घूंघट में रहना संस्कारवान नहीं, ढकोसलों में जीना गंवारा नहीं
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जब जिन्दगी के रास्तों में नये सपनों को साथ लेकर जीने की तमन्ना जागती है तो ख्वाहिशों के झूले भी पैंग बढ़ाने लगते हैं।नये अरमानों के संग जिन्दगी रंगीनियों में घुलने लगती है, लेकिन वहीं दूसरी ओर हमारे रीति-रिवाज और पुस्तैनी पंरम्परा भी हमारी आदतों में शामिल कर दी जाती हैं। कुछ रीवाजों को तो हम सहज स्वीकार कर लेते हैं, किंतु कुछ प्रथाएं ऐसी होती हैं जो हमें बंधन लगते हैं। जैसे स्त्रियों का घूंघट में रहना। नयी दुल्हन घर में आयी है और घूंघट से चेहरा न छुपाया गया हो तो वहीं उसके चरित्र पर छींटाकशी शुरू हो जाती है और मान लिया जाता है कि बहू संस्कारवान नहीं है।
आज शिक्षा ने सब कुछ बदल दिया है। महिलाओं ने साबित कर दिया है कि बिना सर पर पल्लू रखे और बिना चेहरा छुपाए भी वह घर के बड़े बुजुर्गो का सम्मान कर सकती है। घूंघट को संस्कारों के साथ बिल्कुल भी नहीं जोड़ा जा सकता है कि घर की स्त्री संस्कारवान तभी हो सकती है जब वह अपना चेहरा ढांप कर रखे। मगर ये क्यों नहीं सोचा जाता कि अगर वह मुंह ढक कर रहती है हर समय तो उसे घुटन नहीं होगी क्या। आंखें पर्दे में होंगी तो वह देख कैसे सकती है, चल कैसे सकती है, सीढ़ीयां कैसे उतरेगी आदि।
आज के शिक्षित समाज में पर्दा जैसी कुप्रथा को परे रख कर बेटियों और बहुओं का हौंसला बढ़ाना चाहिए। उनको बांधने के बजाय हौसलों के पंख देने का समय है अब। हम सबको मिलकर एक नये समाज का निर्माण करना होगा एक महिला के आत्मसम्मान की वृद्धि के लिए एवं उसके व्यक्तित्व को निखारने के लिए इन दकियानूसी सोच को परे रखकर नये समाज को विकसित करना होगा।
आज के दौर में यह मानना भी बिल्कुल गलत है कि जो महिलाएं घूंघट में रहती हैं वही संस्कारवान हो सकती हैं, क्योंकि इस तरह की भी कई बातें सामने आई हैं जब चेहरे को ढांप कर भी महिलाओं ने कई कुकृत्य किये हैं। तो यह बात दिमाग से बिल्कुल हटा देनी चाहिए कि जो महिलाएं घूंघट में रहती हैं वही संस्कारवान हो सकती हैं।
ये पुरानी पीढ़ी की सोच हो सकती है किंतु आज की औरत स्वतन्त्र विचारों में जीना चाहती हैं। वह बिना पर्दा डाले घर की आबरू बचा सकती है, बड़ों का आदर सम्मान करना भी जानती है और नौकरी में भी अपने उत्तम संस्कारों की बुनियाद पर अच्छा प्रदर्शन कर सकती है। एक तरफ तो हम कहते हैं कि सास- ससुर माता-पिता के समान होते हैं और वहीं दूसरी ओर उसे मुंह ढकने को कहते हैं। मां-बाप बेटी समान बहु का चेहरा देखे बिना कैसे रह सकते हैं यह सोचनीय है।
भारतवर्ष और उसकी संस्कृति पर हमें गर्व है लेकिन संस्कृति के नाम पर ढकोसलों में जीना हरगिज गंवारा नहीं। हमें स्वीकार करना ही होगा कि स्त्री शिक्षा की गुणवत्ता और परख घूंघट में हरगिज नहीं बल्कि चरित्र निर्माण और आत्मविश्वास में है।
लेखिका का परिचय
नाम – शशि देवली
शिक्षा – बी एस सी, एम ए, बीएड, एमएड,शिक्षा विशारद।
सम्प्रति – शिक्षिका
पता – गोपीनाथ मंदिर के पास, मंदिर मार्ग गोपेश्वर, जिला चमोली उत्तराखंड।
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भानु बंगवाल, देहरादून, उत्तराखंड।