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February 24, 2025

कभी लोहावती नदी के जलाभिषेक से शुरू होती थी कैलाश मानसरोवर यात्रा, जानिए यात्रा से जुड़ी जानकारीः ललित मोहन

उत्तराखंड में चंपावत जिले के काली कुमाऊं लोहाघाट की अविरल बहती लोहावती नदी के किनारे स्थित रिषेश्वर महादेव मंदिर स्थित है। कभी इस मंदिर में लोहावती के जल से अभिषेक करने के बाद ही कैलाश मानसरोवर यात्रा आरंभ होती थी।

उत्तराखंड में चंपावत जिले के काली कुमाऊं लोहाघाट की अविरल बहती लोहावती नदी के किनारे स्थित रिषेश्वर महादेव मंदिर स्थित है। इस मंदिर और इसके पास अविरल बहती लोहावती नदी का पौराणिक महत्व रहा है। यहां पर शिव मंदिर के साथ ही अन्य देवी देवताओं के मंदिरों की एक बड़ी श्रृंखला मौजूद है। बताया जाता है कि कालांतर में यहां मौजूद मंदिरों में लोहावती नदी का जलाभिषेक कर कैलास मानसरोवर यात्रा की शुरुआत की जाती थी। कोरोनाकाल के कारण दो साल से स्थगित की गई कैलाश मानसरोबर यात्रा के इस बार भी शुरू होने की उम्मीद कम है। कारण ये है कि चीन में कोरोना ने एक बार फिर से सिर उठाना शुरू कर दिया है। ये यात्रा भारत, नेपाल और चीन तीन देशों से होकर गुजरती है। आइए इस यात्रा और इस पवित्र धर्म स्थल के संबंध में कुछ जानकारी देने का हम प्रयास करते हैं।
शिव पार्वती का घर
कैलाश मानसरोवर को शिव-पार्वती का घर माना जाता है। पौराणिक कथाओं के अनुसार मानसरोवर के पास स्थित कैलाश पर्वत पर शिव-शंभू का धाम है। यही वह पावन जगह है, जहां शिव-शंभू विराजते हैं। पुराणों के अनुसार यहां शिवजी का स्थायी निवास होने के कारण इस स्थान को 12 ज्येतिर्लिगों में सर्वश्रेष्ठ माना गया है। कैलाश बर्फ से आच्छादित 22,028 फुट ऊंचे शिखर और उससे लगे मानसरोवर को कैलाश मानसरोवर तीर्थ कहते हैं। इस पूरे स्थान को मानस खंड कहते हैं।

मानसरोवर है झील का नाम
मालूम हो कि हिंदू धर्म के लिए खास महत्व रखने वाली मानसरोवर तिब्बत की एक झील है। जो कि इलाके में 320 वर्ग किलोमाटर के क्षेत्र में फैली है। इसके उत्तर में कैलाश पर्वत और पश्चिम में राक्षसताल है। यह समुद्रतल से लगभग 4556 मीटर की ऊंचाई पर स्थित है। इसकी त्रिज्या लगभग 88 किलोमीटर है और औसत गहराई 90 मीटर है।
यहां है तीन नदियों का उद्गम
कैलाश पर्वत तिब्बत में स्थित एक पर्वत श्रेणी है। इसके पश्चिम तथा दक्षिण में मानसरोवर तथा राक्षसताल झील हैं। यहां से तीन महत्वपूर्ण नदियां निकलतीं हैं। ये नदियां ब्रह्मपुत्र, सिन्धु, सतलुज हैं। हिन्दू सनातन धर्म में इसे पवित्र माना गया है।
ये है पोराणिक मान्यता
इस तीर्थ को अस्टापद, गणपर्वत और रजतगिरि भी कहते हैं। कैलाश के बर्फ से आच्छादित 6,638 मीटर (21,778 फुट) ऊँचे शिखर और उससे लगे मानसरोवर का यह तीर्थ है। इस प्रदेश को मानसखंड कहते हैं। पौराणिक कथाओं के अनुसार भगवान ऋषभदेव ने यहीं निर्वाण प्राप्त किया। श्री भरतेश्वर स्वामी मंगलेश्वर श्री ऋषभदेव भगवान के पुत्र भरत ने दिग्विजय के समय इसपर विजय प्राप्त की। पांडवों के दिग्विजय प्रयास के समय अर्जुन ने इस प्रदेश पर विजय प्राप्त किया था। युधिष्ठिर के राजसूय यज्ञ में इस प्रदेश के राजा ने उत्तम घोड़े, सोना, रत्न और याक के पूँछ के बने काले और सफेद चामर भेंट किए थे। इनके अतिरिक्त अन्य अनेक ऋषि मुनियों के यहाँ निवास करने का उल्लेख प्राप्त होता है।
हर साल विदेश मंत्रालय करता है यात्रा का आयोजन
भारत के लोगों के लिए मानसरोवर की यात्रा संचालित करने के लिए विदेश मंत्रालय की ओर से कैलाश मानसरोवर की यात्रा का आयोजन किया जाता है। इसके लिए तीन अलग-अलग राजमार्ग- लिपुलेख दर्रा (उत्तराखंड), नाथू ला दर्रा (सिक्किम) और काठमांडू है। इन तीनों ही रास्तों को काफी जोखिम भरा माना जाता है। इसमें करीब 25 दिन का समय लगता है। उत्तराखंड में यात्रा का संचालन कुमाऊं मंडल विकास निगम की ओर से किया जाता है।

