शिक्षिका डॉ. पुष्पा खण्डूरी की कविताः माँ के प्रति- ढाई बर्ष से कौमा में है माँ
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माँ के प्रति
ढाई बर्ष से कौमा में है माँ
माँ तुम्हारें बिना सारी खुशियां।
बेमानी सी लगती हैं ॥
कितना मुश्किल है माँ,
माँ तुम्हारे से बिना कुछ कहे सुने ऐसे ही जीना
कितना कुछ था कहना,
कितना कुछ था सुनना,
कितना कुछ था पूछना,
कितना कुछ था बताना,
कितना था तुम्हारे संग हंसना
समय खुशीख़ुशी बतियाते हुए गुजारना।
कितनी यादें हैं रात्रि में तुम्हारें आँचल में सोना।
तुम्हारा वो मेरा सिर धीरे अंगुलियों से सहलाना,
अपना कम्बल भी रात में खींचकर मुझे ही उड़ाना,
मेरी हर उदासी को दूर से
महसूस कर तुम्हारा फोन कर कहना क्या बात है,
बेटी आज तू उदास है ।
माँ तुम मेरे हर दुख दर्द एक स्पर्श से हर लेती हो
बिन बोले ही तुम मेरी,
हर बात समझ लेती हो !
मेरे लिए सुबह -सुबह उठ गरमा गरम चाय ला
फिर सिर सहला प्यार से
धीरे से मुझे यूँ जगाना ..
तेरे बिन ये सब सपना
सा ही अब लगता है ।
तेरे बिन मुझे नहीं कोई
ऐसे लाड़ -प्यार करता है
एक दिन यूँ अचानक तुम्हारा,
चिर -मौन सा धारण करना व एक दम
यूँ ही चुप मौन हो जाना,
सचमुच बहुत अखरता है
कुछ तो बोलो चाहे डाटो
पर अब तुम्हारा यूँ मौन,
मन को सालता रहता है
जीवन के राह में तुम्हारी,
अचानक चुप्पी अब बहुत ज्यादा हमको खलती है
सचमुच ममता का साया छिन जाना ही लगती है।
सच माँ बहुत मुश्किल है
माँ तुम्हारें बिना बोले,
माँ तुम से बिना बोले
हम सबका यूँ मजबूर
हो के बेवश सा जीना
अपनी सारी खुशियाँ ही बेमानी सी लगती हैं
तेरे आशीष बिना मनाना॥
त्यौहार भी फीके ही से
आते है जब से तुमने
छोड़ दिया यूँ मुसकाना
माँ सचमुच ही बहुत
कठिन है यूँ घुट -घुट
के तेरे बोले बिना ही
हमारा सबका जीना ”
माँ अब तुम मौन त्याग
कुछ तो बोलो चाहे
डाटो पर अपना मौन
तोड़ माँ कुछ तो बोलो॥
कवयित्री का परिचय
प्रोफेसर, डॉ. पुष्पा खण्डूरी
डी.ए.वी ( पीजी ) कालेज
देहरादून, उत्तराखंड।
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