सिख धर्म के पांचवें गुरु अर्जुन देव के शहीदी दिवस पर लगाई गई शर्बत की छबील, जानिए उनकी बलिदान की कहानी
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गुरु अर्जुन देव सिखों के पांचवें गुरु थे। इस साल आज 23 मई को गुरु अर्जुन देव का शहादत दिवस है। गुरु अर्जन देव जी गुरु परंपरा का पालन करते हुए कभी भी गलत चीजों के आगे नहीं झुके। उन्होंने शरणागत की रक्षा के लिए स्वयं को बलिदान कर देना स्वीकार किया, लेकिन मुगलशासक जहांगीर के आगे झुके नहीं। वे हमेशा मानव सेवा के पक्षधर रहे। सिख धर्म में वे सच्चे बलिदानी थे। उनसे ही सिख धर्म में बलिदान की परंपरा का आगाज हुआ। उनके शहादत दिवस पर उत्तराखंड की राजधानी देहरादून में महानगर कांग्रेस कमेटी के पूर्व अध्यक्ष लालचन्द शर्मा ने उन्हें भावपूर्वक याद किया। इस अवसर पर लालचन्द शर्मा ने राजपुर रोड़ आटो संघ की ओर से आयोजित शर्बत की छबील और लंगर कार्यक्रम में शिरकत की। (खबर जारी, अगले पैरे में देखिए)
इस मौके पर उन्होंने कहा कि सिक्ख धर्म के गुरूओं ने समाज को सेवा, त्याग और बलिदान का रास्ता दिखाया, ऐसी ही महान विभूतियों में गुरू अर्जुन देव जी उनमें से एक थे। उन्होंने कहा कि शांत एवं गम्भीर स्वभाव के धनी गुरू अर्जुन देव जी शहीदों के सरताज थे उन्होंने अपने जीवन पर्यन्त समाज को शांति का संदेश दिया। उन्होंने समाज से गुरू अर्जुन देव जी के बताये मार्ग पर चलने का आह्रवान करते हुए कहा कि मानव सेवा सबसे बड़ा धर्म है। इस अवसर पर कश्मीरा सिंह, मिंटू सिंह, हरविंदर सिंह, काला सिंह, बुरा सिंह, पना सिंह, माखन सिंह, गुरविंदर सिंह, बबली, गुरबक्श आदि मौजूद थे।(खबर जारी, अगले पैरे में देखिए)
गुरु अर्जुन देव जी के बारे में
गुरु अर्जुन देव जी का जन्म 15 अप्रैल साल 1563 में हुआ था। वे गुरु रामदास और माता बीवी भानी के पुत्र थे। उनके पिता गुरु रामदास स्वयं सिखों के चौथे गुरु थे, जबकि उनके नाना गुरु अमरदास सिखों के तीसरे गुरु थे। गुरु अर्जुन देव जी का बचपन गुरु अमरदास की देखरेख में बीता था। उन्होंने ही अर्जुन देव जी को गुरमुखी की शिक्षा दी। साल 1579 में उनका विवाह माता गंगा जी के साथ हुआ था। दोनों का एक पुत्र हुआ, जिनका नाम हरगोविंद सिंह था, जो बाद में सिखों के छठवें गुरु बने। (खबर जारी, अगले पैरे में देखिए)
अर्जुन देव ने रखवाई थी स्वर्ण मंदिर की नींव
वर्ष 1581 में गुरु अर्जुन देव सिखों के पांचवे गुरु बने। उन्होंने ही अमृतसर में श्री हरमंदिर साहिब गुरुद्वारे की नींव रखवाई थी, जिसे आज स्वर्ण मंदिर के नाम से जाना जाता है। कहते हैं इस गुरुद्वारे का नक्शा स्वयं अर्जुन देव जी ने ही बनाया था। (खबर जारी, अगले पैरे में देखिए)
गुरु ग्रंथ साहिब का संपादन किया
उन्होंने श्री गुरु ग्रंथ साहिब का संपादन भाई गुरदास के सहयोग से किया था। उन्होंने रागों के आधार पर गुरु वाणियों का वर्गीकरण भी किया। श्री गुरु ग्रंथ साहिब में स्वयं गुरु अर्जुन देव के हजारों शब्द हैं। उनके अलावा इस पवित्र ग्रंथ में भक्त कबीर, बाबा फरीद, संत नामदेव, संत रविदास जैसे अन्य संत-महात्माओं के भी शब्द हैं। (खबर जारी, अगले पैरे में देखिए)
गुरु अर्जुन देव जी की बलिदान गाथा
मुगल बादशाह अकबर की मृत्यु के बाद अक्तूबर, 1605 में जहांगीर मुगल साम्राज्य का बादशाह बना। साम्राज्य संभालते ही गुरु अर्जुन देव के विरोधी सक्रिय हो गए और वे जहांगीर को उनके खिलाफ भड़काने लगे। उसी बीच, शहजादा खुसरो ने अपने पिता जहांगीर के खिलाफ बगावत कर दी। तब जहांगीर अपने बेटे के पीछे पड़ गया, तो वह भागकर पंजाब चला गया। खुसरो तरनतारन गुरु साहिब के पास पहुंचा। तब गुरु अर्जन देव जी ने उसका स्वागत किया और उसे अपने यहां पनाह दी। (खबर जारी, अगले पैरे में देखिए)
इस बात की जानकारी जब जहांगीर को हुई तो वह अर्जुन देव पर भड़क गया। उसने अर्जुन देव को गिरफ्तार करने का आदेश दिया। उधर गुरु अर्जुन देव बाल हरिगोबिंद साहिब को गुरुगद्दी सौंपकर स्वयं लाहौर पहुंच गए। उन पर मुगल बादशाह जहांगीर से बगावत करने का आरोप लगा। जहांगीर ने गुरु अर्जन देव जी को यातना देकर मारने का आदेश दिया। (खबर जारी, अगले पैरे में देखिए)
गर्म तवे पर बिठाकर दी गईं यातनाएं
मुगल शासक जहांगीर के आदेश के मुताबिक, गुरु अर्जुन देव को पांच दिनों तक तरह-तरह की यातनाएं दी गईं, लेकिन उन्होंने शांत मन से सबकुछ सहा। अंत में ज्येष्ठ मास के शुक्ल पक्ष की चतुर्थी तिथि संवत् 1663 (30 मई, सन् 1606) को उन्हें लाहौर में भीषण गर्मी के दौरान गर्म तवे पर बिठाया। उनके ऊपर गर्म रेत और तेल डाला गया। यातना के कारण जब वे मूर्छित हो गए, तो उनके शरीर को रावी की धारा में बहा दिया गया। उनके स्मरण में रावी नदी के किनारे गुरुद्वारा डेरा साहिब का निर्माण कराया गया, जो वर्तमान में पाकिस्तान में है। गुरु अर्जुन देव का पूरा जीवन मानव सेवा को समर्पित रहा है। वे दया और करुणा के सागर थे। वे समाज के हर समुदाय और वर्ग को समान भाव से देखते थे।
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भानु बंगवाल
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भानु बंगवाल, देहरादून, उत्तराखंड।