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December 12, 2024

500 साल पुराना अल्मोड़ा का तांबा कारोबार, जीआइ टैग मिलने से जगी उम्मीद, डॉ. हरीश चन्द्र अन्डोला का लेख

करीब साढ़े तीन हजार साल पहले कुमाऊं में ताम्र संचय युगीन संस्कृति विकसित हुई थी। यह करीब 15वीं सदी ईसा पूर्व का वह काल माना जाता है, जब मनुष्य ने पत्थरों के उपकरणों के स्थान पर तांबे से उपकरण और हथियार आदि बनाने शुरू किए।

करीब साढ़े तीन हजार साल पहले कुमाऊं में ताम्र संचय युगीन संस्कृति विकसित हुई थी। यह करीब 15वीं सदी ईसा पूर्व का वह काल माना जाता है, जब मनुष्य ने पत्थरों के उपकरणों के स्थान पर तांबे से उपकरण और हथियार आदि बनाने शुरू किए। अस्सी के दशक, और उसके बाद उत्तराखंड में कुमाऊं के कई इलाकों में ताम्र संचय युगीन संस्कृति वाले तांबे की बनी मानव आकृतियां, अन्य उपकरण मिले। अंग्रेजों के शासन से पहले चंद, गोरखा शासन के दौरान कुमाऊं के तमाम इलाकों में तांबे का अच्छा खासा कारोबार था। कुछ इलाकों में तांबे की खानें भी थी, लेकिन अब यह उद्योग समाप्त हो गया है। (खबर जारी, अगले पैरे में देखिए)

कला और संस्कृति में अलग पहचान है अल्मोड़ा की
देश में ताम्र युगीन उपकरण 1822 से प्रकाश में आते रहे हैं, लेकिन सबसे पहले इस ओर 1905, 1907 में आगरा के अवध प्रांत में तैनात जिला मजिस्ट्रेट विसेंट स्मिथ ने ध्यान दिया। उस दौर में मिले ताम्र उपकरणों को सूचीबद्ध करते हुए उन्होंने सबसे ताम्रयुग की कल्पना की थी। विशेषज्ञों ने शुरू में यह अनुमान लगाया कि ताम्रयुगीन संस्कृति तत्कालीन अविभाजित उप्र में सिर्फ सहारनपुर, बिजनौर, मुरादाबाद, बदायूं आदि इलाकों तक ही सीमित थी। पुराविद कौशल सक्सेना के  मुताबिक 1986 में ताम्र संस्कृति का पहला उपकरण हल्द्वानी में प्राप्त हुआ। उत्तराखण्ड़ का वह जिला जो अपनी पहचान सांस्कृतिक नगरी के रुप में रखता है, जी हां हम बात कर रहे हैं अल्मोड़ा की! यहां की कला और संस्कृति इस शहर को औरों से अलग बनाती है। (खबर जारी, अगले पैरे में देखिए)

ताम्र कला में विदेशों में भी पहचान
साहित्य, कला हो या राजनीति। इस अल्मोड़ा शहर के कई बड़े हस्ताक्षर देश विदेश में जाने जाते हैं। स्वामी विवेकानंद भी इस शहर में पहुंचे और यहां कई स्थानों पर तपस्या की। स्व.गोविंद बल्लभ पंत, स्व.सुमित्रानंदन पंत, मुरली मनोहर जोशी, प्रसून जोशी और बद्री दत्त पांडे जैसे लोगों का यह शहर अपनी संस्कृति ही नहीं, बल्कि अपनी ताम्र कला के लिए भी विदेशों में जाना जाता रहा है। उत्तराखंड में तांबे के बर्तनों का उपयोग प्राचीन काल से ही होता आया है। यहां उस दौर में तांबे के बर्तनों में भोजन बनाने की प्रथा थी। तांबे को बहुत शुद्ध माना गया है, इसलिए लोग तांबे के बर्तनों में ही खाना पकाते थे और तांबे के बर्तनों में रखा हुआ पानी पीते थे। तांबे के तौले (भात पकाने के लिए बड़े बर्तन) भड्डू (दाल बनाने के लिए बड़े बर्तन) गागर (गगरी) केसरी, फिल्टर, लोटे, दीये प्रमुख थे, जिनकी मांग हमेशा से बाजार में रही है। (खबर जारी, अगले पैरे में देखिए)