ये हैं तीन मार्ग
लिपुलेख दर्रा से कैलाश मानसरोवर की यात्रा करने पर श्रद्धालुओं को काफी बर्फीली मौसम का सामना करना पड़ता है। इस रास्ते से लगभग 90 किलोमीटर की ट्रैकिंग करनी पड़ती है। यह रास्ता बेहद कठिन है। कैलाश मानसरोवर पहुंचने के लिए दूसरा मार्ग नाथू ला दर्रा है, जो कि सिक्किम में है। यह रास्ता यह रास्ता लिपुलेख दर्रा से थोड़ा सरल है, लेकिन काफी महंगा है। काठमांडू से कैलाश मानसरोवर पहुंचने के लिए श्रद्धालुओं को अधिकतर चीनी भूमि पर यात्रा करनी पड़ती है। यानी कि करीब 70 से 80 प्रतिशत यात्रा चीन की भूमि से होकर गुजरता है। श्रद्धालुओं को इस रास्ते पर कम पैदल यात्रा करनी पड़ती है। काठमांडू से कैलाश मानसरोवर की यात्रा हवाई सफर के द्वारा भी तय किया जा सकता है। हालांकि, इसमें काफी ज्यादा खर्च होता है। साथ ही काफी कम समय में इस रास्ते से कैलाश मानसरोवर की यात्रा की जा सकती है।
इस साल नहीं है यात्रा के आसार
कोविड महामारी के कारण पिछले दो साल से बंद पड़ी कैलाश-मानसरोवर यात्रा को लेकर सरकार से अब तक नोडल एजेंसी को तैयारियों के लिए कोई निर्देश नहीं मिले हैं। इससे इस बार भी उसके आयोजन की संभावना नजर नहीं आ रही है। सामान्यत: विदेश मंत्रालय, यात्रा की नोडल एजेंसी कुमाउं मंडल विकास निगम तथा पिथौरागढ जिला प्रशासन के साथ इसकी तैयारी को लेकर जनवरी में ही बैठक कर लेता है। पिथौरागढ जिले के लिपुलेख दर्रे से होकर गुजरने वाली यात्रा 2020 में कोविड-19 महामारी के चलते स्थगित कर दी गयी थी और अगले साल भी यह बंद ही रही। हाल में कोविड-19 के मामलों में कमी को देखते हुए अधिकारी उम्मीद कर रहे थे कि इस साल कैलाश मानसरोवर यात्रा आयोजित हो सकती है। वहीं चीन में कोरोना के मामलों को देखते हुए फिलहाल यात्रा के आसार कम हैं। कुमाउं मंडल विकास निगम को अभी तक यात्रा के आयोजन के संबंध में एजेंसी कहीं से कोई निर्देश प्राप्त नहीं हुए हैं। अगर अब निर्देश मिल भी जाते हैं तो भी यात्रा शुरू होने तक तैयारियां करना बहुत मुश्किल होगा। कैलाश मानसरोवर यात्रा हर साल जून के प्रथम सप्ताह में शुरू होती है।

लोहवती नदी का पौराणिक महत्व
बताया जाता है कि कालांतर में यहां मौजूद लोहावती नदी का जलाभिषेक कर कैलास मानसरोवर यात्रा की शुरुआत की जाती थी। पौराणिक गाथाओं के अनुसार यह भी बताया गया है कि द्वापर युग के महाभारत काल में अज्ञातवास के दौरान पांडव पुत्रों ने इस नदी से पवित्र जलाभिषेक कर यहां तर्पण किया था। इसके चलते यह लोहावती नदी का पौराणिक महत्व दर्शाता है।

