एशिया के पहाड़ी क्षेत्रों में सर्वोच्च स्थान है इस जिले का, यहां हैं धार्मिक और रमणीय स्थल
उत्तराखण्ड राज्य का दूसरा विस्तृत भौगोलिक क्षेत्रफल वाला जिला चमोली ही है। इसका भौगोलिक क्षेत्रफल 8030 वर्ग किलोमीटर (2001) जनसंख्या 3,91,605 (2011) है। ऋषिकेश से इस जिले का मुख्यालय गोपेश्वर 212 किलोमीटर की दूरी पर है। कहा जाता है कि प्राकृतिक सुन्दरता के दृष्टिगोचर से यह एशिया के पहाड़ी क्षेत्रों में सर्वोच्च स्थान प्राप्त किये हुए है। प्राकृतिक धरोहर के रूप में ऊंची पर्वत श्रृंखलायें, हरे-भरे बुग्याल, जलधारायें, वेगवती नदियाँ, फूलों की घाटियाँ एवं लहलहाते फलों के उद्यान इस जिले की नैसर्गिक सुन्दरता का वर्णन स्वयं करते हैं।
हिमलाय की हिमाच्छादित चोटियों से प्रसारित होते धार्मिक संदेशों को सर्वप्रथम अधिग्रहित करने वाला यह क्षेत्र एक पवित्र भूमि है। आज से चालीस वर्ष पूर्व गठित सीमान्त जनपद चमोली की सीमाएं पौड़ी, अल्मोड़ा, पिथौरागढ़, रूद्रप्रयाग, टिहरी, उत्तरकाशी से मिली हुई हैं।
तिब्बत से था व्यापारिक संबंध, वेदव्यास ने की महाभारत की रचना
1962 भारत-चीन युद्ध से पूर्व चमोली जनपद की जोशीमठ तहसील के निवासियों का तिब्बत के साथ व्यापारिक सम्बन्ध था। आदिकाल से ऋषियों एवं देवताओं को कर्म एवं तपस्थली के रूप में विख्यात चमोली जिले में ही वेदव्यास ने महाभारत ग्रन्थ की रचना की। ज्योतिष विज्ञान के विख्यात गंगाचार्य ने अपने शिष्यों को ज्योतिष विद्या में यहीं पारंगत किया। इसी देवभूमि की दिव्य तरंगों ने वारूचि को पाणिनी व्याकरण की रचना में सहयोग दिया। आदि गुरू शंकराचार्य भी समस्त भारत भ्रमण के पश्चात् इसी भूमि में आकर दिव्य ज्ञान की अलौकिक आभा से आत्मविभूत हुए।
सीमांत जनपद घोषित
चमोली, सागर तल से 3150 फीट की ऊँचाई पर अवस्थित है। सन् 1960 में इस क्षेत्र को सीमान्त जनपद घोषित किया गया। चमोली से दस किलोमीटर दूरी पर सागर तल से लगभग पाँच हजार फीट की ऊँचाई पर आधुनिक नगर का स्वरूप लिए हुए गोपेश्वर शहर विद्यमान है। यहाँ उच्च शिक्षण संस्थायें, सरकारी कार्यालय व विश्राम गृह आदि उपलब्ध हैं। गोपेश्वर प्राचीन काल से ही धार्मिक, ऐतिहासिक, आध्यात्मिक चिन्तन का क्षेत्र रहा है।
प्राचीन शिव मंदिर
यहाँ एक प्राचीन शिव मन्दिर (गोपीनाथ मंदिर) है, जिसकी गणना उत्तराखण्ड के प्राचीन पावन मन्दिरों में होती है। इस शिव मन्दिर के प्रागंण में एक सोलह फुट ऊँचा लौह स्तम्भ का त्रिशूल है। जिस पर प्राचीन पाली लिपि में एक अभिलेख है। इस अभिलेख से ज्ञात होता है कि नेपाल देश के पूर्व में मालावंशी अनिक पाल नाम का राजा था। जिसने सदियों पूर्व गोपेश्वर तक के क्षेत्र को विजित किया था। और उस विजय को स्मारक के रूप में त्रिशूल स्वरूप शिवमंदिर के प्रागंण में स्थापित किया था। शिव मन्दिर के भीतरी भाग में अनेक ध्वंस मूर्तियाँ व मूर्तियों पर कलात्मक सूर्य का चार मुख वाला आकार व शिवलिंग आदि देखने योग्य है। मन्दिर की कलात्मक निर्माण शैली भी स्थापत्य का अद्भुत उदाहरण है।
