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February 8, 2025

डॉक्टर और नर्स को सताया श्मशान का खटका, पूरी डेटॉल की शीशी से भागे नहाने को, चले गए तीर्थ यात्रा में

बचपन में मैने सिटी बस में किताबें बेचने वाले से मात्र दस पैसे में कविता फोल्डर खरीदा। तब मैं शायद छठी जमात में पढ़ता था। इसमें अलग-अलग विषय पर किसी स्थानीय लेखक की तुकबंदी थी।

बचपन में मैने सिटी बस में किताबें बेचने वाले से मात्र दस पैसे में कविता फोल्डर खरीदा। तब मैं शायद छठी जमात में पढ़ता था। इसमें अलग-अलग विषय पर किसी स्थानीय लेखक की तुकबंदी थी। इसमें खटका शीर्षक की तुकबंदी मुझे आज भी याद है। पंक्ति कुछ ऐसी थी-सर्दी में रहता जुकाम का खटका, मल्लाह को रहता तूफान का खटका, रोगी को रहता श्मशान का खटका। खटका, यानी की संदेह, आशंका या डर। आज महसूस करता हूं कि हर व्यक्ति को कहीं न कहीं खटका जरूर रहता है। इस तुकबंदी की एक लाइन- रोगी को रहता शमशान का खटका, को मैने व्यावहारिकता में एक बार उलटे ही पाया। जहां रोगी की तो मौत हो गई, लेकिन डॉक्टर और नर्स दोनों को ही शमशान का खटका सताने लगा।
बात करीब वर्ष 93 की है। मैं कुछएक स्थानीय समाचार पत्रों में काम करने के बाद अमर उजाला समाचार पत्र में नियुक्त हो गया था। तब कुछ नया करने के लिए मुझमें काफी लगन थी। ऐसे में मैं अपनी पहचान बनाने के लिए कुछ अलग हटकर समाचार तलाशने में जुटा रहता। एक दिन मुझे एक मित्र ने बताया कि ओएनजीसी के अस्पताल में युवक की मौत हो गई। युवक एड्स से पीड़ित था। उसका इलाज करने वाले डॉक्टर व नर्स को यह पता तक नहीं था कि युवक को एड्स है। ऐसे में अब डॉक्टर व नर्स दोनों ही घबराए हुए हैं। उस दौरान एड्स को लेकर कई भ्रांतियां थी और कई तरह से डर भी। लोगों के लिए ये नई बीमारी थी और चिकित्सकों के लिए भी। इतना सभी को पता था कि इसका इलाज नहीं है। ऐसे में डॉक्टर और नर्स दोनों को श्मशान का खटका सताने लगा। मैने इस मामले में अस्पताल के सीएमएस, संबंधित नर्स के साथ ही मृतक युवक के पिता से बातचीत की। बात तो डॉक्टर से भी करना चाहता था, लेकिन वह यात्रा के लिए निकल पड़े थे। तब मोबाइल का भी जमाना नहीं था कि कोई कहीं भी हो, उससे बात कर ली जाए। उस समय जो कहानी सामने आई, वह यह है।
एक व्यक्ति का 19 वर्षीय बेटा काफी समय से किसी बीमारी से ग्रसित था। कुछ-कुछ दिनों के अंतराल में उसे देहरादून से दिल्ली ले जाकर खून आदि भी चढ़ाया जाता था। तब रक्त जांच भी ज्यादा बारीकी से नहीं होती थी। ऐसे में शायद युवक को एचआइवी पॉजीटिव वायरस का खून चढ़ गया और वह एड्स से ग्रसित हो गया। तब एड्स के मरीज को छूने में भी डॉक्टर परहेज करते थे। युवक के उपचार के लिए उसके परिजनों ने दिनरात एक कर दिया। घर की सारी जमा पूंजी इलाज में खर्च होने लगी। इलाज के लिए परिजन दिल्ली, चंडीगढ़ के चक्कर लगाते रहते। ओएनजीसी में युवक के पिता कार्यरत थे। वहां के अस्पताल के सीएमएस को युवक की बीमारी का पता था। अन्य स्टॉफ को बीमारी के बारे में नहीं बताया गया था। तब ऐसे मरीजों के मामले की जानकारी गोपनीय रखी जाती थी, ये व्यवस्था आज भी है।