यहां से शुभ मानी जाता था यात्रा का प्रारंभ
चंपावत के लोगों की ओर से यह भी बताया जाता है कि चंपावत स्थित ऋषेश्वर महादेव मंदिर में पूजा अर्चना के बाद शिव शंकर भोलेनाथ के दर्शन के लिए कैलाश मानसरोवर की यात्रा की शुरुआत बेहद शुभ मानी जाती थी। तब काली कुमाऊं के मानेश्वर महादेव और ऋषेश्वर महादेव की पूजा के बाद कैलाश मानसरोवर यात्रा की शुरू कर दी जाती थी। पौराणिक महत्व के इस पैदल पथ को हालिया दशकों में ध्यान नहीं दिया गया। इससे जगह जगह पर यह रास्ता अब क्षतिग्रस्त हो गया है। या यूं कहें कि परिवहन सुलभ होने के बाद से यह प्रचलन धीरे धीरे नेपथ्य में डाल दिया गया। इस दौरान आए बदलाव ने यहां के इतिहास को भुलाकर रख दिया गया है।

तब लोहावती के चरण रज से इस पवित्र यात्रा की शुरुआत कर यात्रा पूरी करने के बाद श्रृद्धालु वापस यहां पहुंचकर अपने अपने गंतव्य की ओर प्रस्थान किया करते थे। बुजुर्ग बताते हैं कि इस दौरान टनकपुर तवाघाट पैदल मार्ग का उपयोग सुगम और सुरक्षित यात्रा पैदल और डोली लेकर की जाती थी। यात्रा मार्ग पर भोले के भक्तों के लिए जगह जगह पर पड़ाव बने हुए थे जहां से दूसरे दिन का सफर शुरू होता था। जो अब महज एक इतिहास बनकर रह गया है।

फोटोः गोविंद वर्मा

बीते तीन दशक से बढ़ता रहा लोहावती में प्रदूषण
पिछले तीन दशक से लोहाघाट नगर क्षेत्र में जनसंख्या दवाब बढ़ने के साथ ही यहां बहती लोहावती नदी पर इसका सबसे ज्यादा असर पड़ा। इस बीच लोहाघाट नगर के विभिन्न नालों से होकर मल मूत्र, मृत जानवरों के अवशेष और प्लास्टिक संबंधी कूड़ा कचरा सब इस नदी के प्रदूषित होने की मुख्य वजह बन गया। कुल मिलाकर यहां बढ़ते प्रदूषण के चलते हाफ रही लोहावती नदी में नमामि गंगे सहित स्वच्छता के सभी दावे फेल होते नजर आ रहे। इस संबंध में नगर पंचायत अध्यक्ष गोविंद वर्मा का कहना है कि लोहाघाट की शान लोहावती के संरक्षण को बहुत लोग सामने आगे आ रहे हैं। यह सामुहिक प्रयास से संभव हो सकेगा जिसको लेकर सभी लोगों को मिलकर काम किए जाने की जरूरत है जिससे इस पवित्र नदी की निरंतर सफाई होती रहे।

फोटोः राजकिशोर साह

नगर पालिका के बजरंगबली वार्ड सभासद राजकिशोर साह का कहना है कि पौराणिक महत्व की लोहावती नदी जो हमेशा आस्था का प्रतीक रही है। आसपास के देव डांगर स्नान कर यहां का जलाभिषेक करते हैं। आज यहां पानी इतना प्रदूषित हो गया है कि मुंह में डालने से मन हिचकिचाता है।

फोटोः विवेक ओली

सामाजिक कार्यकर्ता विवेक ओली का कहना है कि नदी की सफाई कभी हुई हो कम ही देखा है। हां विभिन्न नालियों से बहता हुआ नगर का सीवेज जरूर नदी में समाकर गाद बनाता जा रहा है। इससे नदी की सुरक्षा के उपाय खोजने होंगे।इसका एक और विकल्प हो सकता है कि नगर के विभिन्न स्कब्रों को जोड़ कर उनका गंदा पानी नदी से दूर पहुंचाया जाय।

फोटोः सतीश गड़कोटी

इस संबंध में एडवोकेट सतीश गड़कोटी का कहना है कि लोहावती का पवित्र जल लोहावती से ले जाकर रामेश्वर में चढ़ाया जाता था। बाद में इससे आगे की यात्रा होती। वर्ष 1962 में भारत चीन युद्ध के बाद यह यात्रा बंद कर दी गयी। इसके बाद 1980 में फिर से शुरू की गयी तो इसका रूप बदलकर अल्मोड़ा से कर दिया गया। यहां लोहावती नदी को यदि साफ और स्वच्छ रखना है तो सबसे पहले नगर के सीवेज को कहीं दूर निस्तारण करना होगा तभी इसका ऐतिहासिक और पौराणिक महत्व बना रहेगा।

लेखक का परिचय
नाम-ललित मोहन गहतोड़ी
शिक्षा : हाईस्कूल, 1993
इंटरमीडिएट, 1996
स्नातक, 1999
डिप्लोमा इन स्टेनोग्राफी, 2000
निवासी-जगदंबा कालोनी, चांदमारी लोहाघाट
जिला चंपावत, उत्तराखंड।
फोटोः आभार सोशल मीडिया।

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भानु बंगवाल, देहरादून, उत्तराखंड।

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