डॉ. पुष्पा खण्डूरी की कविता-मुझे विरल नहीं है रहना
1 min readमुझे विरल नहीं है रहना
मुझे विरल नहीं है रहना,
मुझको अविरल ही बहने दो।
धारा – प्रवाह में घिस – घिस पत्थर से
मुझको अब शिव होने दो।
2
मुख पर झूठी हंसी ओढ़ने से बेहतर ।
ज़ख़्म हरे ही मन के रहने दो॥
बहुत कह चुकी मैं जग – देखी,
पर अब आखों – देखी कहने दो।
मुझको विरल नहीं है रहना
मुझको अविरल ही बहने दो॥
3
बहती बयार को बहुत दे चुकी
रंगों आफताब अर खूश्बू भी,
अब बयार को भी मेरी सी,
कंटक – शैय्या पर पल भर सोने दो।
मुझको विरल नहीं है रहना
मुझको अविरल ही बहने दो॥
4
मस्त झूमती जभी हवा में
ज़ख्म गहन कांटों से मिलते
अब तो इस वैरन बयार को
जो मैंने सही कसक, सहने दो।
मुझको विरल नहीं है रहना
मुझको अविरल ही बहने दो।
5
बेर -केर ढंग बहुत सह लिए ,
रही पोंछती जख्म सदा और के।
बहुत हो चुका दया – धरम
अब मुझको अपना मरहम होने दो।
मुझको विरल नहीं है रहना
मुझको अविरल ही बहने दो॥
6
मैंने कभी मैल तन – मन का धोया।
तो कभी -कभी मृत – तन भी ढ़ोया।।
मैं नित काम और के आई
कभी विद्युत तो कभी सींच वन
देख लिया दरिया मीठा बन,
वचन कटुक अब बहुत सह लिये
मुझको जिद है अब विरल नहीं, अविरल रहने की ।
मुझको अविरल ही बहने दो।
सागर से है मुझको मिलन ।
सागर से मिल खारा रहने दो॥
मुझको विरल नहीं है रहना
मुझको अविरल ही बहने दो ॥
कवयित्री का परिचय
डॉ. पुष्पा खण्डूरी
एसोसिएट प्रोफेसर एवं विभागाध्यक्ष हिन्दी
डी.ए.वी ( पीजी ) कालेज
देहरादून उत्तराखंड।