण करता है। इंसान की औलाद भी जब बोलना सीखती है तो शायद सबसे पहले सीखे गए शब्दों में मां शब्द ही होगा। कुछ एक अपवाद को छोड़कर। 13 अप्रैल 2020 को बैशाखी पर्व था। तब कोरोना की शुरुआत हुई थी और सुबह छह बजे से दोपहर 12 बजे तक देहरादून में दुकानें आदि खुल रही थी। इसके बाद कर्फ्यू लग रहा था। इसी सुबह मां ने इस दुनिया को अलविदा बोला। इससे पहले करीब ढाई माह से मां बिस्तर में पड़ी हुई थी। सुबह पत्नी दलिया लेकर मां को खिलाने उसके कमरे में पहुंची। एक चम्मच मुंह में डाला तो कोई हरकत नहीं हुई। उसने मुझे पुकारा। मैं गया तो देखा मां तब तक निर्जीव हो चुकी थी।तब बड़ा बेटा टिहरी में टीएसडीसी इंजीयरिंग कॉलेज में अंतिम वर्ष और अंतिम सेमेस्टर का छात्र था। कोरोना कर्फ्यू की वजह से वह भी देहरादून में घर पर था। बड़ा भाई दिल्ली में था। ऐसे में घर से करीब दो किलोमीटर दूर स्थित दो बहनों को इसकी सूचना दी। भाई को फोन से बता दिया गया। घर में मेरे दो जीजा, दो बहन, एक भांजा, एक भतीजा और मेरे दो बेटे थे। कोरोना की वजह से आस पड़ोस के लोग आए, लेकिन किसी ने शव को हाथ नहीं लगाया। पंडितजी ने भी कर्फ्यू का हवाला देकर हाथ खड़े कर दिए। जैसे तैसे बच्चों ने अर्थी के सामान का इंतजाम किया। पहली बार सबने मिलकर अर्थी तैयार की। पंडितजी ने फोन से मंत्र पढ़े और क्रियाक्रम कराया। हम परिवार के लोग ही मां को घर से करीब डेढ़ किलोमीटर दूर श्मशान घाट लेकर चले। तब तक मेरे ममेरा भाई और एक चाचा भी श्मशान घाट पहुंच गए थे। साथ ही कुछ पत्रकार साथी व कुछ नेतागण भी आ गए। ये तो है उस दिन की कहानी। तब शायद मां की उम्र करीब 97 साल रही होगी। अब मां की कहानी की मैं रिकैपिंग करता हूं।
इस घटना के कई साल पहले से ही मां के व्यवहार में बदलाव आने लगा था। वह हर बात भूलने लगी थी। यहां तक कि हमें सिर्फ पहचानती थी, लेकिन किसी का नाम याद नहीं रहा। इतना जरूर है कि शरीर के लिहाज से वह फिट थी। कमरे से बाथरूम के चक्कर लगाती रहती थी। खुद खाना खाती थी, लेकिन पानी वह छोड़ चुकी थी। करीब तीन साल तक हम उसे पानी के बजाय जूस और दूध ही पिलाकर पानी की कमी को पूरा करते रहे। वह गेट के बाहर न जाए इसलिए घर के मैन गेट पर हम ताला लगाने लगे थे।
मां की आदत कुछ बच्चों की तरह हो चुकी थी। रात को मेरे सोने के बाद ही ना जाने कब सोती थी, मुझे इसका पता तक नहीं चलता था। इससे पहले तो वह सुबह-सुबह मुझसे पहले बिस्तर से उठ जाती थी। जब मैं सोकर उठता तब तक वह नहा-धोकर पूजा भी कर लेती थी। वह जब पूजा के वक्त घंटी बजाती, तब ही मेरी नींद खुलती थी। फिर मां को ना जाने क्या होने लगा। उसकी आदत बच्चों जैसी होने लगी है। सुबह भी देरी से बिस्तर से उठने लगी। नहाने का भी याद नहीं रहता। न भूख लगती है और न ही कुछ याद रहने लगा। छोटी-छोटी बातो पर मां की जो डांट मुझे बुरी लगती थी, वो मुझे सुनाई देनी बंद हो गई। मुझे मां के बदले व्यवहार से डर लगने लगा।