वाद्य यंत्रों के निर्माण में भी तांबे का उपयोग
उत्तराखंड के वाद्य यंत्रों में तुतरी, रणसिंह और भौखर हमेशा से प्रमुख रहे हैं, जिन्हें तांबे से बनाया जाता था, और यह सारे काम हैंडीक्राफ्ट का काम करने वाले कारीगर ही किया करते थे। आज से 15 साल पहले अल्मोड़ा में करीब डेढ़ सौ परिवार तांबे का हैंडीक्राफ्ट काम किया करते थे। एक समय था जब अल्मोड़ा के टम्टा मोहल्ला की गलियों से गुजरते हुए आपको हर समय टन-टन की आवाज सुनाई देती थी। यह आवाज ताबा हैंडीक्राफ्ट कारीगरों के घरों से आती थी। क्योंकि दिन रात मेहनत करके वह ताबे के बड़े सुंदर बर्तनों को आकार दिया करते थे। उस दौर में अल्मोड़ा के तांबा हैंडीक्राफ्ट का सिर्फ भारत ही नहीं बल्कि विदेशों में भी बोलबाला हुआ करता था। जैसे-जैसे साल बीतते रहे यह आवाजें भी गायब सी हो गई हैं। (खबर जारी, अगले पैरे में देखिए)

लड़की की शादी में तांबे की गगरी देने का था चलन
एक दौर ऐसा भी था जब अल्मोड़ा कि हर दुकान में आपको गगरी नजर आती थी जिसे स्थानीय भाषा में गागर भी कहा जाता है। परंपरा यह थी की लड़की की शादी में गगरी देना अनिवार्य था। कभी कभी ऐसा भी होता था कि एक ही शादी में एक से अधिक गगरी मिल जाती थी। समय के साथ तांबे की जगह स्टील व सिल्वर के बर्तनों ने ले ली, तौली व भडडू की जगह कुकर ने ली तो गागर की जगह स्टील की गगरी ने ले ली। वहीं तांबा कारीगरों को इस बात की चिंता सताने लगे कि देश में जब मशीनीकरण हो जाएगा तो शायद उनका काम भी छिन जाएगा। हुआ भी कुछ ऐसा ही जैसे-जैसे तांबे के काम को मशीनों के जरिए किया जाने लगा हैंडीक्राफ्ट के मजदूरों के हाथ से मानो काम छिन सा गया। जिस अल्मोड़ा के टम्टा मोहल्ला में एक जमाने में मजदूरों के पास सांस लेने की फुर्सत नहीं थी, आज उसी टम्टा मोहल्ला की
हालत यह है कि मजदूरों के पास काम नहीं है। क्योंकि व्यापारी मशीनों से मुनाफा भी कमा रहे हैं और कम समय में ज्यादा उत्पाद भी प्राप्त कर रहे हैं। (खबर जारी, अगले पैरे में देखिए)

अब खाली बैठे हैं शिल्पी
अल्मोड़ा के टम्टा मोहल्ला में रहने वाले तांबा हैंडीक्राफ्ट के कारीगर का कहना है कि अब तो ऐसा लगता है कि शायद तांबा कारीगरी का यह हुनर उनकी पीढ़ी में ही खत्म हो जाएगा। नयी पीढ़ी  इस काम को नहीं करना चाहती है। क्योंकि इसमें मेहनत ज्यादा है और कमाई ना के बराबर है। कारीगर कहते हैं की एक वह भी दौर था जब वह महीने भर तांबे के बर्तनों का आर्डर भी पूरा नहीं कर पाते थे, क्योंकि डिमांड बहुत ज्यादा थी और सभी लोग हैंडीक्राफ्ट काम को ही पसंद किया करते थे। महंगा होने के बावजूद लोग तांबा खरीदा करते थे। शादियों के सीजन में गगरी और तांबे के तौले बनाने का काम उनके पास सबसे ज्यादा रहता था, लेकिन अब हालात ऐसे हैं कि उनको बाजार में जाकर काम मांगना पड़ता है। (खबर जारी, अगले पैरे में देखिए)

