जितेन ठाकुर की कहानीः गीले गुलाबों के गुलदस्ते
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कुत्तों का सौंदर्यशास्त्र शायद मनुष्यों के सौंदर्यशास्त्र से बहुत भिन्न नहीं होता। इसीलिए, सड़क पर मंथर गति से आगे बढ़ती हुई उस जोड़ी को देख कर, मकानों के दरवाजों, खुले अहातों और गली के किनारे सुस्ताते, लोटनियां लगाते और रात भर की थकान उतारते हुए कुत्ते अचानक भौंकने लगे थे। भौंकते हुए कुछ कुत्ते उनसे दूरी बनाकर कदमताल भी कर रहे थे, पर उन दोनों पर इसका कोई असर नहीं था। वह दोनों अपने ही में मगन, धीरे-धीरे आगे बढ़ते जा रहे थे।
बंगाली बाड़े में दुर्गा पूजा के लिए मूर्तियां बनाने का काम आरम्भ हो चुका था। शहर में पहले सिर्फ बंगाली समुदाय ही दुर्गा पूजा का पंडाल सजाते थे। पर अब जिस भी मौहल्ले में ज्यादा बेरोजगार नौजवान थे, उन सब मौहल्लों में दुर्गा पूजा का चलन आरम्भ हो गया था। परंतु शहर भर के पंडालों के लिए मूर्तियाँ बनाने का कार्य केवल बंगाली बाड़े में ही होता था, जहाँ इस समय भी छोटी-बड़ी, घड़ी-अनघड़ी बीसियों मूर्तियों पर दिन रात काम चल रहा था।
मूर्तियां बनाने वाले कारीगर काम के दिनों में बंगाली बाड़े में उठती गीली मिट्टी की सोंधी गंध के बीच ही रहते, सोत और खाते-पकाते। आज भी दिन की शुरुआत करने के लिए यह सब कारीगर इस समय बाड़े के ही बाहर लगे म्यूनिसपैलिटी के नल पर दातुन-कुल्ला करते हुए, नहाने की तैयारी में ही थे कि जब उन्होंने लगातार भौंक रहे कुत्तों वाली दिशा में एक साथ देखा था। देखते ही उनके ओठों पर मुस्कुराहट आ गई और वह एक दूसरे से नजर मिलाकर हंसने लगे। वह बंगाली में कुछ बोल रहे थे और हंस रहे थे, हंस रहे थे और बोल रहे थे।
लड़का-लड़की की वह जोड़ी धीरे-धीरे उनके पास आई और उनके सामने से गुजर कर आगे बढ़ गई। किसी ने फिर कुछ कहा और एक बड़ा ठहाका चारों तरफ फैल गया पर न लड़के ने मुड़ कर देखा न लड़की ने। अलबत्ता वह कारीगर उस जोड़ी की पीठ को तब तक घूरते रहे जब तक कि गली मुड़ नहीं गई।
गली के मोड़ से कोई सौ गज की दूरी पर बने बारात घर के बाहर भी इस समय कामगारों की भीड़ इक्कट्ठा थी। रात की शादी से निपट कर वह लोग अपने-अपने घरों को जाने की तैयारी में थे। तभी किसी की नजर नुक्कड़ पर प्रकट हुई इस जोड़ी पर पड़ी। वह कुछ देर हैरान नजरों से इन्हें देखता रहा, फिर भद्दे तरीके से चिल्लाया। उसकी चिल्लाहट से चैंक कर बाकी लोगों ने भी उसी दिशा में देखा और उस जोड़ी को देख कर भौंडे और भद्दे तरीके से हंसने लगे। जोड़ी अभी दूर थी और सड़क खाली। भौंकते हुए कुत्ते गली की नुक्कड़ तक इस जोड़ी को विदा करके लौट चुके थे।