खैर पत्नी ही मां के खाने पीने का ध्यान रखती। जब उसने रोटी खानी बंद की तो उसे दलिया या अन्य भोजन तरल अवस्था में करके दिया जाने लगा। मां का मूवमेंट कमरे से शौचालय तक का रहता था। इसके लिए उसे 25 से तीस कदम चलना पड़ा था। बुढ़ापे में मां के कदम भी बच्चों जैसे छोटे छोटे होते थे। पांव में चप्पल पहनने की होश है तो ठीक, नहीं तो नंगे पैर ही वह चलती रहती। थकती तो बिस्तर पर बैठ जाती। फिर उठकर चलने लगती। एक दिन में करीब चालीस से पचास चक्कर इस तरह वह लगा देती थी। शायद ये ही उसकी शारीरिक फिटनेस का राज था।
रात को मां को परेशानी न हो, इसलिए घर के बरामदे, कमरों की लाइट जली रहती थी। जनवरी माह में एक रात करीब दो बजे वह कमरों के भीतर चहलकदमी की बजाय आंगने की तरफ गई और गिर गई। बच्चों की तरह चिल्लाई तो सब उस दिशा में दौड़े। वह उठ नहीं पा रही थी। खड़ा करने का प्रयास किया तो वह बोली-मैं अब नहीं बचदूं। अगली सुबह एंबुलेंस बुलाई। अस्पताल ले गए। वहां बताया कि कूल्हे के पास की हड्डी में फैक्चर है। इस उम्र में आपरेशन झेल नहीं पाएगी। घर ले जाओ। फिर एक चिकित्सक ने घर पर एक कंपाउंडर भेजा। उसने पैर में प्लास्तर बांध दिया। कहा कि एक डेढ़ माह में इसे खोलेंगे। हो सकता है हड्डी जुड़ जाए।
बिस्तर में लेटे लेटे मां के शरीर में घाव होने लगे। मोहल्ले में रहने वाली एक नर्स को मां के उपचार की जिम्मेदारी दी गई। पलंग से लेकर गद्दे तक बदले गए। ऐसा गद्दा लिया गया, जो हवा से भरा रहता था। कहा गया कि इससे घाव नहीं होंगे। धीरे धीरे मां होश खोने लगी। साथ ही उसकी मलहम पट्टी, दवा दारू आदि नर्स और पत्नी दोनों मिलकर करते। एक और महिला को मां के डायपर बदलने के लिए रखा गया। वह भी हर दिन नियमित रूप से दो बार घर आती। क्योंकि दिन के समय मैं और पत्नी दोनों अपनी अपनी ड्यूटी पर रहते थे। उन दिनों मां का कमरा एक अस्पताल के कमरे की तरह नजर आने लगा। डायपर, बेड शीट के साथ ही अन्य दवाएं थोक में ली जाने लगी। डर ये रहता था कि कहीं, कर्फ्यू और न बढ़ जाए और सबकुछ बंद न हो जाए। करीब ढ़ाई माह बिस्तर में रहने के बाद मां चल बसी।
एक शब्द मां। जिसके साथ हम आप की जगह यदि तू भी लगा दें, तो भी चलता है। क्योंकि मां शब्द में जादू ही ऐसा है। यह शब्द प्रेरणा देता है। जीवन की हर विपत्ति के क्षण में याद आता है। दूसरों से प्यार करना सीखाता है और अच्छाई और बुराई के बीच में फर्क का एहसास कराता है। क्योंकि हम जीवन की शुरूआत मां के आंचल से ही करते हैं। उसी की गोद में रहकर हमें यह अहसास होने लगता है कि क्या सही है या फिर क्या गलत। मां ही हमारी पहली गुरु होती है, जो जीवन पर्यंत सदाचार की सीख देती है।
कड़ी मेहनत, कठिन जीवन संघर्ष के बीच मेरी मां ने हम छह भाई-बहनों का लालन-पालन किया। गांव की सीधी-साधी महिला होने के बावजूद जब वह शहर में रही तो उसने सादगी नहीं छोड़ी। भाई बहनों में मैं सबसे छोटा था। मां ने घर का खर्च चलाने के लिए गाय भी पाली और किसी स्कूल में शिक्षा ग्रहण न करने के बावजूद हम सभी भाई बहनों को क, ख, ग, घ को पहचानना सिखाया। पिताजी ने ही माताजी को अक्षर ज्ञान कराया था और वही ज्ञान माताजी ने हमें पढ़ाने में आगे बढ़ा दिया। साथ ही मां ने बगैर किसी भेदभाव के समाज में रहने का पाठ पढ़ाया। हिंदू होने के बावजूद उसका नजरिया मुस्लिमों के प्रति नफरत भरा नहीं था। पड़ोस में मुस्लिम परिवार के बच्चे भी मोहल्ले के अन्य बच्चों की तरह मां के हाथ की बनी दाल खाने के लिए बेताब रहते थे।