एक रात युवक को तेज बुखार चढ़ा। उसके पिता संस्थान के अस्पताल में लेकर युवक को पहुंचे। मौके पर मौजूद डॉक्टर को युवक की बीमारी का पता नहीं था। ऐसे में बुखार समझकर उसने उपचार शुरू किया। युवक की हालत बिगड़ती चली गई। उसे इंजेक्शन भी दिए गए। यहं तक जब उसकी सांस रुकने लगी तो डॉक्टर व नर्स दोनों ने ही उसे बारी-बारी से माऊथ-टू- माऊथ रेस्पीरेशन भी दिया। काफी प्रयास के बाद भी वे युवक को बचा नहीं सके और सुबह होते-होते युवक की मौत हो गई।
सुबह जब अस्पताल में सीएमएस पहुंचे, तो इलाज करने वाले डॉक्टर व नर्स ने इसकी रिपोर्ट उन्हें दी। सीएमएस ने उन्हें बताया कि युवक तो एचआइबी पॉजिटिव से ग्रसित था। इस पर डॉक्टर व नर्स दोनों की हालत बिगड़ने लगी। डेटॉल की शीशी लेकर दोनों बाथरूम में नहाने चले गए। शरीर की हर खरोंच को डेटॉल से धोया गया। डॉक्टर तो इतना डर गया कि उसे शमशान का खटका सताने लगा और छुट्टियां लेकर चार-धाम यात्रा को निकल पड़ा। नर्स भी छुट्टी लेकर घर बैठ गई। हालांकि, युवक के पिता ने डॉक्टरों के आरोप को बेबुनियाद बताया। उनका कहना था कि युवक के खून में कुछ खराबी था, लेकिन बार-बार नया खून चढ़ने पर एचआइवी पॉजीटिव वाश हो चुका था।
सच पूछो तो युवक का इलाज डॉक्टर व नर्स ने अनजाने में ही किया। यदि उन्हें पता होता तो वे शायद उसे हाथ भी न लगाते। अब रही बीमारी की बात, तो पहले तपेदिक (टीबी) के रोगी को भी घर से अलग कर देते थे। उसे अलग बर्तन में खाना दिया जाता था। आज यह बीमारी आम हो गई और इलाज भी आसान। इसके विपरीत यदि मौत आनी हो तो सामान्य बीमारी से भी व्यक्ति यह दुनियां छोड़ देता है। अब देखो दो साल पहले कोरोना आया। शुरुआती दौर में मरीज को लोगों ने हाथ तक लगाने से परहेज किया। मौत होने पर अंतिम संस्कार करने से परिजन तक करने से कतराने लगे। कुछ निजी चिकित्सालयों ने अपने यहां ताले लगा दिए। कोरोना के मरीजों को देखने को कोई राजी तक नहीं हुआ।
ऐसी विपरीत परिस्थितियों में सरकारी अस्पतालों के चिकित्सक, नर्स सहित अन्य स्टाफ मरीजों को बचाने में जुटा रहा। काफी संख्या में मेडिकल स्टाफ भी कोरोना की चपेट में आया। इनमें कई को जान भी गंवानी पड़ी। इन सबके साथ आमजन में भी कई लोग ऐसे भी थे, जो जान की परवाह किए बगैर कोरोना के मरीजों की सेवा करते रहे। जहां शव को परिजनों ने हाथ नहीं लगाया, वहीं ऐसे लोग अंतिम संस्कार तक में योगदान देते रहे। कुछ लोग लाश नदियों में बहाते रहे, वहीं कुछ लोग लाशों का अंतिम संस्कार करते रहे। फिर भी यही कहेंगे कि डॉक्टर ही मरीज का भगवान होता है। उसे तो बगैर किसी खटके के मरीज को बचाने के हर संभव प्रयास करने चाहिए।
भानु बंगवाल

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भानु बंगवाल, देहरादून, उत्तराखंड।

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