कामगार पूरी बेशर्मी के साथ इस जोड़ी को देख रहे थे और हंस रहे थे। पर, फाड़ देने की हद तक आँखें खोलने के बाद भी उन्हें न तो लड़के के नाक-नक्श ही दिखलाई दे रहे थे और न ही लड़की के। सूरज इस जोड़ी के पीछे की इमारतों से उग रहा था, इसलिए मुँह पर ऐसी रौशनी भी नहीं थी कि सब कुछ साफ-साफ दिखलाई देता। जो दिखलाई दे रहा था वह सिर्फ सवा चार फुट की दुबली-पतली काली सी लड़की के कांधे पर हाथ रखकर चलते हुए साढ़ेचार फुट के एक काले लड़के की काया थी।
कांधे पर रखे हुए हाथ के स्पर्श से अल्हादित होकर शर्माती हुई लड़की जब हंसती तो कुछ पल के लिए उसके सफैद दांत जरूर दिखलाई देते। कभी किसी कोण कर घूमने से आँखों की सफैदी भी दिखलाई दे जाती। बस इसके अतिरिक्त वहाँ गहरे सांवले रंग के सिवा और कुछ नहीं था। न नाक, न ओंठ कुछ भी स्याह चेहरों से अलग उभरे हुए नहीं दिख रहे थे। अलबत्ता मैले होने के बावजूद लड़के और लड़कर के बेहद चटख रंगवाले लाल, नीले, पीले कपड़ों की तीखी चुभन आँखों में खुभ रही थी।
यह मुमकिन ही नहीं था कि कामगारों की इस असभ्य भीड़ के सामने से गुजरते हुए लड़के या लड़की ने उनकी भद्दी फब्तियां न सुनी हों। पर या तो वह दोनों सचमुच इतने आत्मकेन्द्रित थे कि उन्हें कुछ भी सुनाई नहीं दे रहा था या फिर वह इस भीड़ की बेशर्मी से बचने के लिए आत्मकेंद्रित होने का अभिनय कर रहे थे। पर दोनों ही दशाओं में वह अपने ही में खोए हुए और मगन दिखलाई दे रहे थे।
लड़के ने कामगारों की इस ऊबड़-खाबड़ भीड़ और उनकी फबितयों के बाद भी लड़की के कंधे से हाथ नहीं हटाया था। लड़के ने शायद माहौल को अनुकूल बनाने और दर्शाने के लिए कोई ऐसी बात कही थी जिस पर लड़की हंस कर शरमा गई थी और उसके सफैद दांतों और चमकीली आँखों का लिश्कारा कौंध गया था। इसके बावजूद लड़की की नाक पर जड़ा हुआ पीतल का लौंग और लड़के के कानों में झूलती बालियाँ, उनकी चमकदार गहरी सांवली रंगत के आगे अभी भी बेनूर ही बनी हुई थीं।
अलसुबह, ऐसी किसी जोड़ी का यूं, इस छोटे से शहर की सड़क पर मिल जाना आम बात नहीं थी। शायद इसीलिए हवाखोरी को निकले हुए बूढ़े इस जोड़ी को देखकर हैरत से मुस्कुरा रहे थे और साईकल पर दूध से भरी टंकियों को लाद कर घंटियां टुन-टुनाते हुए दूधिए, जहाँ तक बन पड़ा, मुड़-मुड़ कर इस जोड़ी को देखते जा रहे थे। बस्ते लाद कर घर से निकलते बच्चों ने इन्हें अजूबे की तरह देखा और किसी फैशन शो में शरीक होने जैसी सज-धज के साथ काॅलेज जा रही लड़कियाँ इन्हें देखकर मुस्कुराई, फिर नाक-भौं सिकोड़ी और कुछ सोच कर शरमा गईं। पर इस जोड़ी की चाल, भाव भंगिमा और बीच-बीच में उभरती लड़की की खिलखिलाहट पर इन बातों का कोई असर नहीं हुआ।