एक तरफ ऊंची पर्वतीय चट्टान, दूसरी तरफ अलकनंदा नदी
चमोली का पूर्व दिशा क्षेत्र ऊँची पर्वतीय चट्टान है, और दक्षिण की ओर अलकनन्दा नदी प्रवाहित होती हुई नन्दप्रयाग की ओर जाती है। चट्टानी क्षेत्र होने के कारण वन सम्पदा बहुतायत में उपलब्ध है। यहाँ की जलवायु उत्तम है। उत्तर-पूर्व की ओर पर्वत मालायें और मध्य क्षेत्र में दैनिक उपयोग सामग्री उपलब्ध कराने वाला बाजार विद्यमान है। यहाँ किसी भी स्थान पर खड़े होकर प्रकृति के नयनाभिराम दृश्यों का अवलोकन किया जा सकता है।
दर्शनीय स्थल माणा
उत्तराखंड प्रदेश की उत्तरी सीमा माणा घाटी है। यहाँ का अन्तिम गाँव माणा है। यह सागरतट से 10560 फीट की ऊँचाई में मध्य हिमालय पर अवस्थित है। यह हिमालय घाटी तिब्बत और मध्य हिमालय गढ़वाल को अलग करती है। इस क्षेत्र में अलकापुरी पर्वत से निकलने वाली अनकनन्दा नदी और देव नदी सरस्वती का संगम स्थल है।
इस संगम को केशवप्रयाग कहा जाता है। वेगवती सरस्वती नदी के ऊपर पाषाण शिला पुल है। जिसे भीमपुल की संज्ञा दी जाती है। इस तरह का पाषाण शिला पुल विश्व में नदी के ऊपर देखने को नहीं मिलता है। माणा में देवकाल की गणेश गुफा व व्यास गुफा विद्यमान है। इन गुफाओं के ऊपरी ओर पुस्तकाकार की एक भारी शिला है। जिसे स्थानीय लोग व्यास पुस्तक कहते हैं।
नर नारायण मंदिर
माणा क्षेत्र में नर-नारायण भगवान की माता मूर्ति देवी का प्राचीन मन्दिर है। इस मन्दिर में वर्ष में एक बार विशाल मेला लगता है इस मन्दिर क्षेत्र में लगभग सात किलोमीटर के अन्तर पर लक्ष्मी वन है, जहाँ माता लक्ष्मी ने देवकाल में तप किया था। इस क्षेत्र में वसुधारा जलप्रपात देखने योग्य है। यह जलधारा सैकड़ों फुट ऊपर से निकलती हुई तो दिखती है परन्तु नीचे तक यह मात्र पानी की फुहार के रूप में ही गिरती है। लक्ष्मी वन से लगभग तीन किलोमीटर पर सहनधारा नामक तीर्थ है। यहाँ पर अनेकानेक जलधारायें प्रवाहित होती है। यहाँ नाना प्रकार की औषधि वनस्पतियों का भण्डार है। वास्तव में प्रकृति ने इस माणा क्षेत्र को चारों ओर से पर्वतों के दुर्ग की भाँति से सुरक्षित किया हुआ है। इस गाँव की दक्षिणी दिशा में बदरीनाथ धाम है। जो यहाँ से मात्र चार किलोमीटर की दूरी पर है।
बदरीनाथ धाम
बदरीनाथ धाम हरिद्वार से बदरीनाथ की दूरी 324 किलोमीटर है। यह पावन स्थान सागर तट से 10230 फीट की ऊंचाई पर स्थित है। नर नारायण की तपोभूमि तथा भगवान विष्णु का पुण्य धाम बदरीवन, बदरीकाश्रम, बदरीनारायण व बदरीनाथ के नाम से सुविख्यात है। कहते हैं कि नर और नारायण ने बदरीवन में तपस्या की थी। यही नर व नारायण द्वापर युग में अर्जुन और कृष्ण के रूप में अवतरित हुए थे। इसी बदरीकाश्रम में बदरीनारायण का मन्दिर स्थित है। जिसमें भगवान विष्णु की पंचायत, मूर्ति रूप में विराजमान है।
श्री बदरीनाथ जी की मूर्ति शालिग्राम शिला में बनी ध्यानमग्न चतुर्भुज मूर्ति है। कहा जाता है कि पहली बार यह मूर्ति देवताओं ने अलकनन्दा में नारद कुण्ड से निकालकार स्थापित की थी। देवर्षि नारद उसके प्रधान अर्चक हुए। उसके बाद जब बौद्धों का प्रभाव हुआ। तब इस मन्दिर पर उनका अधिकार हो गया।