मशीनों ने छीन लिया इस कला को
सुनील टम्टा बताते हैं कि अब मशीनों से तांबे का काम ज्यादा हो रहा है। इससे समय बच रहा है और उत्पाद ज्यादा मिल रहा है। मशीनों से किया गया काम हैंडीक्राफ्ट की तुलना में सस्ता है। इसलिए व्यापारी भी मशीनों से ही काम करवा रहे हैं। उनके पास अब वह काम आ रहा है जो मशीनों से नहीं किया जा सकता है। या जो बर्तन पुराने हो गए हैं, उन्हें नई चमक देनी है। सरकारों से भी तांबा हैंडीक्राफ्ट के कारीगर नाराज नजर आते हैं। क्योंकि सरकारें वादा करती रही कि अल्मोड़ा की ताम्र नगरी को बेहतर और आधुनिक बनाया जाएगा, लेकिन 1992 में बनाई गई ताम्र नगरी में आज भी तकनीकी के मामले में कुछ नहीं है। (खबर जारी, अगले पैरे में देखिए)

सरकारों ने दिखाए सपने, पर हुआ कुछ नहीं
अल्मोड़ा में हरिप्रसाद टम्टा शिल्प कला संस्थान के जरिये तांबा हैंडीक्राफ्ट के क्षेत्र में प्रगति के सपने भी
दिखाए गए, लेकिन ऐसा कुछ भी नहीं हुआ। मशीनों से काम सुगमता और कम समय में ज्यादा
उत्पाद के तौर पर हो रहा है। इसलिए लोग हैंडीक्राफ्ट की ओर कम जा रहे हैं। सरकारों को तांबा
कारीगरों को तकनीक से युक्त बनाने की जरूरत है और मशीनों के तौर पर उन्हें सब्सिडी भी दी जानी चाहिए। जिससे वह मशीनों के जरिए भी अपना कार्य कर सकें। (खबर जारी, अगले पैरे में देखिए)

विदेशों में भी है डिमांड
तांबा हैंडीक्राफ्ट का काम विदेशों में भी बड़े पैमाने पर पसंद  किया जाता है। अल्मोड़ा और उसके आसपास के क्षेत्रों में घूमने आने वाले पर्यटक काफी मात्रा में तांबे के बर्तनों को खरीदते हैं। विदेशों से बड़े पैमाने पर इनकी डिमांड भी आती है। ऐसे में सरकार को चाहिए कि तांबा हैंडीक्राफ्ट को बचाने के लिए योजनाएं शुरू की जाए। तांबा हैंडीक्राफ्ट से जुड़े कारीगरों को तकनीक से युक्त बनाने के साथ- साथ उन्हें मशीनों में सब्सिडी भी दी जाए। (खबर जारी, अगले पैरे में देखिए)

चंद शासनकाल में समृद्ध था पारंपरिक बर्तनों का उद्योग
चंद शासनकाल में सिक्कों की ढलाई से लेकर मौजूदा पारंपरिक तांबे के बर्तनों तक का अल्मोड़ा का सफर बेहद समृद्ध रहा। चंद वंश की राजधानी में हुनरमंद तामता बिरादरी की टकसाल ने तमाम उतार चढ़ाव देखे। वक्त के साथ ताम्र शिल्पियों की हस्तकला पर मशीनीयुग की काली छाया क्या पड़ी, बुलंदियों पर रही ताम्रनगरी धीरे-धीरे उपेक्षा से बेजार होती चली गई। अब पर्वतीय राज्य के जिन सात उत्पादों को जीआइ टैग मिला है, उनमें यहां के तांबे से बने उत्पाद भी शामिल हैं। वैसे तो घरेलू बर्तन मसलन फौला, तौला के साथ धार्मिक आयोजनों में प्रयुक्त होने वाले पंचधारा, मंगल परात, गगार, कलश ने अल्मोड़ा को देश-विदेश तक पहचान दिलाई है। (खबर जारी, अगले पैरे में देखिए)

ताम्र नगरी का इतिहास करीब 500 वर्ष पुराना है। धरती के गर्भ में ताम्र धातु की पहचान व गुणवत्ता परखने में माहिर तामता परिवार तब चंद राजाओं के दरबार में खास अहमियत रखता था। चम्पावत से अल्मोड़ा में राजधानी बनाने के बाद यहां तामता (टम्टा) परिवारों की टकसाल बनी। पाटिया (चंपावत) से ये राज हस्तशिल्पी अल्मोड़ा में बसाए गए। तब ताम्रशिल्प को कुमाऊं के सबसे बड़े उद्योग का दर्जा मिला। टकसाल में गृहस्थी के साथ पूजा व धार्मिक आयोजनों में प्रयुक्त होने वाले बर्तनों के साथ सिक्कों की ढलाई व मुहर भी बनाई जाती थी। (खबर जारी, अगले पैरे में देखिए)