अलबत्ता, सड़क पर झाडू लगाता और बेतरह धूल उड़ाता हुआ सफाई वाला इस जोड़ी के पास आने पर ठीक उसी अंदाज में रुक गया जैसे किसी शाही सवारी के गुजर जाने की प्रतीक्षा कर रहा हो, और इन दिनों के आगे निकलते ही फिर बेतरह धूल उड़ाने लगा।
पोठोहारी बुढ़िया ने, मकान के आंगन को छीज कर बनाई गई छोटी से दुकान के आगे अभी तिरपाल ताना ही था कि लड़के ने उसे देख कर पहली बार लड़की के कांधे से हाथ हटाया और जेब से बीस का नोट निकाल कर उसकी सारी तहें खोल दीं। पूरी लम्बाई तक खुले हुए नोट को शान से हिलाता हुआ वह लकड़ी के आबनूसी काऊंटर के पास पहुँच गया, जिसके सामने वाले सारे शीशे दरके हुए थे। लड़के ने पचास-पचास पैसे वाली दो टॉफियाँ माँगी तो बुढ़िया का मुँह बिचक गया। फिर भी बुढ़िया ने मीठी आवाज में कहा
'भज्जे नईं हैंन पुत्तर जी।'
'क्या?' लड़का कुछ नहीं समझा
'टुटे नईं हैन पुत्तर जी।' बुढ़िया ने अपनी बात को सरल बनाने के लिए एक शब्द बदल दिया और लड़का समझ गया
'चलो फिर चार टाॅफी ही दे दो।'
लड़के ने शहीदाना अंदाज और ऊँची आवाज में कहते हुए बीस का नोट काऊंटर पर बिछा कर उस पर हथेली फैला दी। लड़के को उम्मीद थी कि बुढ़िया एक रुपए के लिए न सही पर दो रुपए के लिए बीस का नोट जरूर तोड़ देगी। उसका अनुमान सही था। बुढ़िया ने पचास पैसे वाली चार टॉफियों के साथ अट्ठारह रुपए लौटा दिए। लड़के ने मुड़ कर एक टॉफी लड़की को दी, दूसरी अपने मुंह में डाली और बाकी दो, वक्त के किसी और ऐसे ही दौर में मिठास घोलने के लिए जेब में रख लीं। लड़के ने फिर अपना हाथ लड़की के कांधे पर रखा और दोनों चल पड़े। बुढ़िया कुछ देर उन दोनों को जाते हुए देखती और मुस्कुराती रही।
इस जोड़ी के बड़ी सड़क पर आते ही, पास से गुजरते एक ट्रक ने कई बार बेवजह हार्न बजाया। टैम्पो वाले ने टैम्पो रोक कर शरारत से पूछा- कहीं जाना है तो छोड़ दूं। एक लोडर ने ठीक इनके पास पहुँच कर ढे़र सारा काला धुंआ उगला। पास से गुजरती एक स्कूल बस की खिड़कियों से झांकते हुए बच्चों ने इन पर नजर पड़ते ही बेइंतहा शोर मचाना शुरु कर दिया और एक सिटी बस ने सारी मर्यादाएं लांध कर, इनके ठीक पीछे पहुँच कर इतना तेज हार्न बजाया कि वह दोनों घबराकर किनारे हट गए। तब पहली बार लड़के ने गुस्से से बस के ड्राईवर को घूरा और फिर उसी तरह लड़की के कांधे पर हाथ रखे हुए धीरे-धीरे आगे बढ़ने लगा।
