अपना रिमोट अपने हाथ पर ही रखें, न बनें खिलौना, तभी जगेगा आत्मविश्वास
बचपन से आज तक देखता रहा हूं कि हम छोटी-छोटी बातों पर दूसरे पर निर्भर होते जा रहे हैं। चाहे वह कामकाजी व्यक्ति हो या फिर व्यापारी। एक दूसरे की नकल करने की प्रवृति बढ़ती ही जा रही है।
बचपन से आज तक देखता रहा हूं कि हम छोटी-छोटी बातों पर दूसरे पर निर्भर होते जा रहे हैं। चाहे वह कामकाजी व्यक्ति हो या फिर व्यापारी। एक दूसरे की नकल करने की प्रवृति बढ़ती ही जा रही है। मतलब साफ है कि अपनी क्षमताओं व कार्यों के संचालन का रिमोट हम दूसरों के हाथ सौंप रहे हैं। यह स्थिति घातक है। बेहतर होता कि हम अपना रिमोट अपने ही हाथ रखें। तभी हम अपने भीतर के इंसान को निखार सकते हैं।जब बच्चा घुटने से चलता है तो वह कई बार कुर्सी व मेज का सहारा लेकर खड़ा होने का प्रयास करता है। इस प्रयास में वह सफल भी होता है और जल्द दौड़ना सीख जाता है। तब उसे सहारे की जरूरत नहीं पड़ती। फिर हम बच्चे को साथ घुमाने के लिए अपनी अंगुली पकड़ाकर उसे लेकर चलते हैं। यानी उसका रिमोट हम हर वक्त अपने पास ही रखते हैं। छोटी-छोटी बातों पर हम उस पर हम अपनी बातें ही थोपते हैं। ऐसी स्थिति में वह भी खुद के निर्णय लेने की बजाय हम पर ही निर्भर हो जाता है।
वर्तमान में स्थिति यह है कि हरएक का रिमोट कहीं न कहीं से संचालित हो रहा है। बच्चे का माता पिता के हाथ से, पत्नी का पति के हाथ से, कर्मचारी का अधिकारी के हाथ से, अधिकारी का नेता के हाथ से, छोटे नेता का बड़े नेता के हाथ से, जब मनमोहन सिंह पीएम थे तो कहा गया कि रिपोट सोनिया गांधी के हाथ से संचालित हो रहा है। अब राज्यों में भाजपा सरकारों के सीएम के रिपोट पीएम या दूसरे वरिष्ठ नेता के हाथ में रहते हैं। वहीं, कांग्रेस सरकारों के सीएम के रिमोट राहुल और सोनिया गांधी के पास हैं। मजाल है कि एक निर्णय भी अपने मन से कर सकें। मैं ऐसा नहीं कहता हूं कि किसी काम में बड़े की सलाह न ली जाए, लेकिन जब बड़ा ही सही सलाह न दे, तो रिमोट अपने हाथ में लेना भी गलत नहीं है।
मीडिया का भी रिमोट किसी न किसी के हाथ से ही संचालित होता है। ऐसे में मीडिया भी एकतरफा बात करता है। दूसरों के हाथ में रिपोट देने से काम करने वाला सिर्फ खिलौना ही बन जाता है। कठपुतली की तरह वह इशारों में ही नाचता है। इसलिए रिमोट देने की बजाय खुद पर भरोसा जताने की संस्कृति का विकास होना चाहिए। तभी काम करने वाले में आत्मविश्वास जगेगा।
अब एक उदाहरण देता हूं। तब मेरे दोनों बेटे बहुत छोटे थे। बड़ा बेटा सातवीं में पढ़ रहा था और छोटा बेटा तीसरी कक्षा में। गर्मियों की छुट्टियां पड़ी तो बड़े बेटे ने किसी खेल की कोचिंग के लिए कहा। तय किया कि दोनों जूड़ो सीखने जाएंगे। घर से यदि वे विक्रम टैंपो से जाते तो उन्हें पहले घर से तीन सौ मीटर तक पैदल चलना पड़ता। फिर विक्रम टैंपो में बैठना पड़ता। तब उतरकर भीड़ भाड़ वाले रास्ते से होकर देहरादून के एस्लेहाल से परेड मैदान तक पैदल जाना पड़ता। शाम करीब तीन बजे के करीब जूड़ो हाल तक पहुंचने दौरान ट्रैफिक सड़कों में बहुत ज्यादा रहता था। करीब डेढ़ घंटे बाद घर लौटने में ट्रैफिक और बढ़ जाता था।
मैं हर दिन बच्चों को छोड़ देता था और शाम को पत्नी उन्हें घर आती थी। जूड़ो कोच सतीश शर्मा को जब पता चला कि हम बच्चों को खुद लेकर पहुंचते हैं तो उन्हें मुझे सलाह दी कि बच्चों को अकेले भेजा करो। मैने बताया छोटे हैं। उन्होंने कहा कि यदि तुम उन्हें अपने पर निर्भर बनाओगे तो बच्चा तुम पर ही निर्भर हो जाएगा। फिर मैने दोनों को अकेले जाने को कहा। पीछे से बाइक से दो दिन तक उन्हें चेक किया। पाया कि वे बड़े आराम से आगे पीछे, दाएं बाएं देखकर सड़क को पार करते हैं। मैं निश्चिंत हो गया और वे खुद ही जूड़ो हाल तक जाने लगे।
ये शुरुआत थी और फिर उन्होंने अकेले दिल्ली तक का सफर करना शुरू कर दिया। जब बड़ा बेटा 12वीं में था तो कई परीक्षाएं देने के लिए वह दक्षिण भारत तक का सफर कर गया। यही नहीं, दोनों ही बच्चों को मैने छोटे मोटे समान की खरीददारी की जिम्मेदारी डाली। धीरे धीरे वे अभ्यस्त हो गए। खैर अब दोनों बड़े हैं। एक जॉब करता है और दूसरा फिलहाल ग्रेजूएशन रहा है। दोनों के यहां तक के सफर में मैने उन्हें अपनी कोई बात नहीं थोपी। ऐसे में अब आपको तय करना है कि बच्चे का रिमोट अपने हाथ में रखोगे या फिर उन्हें ही सौंपोगे।
भानु बंगवाल





