पत्थरकोट गांव में 20 साल से पत्थर बनकर रह गया 76 वर्षीय बुजुर्ग, कुत्ते के सहारे कट रही जिंदगी

बीते दशकों में गांवों का बढ़ता पलायन अपनी दर्दनाक कहानी बयां कर रहा है। पलायन से पहले कभी ग्रामीणों से भरा पूरा गांव आज बिल्कुल उजाड़ सा लगने लगा है। नगरों की डगर पकड़ने के बाद यदा कदा ग्रामीण इन गांवों में आकर पूजा पाठ कर जाते हैं। शेष समय यहां जंगली जानवरों और पक्षियों की आवाज के अलावा कोई दूसरा शब्द सुनाई देना मुश्किल हो गया है। सर्द रात में घुप्प अंधेरे के बीच काली कुमाऊं के एक गांव में जलती छ्यूल (पेड़ की खाल के रूप में निकाली गई लकड़ी) की एकमात्र रोशनी कहानी इस हकीकत को बयां करती है। (खबर जारी, अगले पैरे में देखिए)
उत्तराखंड में चंपावत जिले में काली कुमाऊं के पाटी विकासखंड के राजस्व गांव पथरकोट में लगभग दो दशक से भी लंबे समय से एक बुजुर्ग व्यक्ति अकेले रह रहे हैं। विषम परिस्थियों में जीवन व्यतीत कर रहे इस बुजुर्ग ने अपने साथ के लिए एक कुत्ता पाल रखा है। बेजुबान के सहारे रह रहे यह बुजुर्ग बताते हैं कि उन्हें पेयजल के लिए मीलों दूर भटकना पड़ता है तो यह कुत्ता भी साथ चलता है। इसके अलावा आवागमन बंद रहने के चलते इस गांव के रास्तों में बड़ी बड़ी कंटीली झाड़ियां उग आई हैं। इससे इस गांव में पहुंचना भी किसी के लिए आसान नहीं है। साथ ही यहां असमय जंगली जानवरों का खतरा लगातार बना रहता है। (खबर जारी, अगले पैरे में देखिए)
काली कुमाऊं के पथरकोट जाने के लिए चंपावत जिले के पाटी विकासखंड के धूनाघाट से गहतोड़ा की तरफ आगे तीन किलोमीटर होते हुए हम कापड़ी गांव तक वाहन से पहुंचे। कापड़ी के पास सड़क खराब होने के चलते हमने अपने वाहन को यहीं रोक दिया। हमने कापड़ी में आसपास के लोगों से पथरकोट गांव के बारे में पूछताछ की तो जानकारी सही थी कि यहां पथरकोट में एकल व्यक्ति के रूप में एक बुजुर्ग लंबे समय से अकेले रह रहे हैं। जिज्ञासा बढ़ती गई और सुनी सुनाई बात को पुख्ता करने हम पैदल ही निकल पड़े। (खबर जारी, अगले पैरे में देखिए)
इस दौरान रास्ते में मिले पथरकोट के एक ग्रामीण दीपक ने बताया कि वह टनकपुर पलायन कर गये हैं। यहां अपने गांव पथरकोट में वह पूजा करने आते रहते हैं। उन्होंने कहा कि गांव में बिजली पानी की कोई सुविधा नहीं है। इससे जो लोग आना चाहते हैं, वह भी गांव आने की हिम्मत नहीं जुटा पाते हैं। इसके अलावा आपदा की मार के चलते उनके चलने फिरने का एकमात्र रास्ता भी जगह जगह खराब हो गया है। इसमें बड़ी बड़ी झाड़ियां उग आई हैं। इस दौरान पैदल रास्ता पार करते करते अनेक जंगली जानवरों का भय अलग बना रहता है। (खबर जारी, अगले पैरे में देखिए)
इसके बाद हम यहां से दुरूह जंगली रास्ते को पार करते हुए तलहटी की ओर लगभग एक घंटे में पथरकोट पहुंचे। इस बीच गांव की लंबी सी बाखली में अकेले रह रहे 75 वर्षीय बुजुर्ग लीलाधर जोशी से सामना हो गया। घर के चारों ओर साफ़ सफाई के अभाव में बड़ी बड़ी झाड़ियां उग आई हैं। पहले तो वह बुजुर्ग हमसे बात करने में बहुत हिचकिचाए। फिर कुछ कोशिश के बाद अपनी व्यथा सुनाने लगे। बुजुर्ग लीलाधर का कहना है कि यह उनके बुजुर्गों का गांव है। यह कहते कहते उनकी आंखों में आंसू छलक आए। बोले- सब गांव के लोग कामकाज की तलाश में गांव से दूर चले गये। पर उन्हें अपनी माटी का मोह यहां से जुदा नहीं कर सका है। लीलाधर की बेटी का विवाह हो चुका है। पत्नी भी 20 साल से साथ नहीं रहती। ऐसे में वह अकेले ही इस गांव में रहते हैं। (खबर जारी, अगले पैरे में देखिए)
उन्होंने बताया कि उन्हें पेयजल के लिए रोजाना एक डेढ़ किलोमीटर की दौड़ लगानी पड़ रही है जो उनके लिए सबसे बड़ा कष्टकारी है। उन्होंने कहा कि गांव में बिजली का कोई अता पता नहीं। इसलिए रोज अंधेरी रात लकड़ी के छ्यूल के सहारे गुजारना भी उनकी एक मजबूरी है।
लेखक का परिचय
उत्तराखंड में चंपावत जिले के जगदंबा कालोनी, चांदमारी लोहाघाट निवासी ललित मोहन गहतोड़ी स्नातक, प्रशिक्षित स्टेनोग्राफर, प्रशिक्षित व्यायाम शिक्षक हैं। ललित वर्तमान में स्वतंत्र पत्रकारिता के साथ फाल्गुनी फुहारें नाम से एक वार्षिक सांस्कृतिक पुस्तक का प्रकाशन कर रहे हैं। इसके अब तक चार भाग प्रकाशित कर चुके हैं। उनका कहना है कि फुहारें पुस्तक का आगामी अंक पांच वसंत फुहारें विशेषांक भी वह जल्द ही प्रकाशित करने जा रहे हैं।

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भानु बंगवाल
मेल आईडी-bhanubangwal@gmail.com
भानु बंगवाल, देहरादून, उत्तराखंड।