पार्क की ग्रिल लगी हदें शुरु होते ही बड़े-बड़े सायदार और कद्दावर दरख्तों का सिलसिला भी शुरु हो गया था। ग्रिल के पास से गुजरते हुए, चटख रंगों वालें अनगिनत फूल उन दोनों की आँखों में भर गए। लड़के ने क्षण भर को लड़की की तरफ देखा और उसकी आँखों की भाषा पढ़ ली। पर पार्क के अंदर पहुँच कर भी वह फूल तोड़े नहीं जा सकते थे। लड़का हताशा हो गया।
पार्क का बड़ा मुख्यदार बंद था पर उसके दोनों ओर लगे दो छोटे प्रवेश द्वार खुले हुए थे। पार्क के इन प्रवेश द्वारों के साथ ही एक फूल वाला लकड़ी के छोटे-छोटे सीढ़ीनुमा रैक जोड़ कर अपनी दुकान सजा रहा था। फूलों के ढेरों गुलदस्ते, टोकरियां और खिले हुए फूलों की रंगीन कतारें उन पर सजी हुई थीं।
'कितने सुंदर फूल है न।' लड़की ने हसरत भरी दृष्टि से फूलों की उस दुनिया को देखा। लड़की की आँखों में फिर वही अक्स तैरने लगे थे जो कुछ देर पहले पार्क के फूलों को देखकर कर तैरे थे। लड़के ने लड़की की आँखों को फिर पढ़ लिया और बेचैन हो गया।
'तुम अंदर चलो, मैं आता हूँ।' लड़के ने क्षण भर ठिठका कर वापिस मुड़ते हुए लड़की से कहा।
'कहाँ जा रहे हो।' लड़की असमंजस में पढ़ गई।
'तुम चलो तो, मैं आता हूँ।' लड़के ने कुछ जोर देकर कहा तो लड़की पार्क के भीतर चली गई।
लड़का लौटकर फूलवाले के पास आ गया और दुविधा में कुछ पल मौन खडे़ रहने के बाद पूछा
'फूल क्या भाव दिए?'
लड़के ने आज तक साग-सब्जी के ही भाव पूछे थे, इसलिए फूलों के लिए क्या कहे-वह समझ नहीं पाया। पर फूलवाले ने लड़के को लड़की के साथ पार्क के प्रवेश द्वारा की तरफ जाते हुए देख लिया था- इसलिए समझ गया।
'कौन सा चाहिए?' फूलवाले ने दिन के अपने पहले ग्राहक से पूरे सम्मान के साथ जानना चाहा।
'बस एक फूल- गुलाब।' लड़का सम्भल गया था और उसे समझ आ गया था कि वह टोकरी भर फूल नहीं खरीद सकता।
'बीस रुपए।' फूलवाले ने भाव बताए तो लड़का चुप हो गया और फिर निराशा से बड़बड़ाया
'बीस रुपए।'
चार टॉफी खरीदने के बाद लड़के की जेब में अब सिर्फ अट्ठारह रुपए बचे थे। इन अट्ठारह रुपए में से दस रुपए बचाना इसलिए जरूरी था कि लड़का, पार्क में लड़की के साथ मसालेदार चाय पीना चाहता था। शेष आठ रुपए भी एक साथ खर्च कर देना अक्लमंदी नहीं थी। कम से कम पांच रुपए तो किसी आड़े समय के लिए जेब में होने ही चाहिए। बाकी तीन रुपए वह फूल पर खर्च कर सकता था। पर यहाँ तो शुरुआत ही बीस रुपए से हुई थी।
कुछ देर सोच में खड़े रहने के बाद, लड़का बेहद झिझक से हकलाते हुए बोला।
'तीन रुपए वाला कोई फूल है?'