मां के आशीर्वाद से सभी भाई बहन की शादी भी हो गई और मां नाती-पौतों वाली हो गई। बच्चे भी अपनी इस नानी या दादी से काफी प्यार करते थे। मां का मैने भी सदा कहना माना, लेकिन एक बात नहीं मानी। वो कहती थी बेटा शराब ना पिया कर और मैं कहता कि जल्द छोड़ दूंगा। वो जल्द कभी नहीं आ रहा था। शायद मां तब दुखी रहती होगी, लेकिन मुझे तो नशे में नजर नहीं आता था। एक बार मेरे एक मित्र ने पूछा कि तुम जीवन में सबसे ज्यादा प्यार किसे करते हो, मैने तपाक से उत्तर दिया अपनी मां से। बेटा, पत्नी का नाम ना लिया और ना जाने क्यों मेरे मुंह से मां निकला।
मित्र ने कहा कि तुम झूठ बोल रहे हो। यदि मां से प्यार करते तो जो शराब छोड़ने को कह रही है, उसका कहना मानते। मां से ज्यादा तुम्हें तो शराब से प्यार है। बस इसी दिन से मैने शराब छोड़ दी। मां तेरे प्यार में कितनी ताकत है। उस दिन से आज तक मैने शराब को हाथ नहीं लगाया। करीब दस साल से ज्यादा समय हो चुका है।
उम्र बढ़ने के साथ ही मां के जीवन में अब बदलाव आने लगा है। मेरा बड़ा बेटा छह माह की उम्र से ही मेरी मां या अपनी दादी से साथ ही सोता था। दादी भी पौते का ख्याल रखती थी। अंतिम समय में मां हर बात भूलने लगी। साथ ही उसे सुनाई भी कम देने लगा था। मैं उसके लिए कान की मशीन भी लेकर आया, लेकिन उसने नहीं लगाई। कहा कि उसके कान ठीक हैं। बच्चों के साथ उसका कई बार ऐसे झगड़ा होता है, जैसे बच्चे लड़ते हैं। इस बहस का मुद्दा भी बच्चों वाला ही होता है। एक बात और है कि खाने में उसे अब कुछ पसंद नहीं आता। कभी कभार मैगी की मांग करती थी, तो कभी सूप की, कभी विस्कुट व जूस की। दाल, चावल व रोटी तो उसके दुश्मन हो गए थे। न उसके मुंह में स्वाद ही रहा और न ही उसे भूख लगती।
हर सुबह बिस्तर से उठकर मैं यही देखता था कि मां कैसी है। बच्चे जब स्कूल चले जाते तब मैं अपना मां का नाश्ता गर्म करता। मां खाने को मना करती। जबरदस्ती मैं उसे खाना देता। वह चिड़ियों की भांति जरा सा खाती है और बाकी बचा चुपके से फेंक देती है। मानो मुझे पता न चले कि उसने खाया नहीं। अकेले में वह कभी रोने लगती है, कुछ ही देर बाद ऐसा लगने लगता है कि मानो वह बिलकुल ठीक है। अब कभी कभार ही वह मुझे या मेरी पत्नी को गलती पर टोकती। कभी बचपन की यादों में खो जाती। धीरे धीरे ऐसा समय भी आया कि वह मेरी बहनों, मेरे बच्चों से भी पूछती कि तुम कहां रहते हो। भले ही मां बच्चों जैसी हो गई थी, लेकिन फिर भी मैं इसी बात से खुश था कि मेरे पास मां है। क्योंकि जब भी कोई मुसीबत में होता है, उसे सबसे पहले मां ही याद आती है। आज उसकी यादें मेरे साथ हैं।
भानु बंगवाल




