इतिहास बनते जा रहे हैं देहरादून के चाय बगान, खड़े हो रहे कंक्रीट के जंगल
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देहरादून कभी चाय, लीची, चूना, चोक (लकड़ी) व चावल (बासमती) के उत्पादन में अपना विशेष स्थान रखता था। सरकारी नीतियों व व्यापारियों ने अधिकतम अर्थ लाभ अर्जित करने के उद्देश्य ने इन समस्त उत्पादों को मात्र किताबी शोभा बनाकर छोड़ दिया। 3088 वर्ग किलोमीटर में फैले देहरादून जिसका कभी 672 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र वन व चाय बागान था सिकुड़ कर रह गया है।
देहरादून में चाय का उद्योग एक अत्यन्त महत्वपूर्ण उद्योग माना जाता था। पिछली सदी के पचास वर्षों तक चाय के व्यवसाय से लगभग बारह हजार परिवारों का पेट पलता था। इसके अतिरिक्त आयात और निर्यात कर के रूप में चाय के उद्योग से प्रदेश सरकार को कई लाख की आमदनी होती थी। लगभग डेढ़ सौ वर्ष पूर्व इस चाय उद्योग को विकसित करने का बीड़ा ब्रिटिश नागरिक डॉ0 जेम्सन ने उठाया था।
रिहायशी कालोनी में बदला चाय बगान का क्षेत्र
देहरादून में इस समय आरकेडिया-हरवंश, ईस्ट होप टाउन, उदियाबाग, गुडरिक, मोहकमपुर, आरकेडिया तथा हरबर्टपुर सात चाय बागान हैं। चाय उद्योग को विकसित करने का प्रथम प्रयास 1830 में किया गया था। 1855 तक अनुकूल वातावरण ने 73 चाय बगान को जन्म दे दिया था। वैसे तो आसाम को चाय उत्पादन में अग्रणी माना जाता है, परन्तु कौलागढ़ का चाय बगान पूरे भारत का पहला चाय उत्पादन क्षेत्र था। यह क्षेत्र बाद में सिरमौर टी स्टेट के नाम से जाना जाने लगा। आज उलट परिस्थितियों में इस क्षेत्र का एक भाग राजेन्द्र नगर स्ट्रीट नं. एक, दो, तीन, चार के नाम से नगर निगम की फाइलों में रिहायशी कालोनी के रूप में विकसित है।

1930 तक देहरादून व उत्तराखंड के अन्य जिले, आसाम, उड़ीसा व नागालैंड की तुलना में तीन सौ प्रतिशत अधिक चाय उत्पादन करते थे। आज सरकार का उपेक्षित व्यवहार व उचित तकनीक के अभाव में देहरादून मात्र 4.50 लाख किलोग्राम चाय उत्पादित कर रहा है। 1951 तक इस क्षेत्र में मात्र 37 चाय बगान बचे थे, जो 1804 हेक्टेयर भूमि में फैले थे तथा बारह लाख किलोग्राम चाय का उत्पादन प्रतिवर्ष करते थे।
आज आरकेडिया-हरवंश देहरादून का सबसे बड़ा चाय बगान है, जो 33.76 हेक्टेयर में फैला है। ईस्ट होप टाउन 250.23 हेक्टेयर, उदियाबाग टी स्टेट 136-84, गुडरिक 106.31 हेक्टेयर, मोहकमपुर 32.38 हेक्टेयर, आरकेडिया चाय बगान 70.62 तथा हरबर्टपुर 6 एकड़ में चाय का उत्पादन कर रहा है।
देहरादून की चाय गुणवत्ता में श्रेष्ठ होने के कारण अफगानिस्तान व रूस के कुछ भागों में आज भी लोकप्रिय है। यहां की ग्रीन टी की तो विदेशों में भी काफी डिमांड रहती थी। चाय के लिए उत्तम जलवायु व खेती के लिए उपयुक्त मिट्टी उपलब्ध है, परन्तु सरकारी प्रोत्साहन व तकनीक के अभाव में हिमाचल प्रदेश के बराबर भी उत्पादकता के लक्ष्यों को नहीं प्राप्त कर पा रही है। सरकार के उपेक्षित व्यवहार का पता इसी से चल जाता है कि उसने उत्पादकता को विकासोन्मुख बनाने के लिए जिन चाय बगानों का कुछ वर्ष पहले अधिग्रहण किया था आज उनमें से एक भी अस्तित्व में नहीं है।
भूमि की अंधाधुंध बढ़ती कीमतों तथा वन अधिनियम की अनदेखी ने इस उद्योग को बुरी तरह प्रभावित किया है। चाय बगानों को सजाने संवारने की अपेक्षा प्लाट बनाकर बेचने में चाय उद्योगपतियों को अधिक लाभ दिखायी दिया। उसी का परिणाम है कि पटियाला टी स्टेट के स्थान पर बहुमोजली सरकारी इमारतें तथा सिरमौर टी स्टेट के स्थान पर सुसज्जित आवासीय कालोनियों के कंक्रीट के जंगल खड़े दिखायी देते हैं। वन अधिनियम नियमों की ढिलाई के कारण चाय बगान मालिक डेड सौ वर्ष पुराने शीशम आदि वृक्षों के कटानों पर ध्यान केन्द्रित कर रहे हैं। समय रहते सरकार अगर इन चाय बगानों पर ध्यान नहीं देती तो वह दिन दूर नहीं जब देहरादून के चाय बगान इतिहास की विषय वस्तु बनकर रह जायेंगे।
लेखक का परिचय
लेखक देवकी नंदन पांडे जाने माने इतिहासकार हैं। वह देहरादून में टैगोर कालोनी में रहते हैं। उनकी इतिहास से संबंधित जानकारी की करीब 17 किताबें प्रकाशित हो चुकी हैं। मूल रूप से कुमाऊं के निवासी पांडे लंबे समय से देहरादून में रह रहे हैं।
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भानु बंगवाल, देहरादून, उत्तराखंड।