दुकानदार इस समय फूलों की डंडियां काट रहा था, पत्तियाँ तराश रहा था और फूलों को ताजा बनाए रखने के लिए, एक छोटी सी बोतल के फुहारे से उन पर ओस कोणों जैसी पानी की नन्हीं-नन्हीं बूंदों की फुहार कर रहा था। उसके पैरों के पास पड़ी हुई प्लास्टिक की टोकरी, पतों के तराशे हुए हिस्सों, काटी गई नुकीली डंडियों और फूलों की तोड़ी हुई, मुरझाई पंखुड़ियों से भरी हुई थी। लड़के का प्रश्न सुनकर वह कुछ सोच में पड़ गया। दिन की शुरुआत ही में, सुबह के पहले ग्राहक का उपहास करना या लौटा देना उसे ठीक नहीं लगा। अचानक उसे कुछ याद आया और वह पैरों के पास पड़ी टोकरी में हाथ डालकर कुछ ढूंढने लगा।
दुकानदार देर तक पैरों के पास पड़ी टोकरी में हाथ घुमाता हुआ कुछ ढूंढ़ता रहा- पर जो वह चाहता था, उसे नहीं मिला। अंत में उसने पूरी टोकरी ही फर्श पर उलट दी। सबसे नीचे दब गया मुरझाया हुआ सुर्ख गुलाब उभर कर ऊपर आ गया। लड़के के प्रश्न के बाद ही दुकानदार को फैंक दिए गए इस गुलाब का महत्त्व समझ आया था और अब वह इस गुलाब को एक नयी नजर से देखने के लिए कारीगिरी करने लगा था। दुकानदार ने बहुत नजाकत के साथ गुलाब की पंखुड़ियों के ऊपरी सूखे हिस्सों को अपनी पतली सी तेज कैंची से काटा, उसकी डंडी को तराश कर पंखुडियों पर पानी की बेहद महीन फुहार डाली और फिर गुलाब पर चमकीले सुनहरे कण छिड़कते हुए उसे लड़के की तरफ बढ़ा दिया।
गुलाब के उस फूल को पकड़ते हुए लड़के का दिल खुशी से धड़का। फूल पर ओस कणों जैसी टिकी हुई पानी की नन्हीं बूंदों को बहुत हिफाजत के साथ, गिरने के बचाता हुआ वह लौट कर उस जगह आया जहाँ लड़की उसकी प्रतीक्षा कर रही थी। खिले हुए चेहरे और चमकती हुई आंखों में विजयी भाव लिए हुए उसने एक खास नजाकत के साथ- जिसकी समझ उसे आज, बल्कि अभी से पहले कभी नहीं थी- वह फूल लड़की की तरफ बढ़ा दिया।
फूल देखते और पकड़ते हुए लड़की खुशी से चिंहुक उठी। उसे लगा कि वह भीगे हुए सुर्ख गुलाबों के अथाह समुद्र में महक रही है। फिर गुलाबों के इसी सुर्ख समुद्र में तैरते हुए वह दोनों आगे बढ़े और हवा खोर बूढ़ों के बीच से गुजरते हुए पार्क के घने सायदार पेड़ों के नीचे खो गए।
.................अब वहाँ सिर्फ गुलाब की महक शेष थी, पनीली, पवित्र और पारदर्शी।
लेखक का परिचय
नाम-जितेन ठाकुर
शिक्षा -एमए (हिन्दी), डॉक्टर ऑफ फिलॉसफी
साहित्यिक प्रकाशन-चंद सांचें चांदनी के (कविता संग्रह), दहशत गर्द (कथा संग्रह), अजनबी शहर में (कथा संग्रह), एक झूठ एक सच (कथा संग्रह), एक रात का तिलिस्म (कथा संग्रह), यादगारी कहानियाँ (कथा संग्रह), चोर दरवाजा (कथा संग्रह), जिन्दगी गुलज़ार है (कथा संग्रह), शेष अवशेष (उपन्यास), उड़ान (उपन्यास), नीलधारा (उपन्यास), चैराह (उपन्यास)।
-पहली कहानी 1978 में ‘सारिका’ एवं पहली कविता 1980 में धर्मयुग में प्रकाशित। दूरदर्शन एवं आकाशवाणी के विभिन्न केन्द्रों द्वारा कहानियों पर ‘टैलीफिल्म’ और ‘रेडियो नाटकों’ का निर्माण, जर्मन, अंग्रेजी, उर्दू सहित उड़िया, मलयालम, मराठी, गुजराती, पंजाबी, कन्नड़ और बंगला भाषाओं में कहानियाँ अनुदित और प्रकाशित अनुवाद। हिन्दी के अतिरिक्त डोगरी में भी लेखन।
सम्पर्क –
4, ओल्ड सर्वे रोड़, देहरादून, उत्तराखंड।
09410925219
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भानु बंगवाल, देहरादून, उत्तराखंड।