पहले पहाड़ियों से निकालते थे तांबा
पुरखों से विरासत में मिली ताम्रशिल्प को संजोए हस्तशिल्पी नवीन टम्टा कहते हैं, पूर्वज पहले झिरौली (बागेश्वर) की पहाड़ी से तांबा निकालते थे। चंद राजवंश के बाद ब्रितानी हुकूमत ने खान बंद करा दी। ब्रिटेन से तांबा मंगाया जाने लगा। इसके बाद सिक्कों की ढलाई बंद हो गई। आजादी के बाद ताम्रनगरी फिर बुलंदियों की ओर बढ़ी। यहां के बने पराद (परात), गागर व कलश की भारी मांग रहती थी। मांगलिक व धार्मिक कार्यक्रमों के लिए फौले, गगरी, पंच एवं अघ्र्यपात्र, जलकुंडी ही नहीं शिव मंदिरों के लिए ताम्र निर्मित शक्ति की मांग अभी बरकरार है। पारंपरिक ठनक कारखानों की बजाय आधुनिक फैक्ट्रियों में मशीनों से ताम्र उत्पाद बनने लगे। इससे ताम्र नगरी की टकसाल संकट में पड़ गई। (खबर जारी, अगले पैरे में देखिए)

डीआइ टैग से बढ़ेगी डिमांड
हालांकि हरिद्वार महाकुंभ में तत्कालीन आइजी कुमाऊं संजय गुंज्याल की पहल पर यहां से अतिथियों के
लिए 500 फौले, गागर व कलश बनवाए गए। उत्तराखंड के अल्मोड़ा जिले के ताम्र उत्पाद को अब जीआई टैग मिला है। इस बात की जानकारी खुद सीएम पुष्कर सिंह धामी ने ट्वीट कर दी है। जीआई टैग मिलने से जहां तांबे के बर्तनों की डिमांड बढ़ेगी, वहीं उत्पदकों की भी स्थिति भी सुधरेगी। ताम्र उत्पाद को जीआई टैग यानी भैगोलिक संकेतक प्राप्त होने से ताम्र उत्पादों की मांग बढ़ने के साथ साथ उत्पादकों को भी आर्थिक रूप से मजबूती प्राप्त होगी। अल्मोड़ा के तांबे के बर्तनों की देश के साथ विदेशों में भी डिमांड है। इसीलिए अल्मोड़ा को ताम्र नगरी के रूप में भी जाना जाता है। यहां का तांबा कारोबार करीब 500 साल पुराना माना जाता है। (खबर जारी, अगले पैरे में देखिए)

सरकारों की उदासीनता से सिमटा कारोबार
हालांकि धीरे-धीरे सरकारों की उदासीनता के कारण आज यह व्यवसाय सिमट चुका था। कुछ दशक पहले तक अल्मोड़ा के टम्टा मोहल्ले में करीब 72 परिवार इस व्यवसाय से जुड़े थे, जो अब घटकर 10-12 परिवारों में ही सिमट गया है। यह बचे खुचे ताम्ब्र कारीगर अब स्थानीय दुकानदारों के बदौलत ही इस व्यवसाय को बचाए हुए हैं। तांबे का पानी स्वास्थ्य के लिए लाभदायक माना जाता है। अल्मोड़ा में हस्तनिर्मित तांबे के बर्तन शुद्ध तांबे के होते हैं। जिनको कारीगर पिघलाकर हथौड़े से पीट-पीटकर बनाते हैं। दीपावली के समय में तांबे के बर्तनों की काफी डिमांड रहती है। स्थानीय उत्पादों की ब्रांडिंग में जीआइ टैग महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। ताम्र उत्पाद को जीआइ टैग प्राप्त होने के बाद फिर से उम्मीद जगी है।


लेखक का परिचय
नाम-डॉ. हरीश चन्द्र अन्डोला
ये लेखक के निजी विचार हैं। वर्तमान में वह दून विश्वविद्यालय कार्यरत हैं। साथ ही देहरादून उत्तराखंड में निवासरत हैं।

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भानु बंगवाल, देहरादून, उत्तराखंड।

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