भगवान की मूर्ति की कहानी
उन्होंने बदरीनाथ की मूर्ति को बुद्ध मूर्ति मानकर पूजा करना जारी रखा। जब आदि शंकराचार्य ने बौद्धों को इस क्षेत्र से बाहर किया तो वे तिब्बत भागते समय मूर्ति को अलकनन्दा में फेंक गये। शंकराचार्य ने जब मन्दिर खाली देखा तो ध्यान कर अपने योगबल से मूर्ति की स्थिति जानी तथा अलकनन्दा से मूर्ति निकलवाकर मन्दिर में प्रतिष्ठित करवाई। तीसरी बार मन्दिर के पुजारी ने ही मूर्ति को तप्तकुण्ड में फेंक दिया और वहाँ से चला गया। क्योंकि यात्री आते नहीं थे, जिससे उसे सूखे चावल भी भोजन के लिए नहीं मिल पाते थे। उस समय पाण्डुकेश्वर में किसी को घन्टाकरण का आवेश हुआ और उसने बताया कि भगवान का श्री विग्रह तप्तकुण्ड में पड़ा है। इस बार मूर्ति तप्तकुण्ड से निकालकर श्री रामानुजाचार्य द्वारा प्रतिष्ठित की गयी।
कुबेर व उद्धवजी
श्री बदरीनाथ जी के दाहिने अष्ट धातु की कुबेर की मूर्ति है, उनके सामने उद्वव जी हैं। तथा बदरीनाथ जी की उत्सव मूर्ति है। यह उत्सव मूर्ति शीतकाल में जोशीमठ में रहती है। उद्वव जी के पास ही चरण पादुकायें हैं। बायीं ओर नर नारायण की मूर्ति है। इनके समीप ही श्रीदेवी और भूदेवी हैं। मुख्य मन्दिर के बाहर मन्दिर के प्रांगण में ही शंकराचार्य जी की गद्दी है तथा मन्दिर समिति का कार्यालय है। एक स्थान पर घण्टा लटका है, वहाँ बिना धड़ की घण्टाकरण की मूर्ति है। परिक्रमा में भोगमण्डी के पास लक्ष्मीजी का मन्दिर है।
शंकराचार्य मंदिर
श्री बदरीनाथ मन्दिर के सिंहद्वार से कुछ सीढ़ी उतरकर शंकराचार्य मन्दिर है। इसमें लिंगमूर्ति है। बदरीनाथ से नीचे तप्तकुंड है। इसे अग्नितीर्थ कहा जाता है। तप्तकुंड के नीचे पंचशिला है। गरूड़शिला वह शिला है जो बदरीनाथ मन्दिर को अलकनन्दा की ओर से रोके खड़ी है। इसी से नीचे होकर जल तप्तकुण्ड में आता है। तप्तकुंड के अलकनंदा की ओर एक बड़ी शिला है। जिसे नारद शिला कहते हैं। इसके नीचे अलकनंदा में नारदकुंड है। इस स्थान पर नारदजी ने दीर्घकाल तक तप किया था।
नारदकुण्ड के समीप अलकनन्दा की धारा में मारकण्डेय शिला है। इस पर मारकण्डेय जी ने भगवान की अराधना की थी। नारद कुण्ड के ऊपर जल में एक सिंहाकार शिला हैं। हिरण्यकश्यप वध के उपरान्त नृसिंह भगवान यहाँ पधारे थे। अलकनन्दा के जल में एक अन्य शिला है जिसे वाराही शिला कहते हैं। पाताल से पृथ्वी का उद्धार करके हिरण्याक्ष वध के पश्चात् वाराह भगवान यहाँ शिलारूप में उपस्थित हुए। यहाँ प्रहलाद कुण्ड, कर्मधारा और लक्ष्मीधारा तीर्थ है।
तप्तकुण्ड से मार्ग पर आ जाने पर कुछ ही दूरी के पश्चात् अलकनन्दा के किनारे एक शिला, ब्रह्मकपाल तीर्थ कहलाती है। यहीं यात्री पिण्डदान करते हैं। इस ब्रह्मकपाल तीर्थ के नीचे ही ब्रह्मकुण्ड है। यहाँ ब्रह्माजी ने तप किया था। ब्रह्मकुण्ड से अलकनन्दा के किनारे ऊपर की ओर जहाँ अलकनन्दा मुड़ती है। वहाँ अत्रि-अनुसूया तीर्थ है। इस स्थान से माणा सड़क पर चलने पर इन्द्रधारा नामक श्वेत झरना मिलता है। यहाँ इन्द्र ने तप किया था।
