चित्त एवं बुद्धि का तालमेल अत्यावश्यक, तभी मन रहेगा शांतः डॉ. पुष्पा खण्डूरी
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जो कुछ भी बाह्य घटित हो रहा होता है, यदि मन की उससे सहमति न हो रही हो और मनुष्य की विवेक बुद्धि उसकी असहमति से सहमत न हो, तो मन की उद्विग्नता बढ़ती चली जाती है। इसी से अशान्त मन की उपज होती है, जो कि अनेक विपदाओं एवं अवांछित घटनाओं को जन्म देती है। अस्तु चित्त एवं बुद्धि का तालमेल अत्यावश्यक है। (खबर जारी, अगले पैरे में देखिए)
कैसा चित्त हो और कैसी बुद्धि हो जिनमें सामंजस्य बना रहे? इसका उत्तर है कि चित्त स्थिर चित्त हो एवं बुद्धि विवेकपूर्ण बुद्धि हो। स्थिर चित्त व्यक्ति ही शान्त चित्त से बुद्धि के विवेक को ग्रहण करता है, वहीं दूसरी ओर विवेकी बुद्धि में मन की कोमल एवं शुद्ध भावों की ग्राह्यता भी रहती है। चित्त एवं बुद्धि की इसी सहिष्णुता से व्यक्ति अपने लक्ष्य एवं उद्दात भावनाओं की पूर्ति में सफलीभूत होता है। समय समय पर जितनी भी महान विभूतियां हुईं उन्होंने इसी एक दृढ़ गुण के कारण ही अपने उद्देश्यों की प्राप्ति की। (खबर जारी, अगले पैरे में देखिए)
महान विचारक एवं देशभक्त श्री विवेकानन्द जी, श्री रामकृष्ण जी, कवि श्री रविंद्रनाथ टैगोर जी, आदिगुरु श्री शंकराचार्य जी, महात्मा गांधी जी आदि न जाने कितने अन्य विचारक, देशभक्त, वैज्ञानिक एवं शिक्षाविदों ने अल्पायु में इसी एक गुण के कारण ही विश्व में अपना वर्चश्व स्थापित किया। इन सभी में मन की एक सच्ची लगन व बुद्धि की परख का उत्कृष्ट एवं समन्वित गठजोड़ था। (खबर जारी, अगले पैरे में देखिए)
मन का निग्रह बुद्धि से ही सम्भव है अर्थात् यदि मन घोड़ा है तो बुद्धि उस लगाम की रज्जु है। बुद्धि रूपी रज्जु में किञ्चित भी ढील हुई तो मन रूपी घोड़े का अपने मार्ग रूपी लक्ष्य से कभी भी विचलित होकर गहन खाई में पतन होना अवश्य सम्भावी है। (खबर जारी, अगले पैरे में देखिए)
अशान्त मन को वश में करने के लिये अभ्यास की नितान्त आवश्यकता होती है और इस अभ्यास के लिए मन को एकान्त वरेण्य है,और यह एकान्त वैराग्य से ही प्राप्त हो सकता है। वैराग्य के लिए वन में जाना अनिवार्य नहीं है । हाँ अवाँछित एवं अविवेकशील परिस्थितियों को नजर अंदाज करके सभी सांसारिक व्यवहारों में संलग्न रह कर भी मन वैरागी हो जैसे कि राजा जनक विदेह कहलाते थे ठीक उसी प्रकार से है जैसे—
जल में रहते हुए भी कमलपत्र निर्मल ही बना रहता है।
“लिप्यते न स पापेन पद्मपत्रमिवाम्भसा” (खबर जारी, अगले पैरे में देखिए)
मन निग्रह की एक और सहज युक्ति है जिसे अध्ययन एवं अध्यवसाय से प्राप्त किया जा सकता है। ज्यों – ज्यों बुद्धि में उद्दात, उच्च निर्विकारी सद्विचारों का आत्मसातीकरण होता जाएगा त्यों-त्यों मन का नैर्मल्यीकरण होता चला जायेगा और यहीं से चित्त में स्थिरता का आविर्भाव होगा। इससे एक परिष्कृत सा मन निखर कर उभरेगा।मन अन्तस्थ में सत्य शिव एवं सुन्दर भावों से आपूरित होकर मानो कुछ न कुछ गुनगुनाने के मधुर भाव से आलोड़ित होता चला जाएगा। (खबर जारी, अगले पैरे में देखिए)
एक अशान्त व चिंताग्रस्त मन वाले मनुष्य का मुखमण्डल अब एक सुंदर आभा वाले प्रदीप्त मुखमण्डल सा दिखाई देने लगेगा। उसकी दिव्यता उसके चहुंओर एक आकर्षण की क्षमता को उत्तपन्न करने लगेगी। सभी लोग उसके साहचर्य से एक आनन्द की अनुभूति करने लगेंगे। समस्त वातावरण एक सकारात्मक ऊर्जा से भर उठेगा। तो आइए मनसा, वाचा एवं कर्मणा एक ऐसा प्रयास करें, जिससे कि हम अपने अशान्त मन को शान्त मन बनाये रखें एवं जीवन को कल्याणकारी बनाकर आनन्दित होकर जियें। सर्वेषां स्वस्तिर्भवतु!
लेखिका का परिचय
प्रोफेसर, डॉ. पुष्पा खण्डूरी
डी.ए.वी ( पीजी ) कालेज
देहरादून, उत्तराखंड।