श्री बदरीनाथ जी के मन्दिर के पीछे पर्वत पर सीधे चढ़ने पर चरणपादुका का स्थान आता है। यहीं से बदरीनाथ मन्दिर में पाइप द्वारा पानी लाया जाता है। चरणपादुका से ऊपर उर्वशी कुण्ड है। जहाँ भगवान नारायण ने उर्वशी को अपनी जंघा से प्रकट किया था। यहाँ का मार्ग अत्यन्त कठिन है। इसी पर्वत पर आगे कूर्मतीर्थ, तैमिगिल तीर्थ तथा नर-नारायण हैं। यदि कोई इस पर्वत की सीधी चढ़ाई चढ़ सके तो इसी पर्वत के ऊपर से सत्यपथ पहुँच जायेगा। परन्तु यह मार्ग दुर्गम है।
कर्मकांडों का संचालन डिमरी ब्राह्मणों के हाथ में
बदरीनाथ मन्दिर में धार्मिक कर्मकाण्डों का संचालन बहुगुणा जाति के ब्राह्मण करते हैं। भोग पकाने का कार्य डिमरी जाति के ब्राह्मण करते हैं। वे लक्ष्मी मन्दिर के पुजारी भी हैं। वे मन्दिर के अन्दर मुख्य पुजारी के सहायक का कार्य भी करते हैं। रामानुज कोट के पुजारी रामानुज वैष्णव सम्प्रदाय के होते हैं। बदरीनाथ जी अंगार के वस्त्र-आभूषणों का प्रबन्ध करने से वे श्रृंगारी महन्त भी कहे जाते हैं। श्रृंगार की मालायें बनाने का कार्य ठंगूणी ग्राम के निवासी माल्या जाति के ब्राह्मण करते हैं। परिचारकों में दुरियाल लोग भण्डार की व्यवस्था करते हैं। चढ़ावे का प्रबन्ध, पूजा के बर्तनों की देखरेख, धूप और आरती का प्रबन्ध तथा रसोई की लकड़ी आदि का बन्दोबस्त व कपाट बन्द होने पर सुरक्षा की जिम्मेवारी इन्हीं पर होती है। माणा गाँव के मार्छ घृतकमल को एक दिन में बुनकर, कपाट बन्द होते समय भगवान की मूर्ति को आच्छादित करते हैं। वर्तमान में मन्दिर का प्रबन्ध मनोनीत समिति की देखरेख में सम्पन्न होता है।
पंचबदरी का उल्लेख पुराणों में
बदरीनाथ के साथ पंचबदरी का उल्लेख भी पुराणों में मिलता है। इनमें अन्य चार बदरी है- योग बदरी, (पाण्डुकेश्वर), भविष्य बदरी (तपोवन), वृद्ध बदरी (अणिमठ) तथा आदि बदरी कर्णप्रयाग -रानीखेत मार्ग पर। राहुल सांकृत्यायन के अनुसार कभी भविष्य बदरी ही आदि बदरी रहा होगा। कहावत है कि जोशीमठ के नरसिंह मन्दिर की नरसिंह भगवान की मूर्ति की दिन प्रतिदिन पतली होती हुई भुजा जिस दिन गिर जायेगी उस दिन भूस्खलन से बदरीनाथ का मार्ग सदैव के लिए अवरुद्ध हो जायेगा और तब बदरीनाथ का पूजन भविष्यबदरी में होने लगेगा।
वसुधारा
बदरीनाथ से आठ किलोमीटर की दूरी पर नर पर्वत पर 130 मीटर की ऊँचाई से गिरने वाले दो जल प्रपात वसुधारा के नाम से विख्यात हैं। अलकापुरी के बड़े भारी वेगवान स्त्रोत को कठिनता से पार करने के अनन्तर, ऊपर पहाड़ से मोतियों को बरसाती हुई, वायु से झोंके खाते हुई, हर-हर शब्द करती हुई वसुधारा की परम पावन धान दिखाई देती है। वसुधारा जाने के लिए माणा से आगे सरस्वती नदी पर एक विशाल शिला का पुल बना हुआ है। यह भीमशिला कहलाती है।
लेखक का परिचय
लेखक देवकी नंदन पांडे जाने माने इतिहासकार हैं। वह देहरादून में टैगोर कालोनी में रहते हैं। उनकी इतिहास से संबंधित जानकारी की करीब 17 किताबें प्रकाशित हो चुकी हैं। मूल रूप से कुमाऊं के निवासी पांडे लंबे समय से देहरादून में रह रहे हैं।